वक़्त को शायराना कर
वक़्त को शायराना कर
वक़्त को शायराना कर
तू खेला कर फिर शाम के सन्नाटों से
रूठा हे जो वक्त तेरा
याद रख सब पन्ने हो जाएंगे
पुरानी एक किताब के ,
ये जो बिखेरे रखा जिसने तुझे
तू भी बेख़ौफ़ बिखेर दे उस डर को ,
तू राख़ बनने का इन्तेज़ार ना कर
सुबह होती है उनकी
जो करते न इन्तेज़ार रातों की
गहरी खामोशियाँ
बिख़रा वज़ूद
अधुरे पन्ने
तू खुद ही लिख कर समेट ले
इस से पहले वो समेट ले तुझे
वक़्त को शायराना कर
खेला कर तू फिर बेख़ौफ़ शाम के सन्नाटों से ...