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Sanjay Aswal

Abstract

4.6  

Sanjay Aswal

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औरत

औरत

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ये औरत भी 

अजीब प्राणी होती है, 

एक जीवन में हजार 

जीवन जी लेती है, 


मां बनकर देती है जीवन उस पुरुष को 

जो औरत को बे- आबरू करता है, 

बात बात पर उलहाना, 

शोषण का वार करता है, 

हवस में ना जाने कितनी औरतों के 

जिस्मों से खेलता है, 


रौंद देता है

उनकी खुशियों को,

उनकी इच्छाओं को मार देता है, 

अरमानों का गला घोंट

उनके ख्वाबों के परो को नोच देता है, 


और बना देता है 

उन्हे गुलाम 

अपने बनाए कुत्सित समाज का,

जहां प्रताड़ना है,

शोषण है, 

अत्याचार है, 


रोक टोक है, 

पाबंदी है,

पग पग पर कांटे हैं,

आडंबरों का टोकरा उसके सर रख

पांव में कुरुतियों की बेड़ियां पहना देता है 

वो औरत को उसमे जीने को मजबूर कर देता है,


उसे इंसान नहीं दोयम समझता है,

और औरत 

उसे पति परमेश्वर मान कर 

उसकी अर्धांगिनी बन 

उसका साया बन जाती है, 


उसे धूप छांव हर मुसीबत से बचाती है,

खुद उसके तपन में झुलस जाती है, 

उसकी सुहागन बन जीवन भर

साथ निभाती है, 

उसके लिए दुआ करती है,

उसकी लम्बी उम्र के लिए 


हर वो व्रत करती है

जिसमे वो खुद भूखी प्यासी रहती है,

और वो पुरुष 

उसे सिर्फ देह समझता है, 

अपनी उम्मीदों की गठरी 

उसके सर पर ढोता है, 

उसे मारता है, 

पीटता है, 


जब वो खुद किसी उलझन में फंसा होता है,

या अपनी हार की खीझ 

उस पर मिटाता है,

और औरत 

बेबस सब सहती है,

देर से आने पर भी 


बेसब्री से ड्योढ़ी पर 

उसका इंतजार करती है,

बिछ जाती है 

प्यार में उसके 

मगर उफ्फ नहीं करती है, 

ये औरत भी अजीब प्राणी होती है।


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