विजय हो
विजय हो
जब सब पड़े विचार में इस संकट के भार में
तू जड़ पकड़ चल अजर मुख पर लालिमा अपार हो
तान भृकुटि शूल पर शिला समय ये पार हो
निडर अविरल बहे चल तेरी विजय हो, विजय हो
तेरी मुष्ठी का प्रहार हो अजात शत्रु लाचार हो
बैठ जाये वो धरा पर ऐसा कौशल वार हो
बढ़े चल निर्भिक हो जटिल समय को छोड़कर
तेरी आभा प्रचर हो, प्रखर हो, विजय हो, विजय हो
शूल शब्द भूलकर, अडिग हो,जटिल हो
धावक पताका तानकर बह घोर अंधकार में
अपट डपट न रोक हठ, प्रकाश है
छुपा एक पथ के अन्तराल में, तेरी विजय हो, विजय हो।
उग्र हो न हो विरल, मन कुंठा को भूलकर
सप्त स्नेह की लालसा न मन मे विधमान हो
अडिग हो कूच कर,उठा मशाल दुंदुभि भी
बिठा पताका प्राचीर पर, तेरी विजय हो, विजय हो।
