Jiya Prasad

Fantasy Tragedy Drama

3.9  

Jiya Prasad

Fantasy Tragedy Drama

ज़ोया का मातम

ज़ोया का मातम

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नए बरस का आज आठवाँ दिन है। घड़ी में समय दोपहर के 3 बजकर 20 मिनट हो चला है। मैंने इतने दिनों से कुछ भी नहीं लिखा और न ही सोचा। भला बिना सोचे कैसे लिखूँ! बाहर शोर हो तो बिन शोर वाली जगह पर जाकर बचा जा सकता है। पर जब ख़ुद के अंदर शोर ही शोर हो तो कहीं भी ठिकाना नहीं होता। शोर का ऑरिजिन जानती हूँ पर वहाँ से कैसे निकलूँ यह नहीं जानती। शायद अभी मन भी नहीं निकलने का। ऐसा दर्द कभी हुआ ही नहीं। यह नहीं पता था अभी तक कि दर्द में भी मज़ा होता है। कितना अच्छा लग रहा है यह दर्द। दवा की ख़्वाहिश ही नहीं हो रही। न राहत की आरज़ू है। बस लग रहा है कि दिन ऐसे ही टिके रहें। मैं तो चुपचाप अपने में बह रही थी तभी ज़ोया ने मुझे झकझोर दिया। ऐसे लगा किसी ने ऊंचे पहाड़ से धक्का दे दिया हो।

मैंने अपनी नाराजगी जतला दी। वो गुस्से में बोली- “तू सब बर्बाद कर रही है। भला यह सब भी कोई सोचता है!”

मैंने कहा- “इसमें क्या बुराई है?... दर्द मेरा है। दुख है सो भी मेरा, इसमें तुझे क्या हो रहा है? मैं क्या सोचूँ और क्या नहीं, कम-से-कम इतना हक़ तो मेरे पास रहने दो। तुम मुझे अकेले क्यों नहीं छोड़ देतीं? तुम चली क्यों नहीं जातीं? 

वो बेहद गुस्सा हो गई और मुझे अपनी लाल लाल आँखों से देखने लगी। ऐसा लगा कि अगर उसके हाथों में चाकू हो तो मेरे सीने के पार करने में उसे पल भी नहीं लगेगा...हम दोनों में अभी यह बहस हो ही रही तभी दरवाजे पर दस्तक हो गई। दरवाज़ा लकड़ी के दो पाटों वाला था। पुरानी वाली चटकनी लगी थी। दरवाज़े की, हालांकि कोई जरूरत नहीं थी फिर भी जमाने को देख कर अब्बा ने लगवा दी थी। मैंने तब भी कोई ऐतराज़ दर्ज़ नहीं करवाया। लगा कि मेरा ही भला इसमें छुपा है। थोड़ी कम रोशनी या हवा ही तो आएगी। जाने दो क्या फर्क पड़ता है। पर ज़ोया को दरवाज़ा लगने की बेहद खुशी थी। मुझे तो शक़ है कि यह रुकावट लगाने की उकसाहट अब्बा के दिमाग में उसने ही डाली होगी। न जाने कौन सी पढ़ाई पढ़ती है! इतनी किताबें पढ़ने के बाद भी मन से किसी सूखते हुए तालाब सी बातें करती है। खुद भी कशमकश में ही जीती है। खुश तो ऊपर से ही दिखती है। कहने को तो अब्बा की मैं ही इकलौती बेटी हूँ पर आजकल वो मुझमें उभर कर आ जाती है। अब्बा को मुझमें ही दो बेटियाँ दिखती हैं।

 

बहरहाल दस्तक की वजह कोई आदम नहीं था। न जाने कैसे दस्तक हुई थी! जैसे हवा ने ही की हो। हाँ शायद तेज़ हवा ही होगी। पर जब मैंने बाहर झाँककर देखा तब हवा तो मद्धम ही थी। रोशनी भी मीठी ही लगी। फिर ऐसा कौन था जिसने मीठी खटखटाहट की थी। ज़ोया को इस बार भी अच्छा नहीं लगा। उसने कहा कि अंदर से दरवाज़े की चटकनी ठीक से लगा कर रखूँ। इतनी मज़बूती से दरवाज़ा लगाऊँ कि बाहर से देखने वाले को लगे जैसे अंदर कोई नहीं रहता। कोई ज़रूरत नहीं दरवाज़ा खोल कर जश्ने बहारा की नुमाइश की जाये। मुझे अच्छा नहीं लगा।

मैंने कहा- “अंदर ऐसा है ही क्या जो जश्ने बहारा तुम्हें दिखता है, क्या सांस भी न ली जाए? इंसान होने का मतलब है क्या तुम्हारी नज़रों में?” 

हम दोनों में तूतू-मैंमैं शुरू हो गई। मैंने सोच लिया था कि ज़ोया से पीछा आज छुड़ा ही लूँगी। इसने कई बरसों से मुझे चैन से जीने नहीं दिया है। अम्मी-अब्बा की ये लाडली बनी फिरती है। पर नक़ाब लगाए फिरती है। इसका अस्तित्व मेरे बिना नहीं है। झूठ को जीती है। अपने को भी मारती है और चाहती है कि दूसरा भी इसकी तरह मरे।

ज़ोया को मेरी बातें और सवाल अंदर तक चोट दे रहे थे। वो अच्छी तरह से तिलमिलाई हुई थी। मैंने उसके चेहरे पर हिंसक होने की निशानियाँ देख ली थीं। पर न जाने वो कुछ न बोली और अपने पर क़ाबू करते हुए पल में ग़ायब हो गई। मुझे उसके जाने से राहत मिली। मैं अक्सर उसकी लाग लपेट वाली बातों का हिस्सा रही हूँ और कभी इंकार तो किया ही नहीं। मेरा ही हम साया है सो उसे नाराज़ नहीं किया कभी। पर अब वो मुझपर अपने को थोपती है। हावी होती है। मुझे कुफ़्त है।

दस्तक के बाद दरवाज़ा हल्का सा खुला था। रोशनी पूरे घर में छा गई थी। ऐसी महक फैली हुई थी जैसे बहुत से मोगरे के फूल एक साथ सुबह सुबह खिले हों। रोशनी में हल्की गरमाई भी थी जिससे कमरे के अंदर की शीलन और चिपचिपाहट धीरे-धीरे सूख रही थी। इस अहसास को मेरा रोम-रोम अपने अंदर सोख रहा था। मुझे मालूम चल रहा था कि इंसान बनना क्यों खुशकिस्मत वाली बात है। मैं इसी महकदार अहसास को मन में लिए न जाने कब सो गई। 

दिन के बाद शाम ही आती है। यही दस्तूर है। लेकिन मैंने उल्टा देखना शुरू कर लिया था। मैं शाम के बाद दिन और सुबह को क्रम समझने लगी थी। अंधेरे से भी मुझे प्यार हो चुका था। कई महीने गुज़रे चुके थे। ज़ोया का कोई आता पता नहीं था। मुझे तो खुशी ही थी कि अच्छा है उसका आना जाना बंद हो गया। उसके न रहने से हर जगह एक संतुलन ही दिखता था और है। वो जब सामने नहीं रहती तो अब्बा के कान भरने वाला भी कोई नहीं रहता। चैन-ओ-अमन होता है।

एक छुट्टी के रोज़ मैं अपने कमरे को दुरुस्त करते हुए गीत गा रही थी। तभी हाथ में कुछ महकी हुई चिट्ठियाँ आ लगीं। मेरे पूरे बदन में थरथराहट सी दौड़ गई। मैंने अपने कानों से आवाज़ों को देखा, जांचा और परखा कि कोई आसपास तो नहीं। क्योंकि मेरी नज़रें तो चिट्ठियों पर थी। मुझे वही महक आई जो कुछ महीने पहले दरवाज़े के खुलते वक़्त रोशनी के साथ कमरे में फैल गई थी। वही मोगरे वाली। मैं चिट्ठियों को एक टेबल पर रख धूल झाड़ने के काम में लग गई। काम कर के अपने लिए एक कप चाय बनाई। घर में कोई नहीं था इसलिए आज़ादी का बेहतरीन अहसास मन में घूम रहा था। चाय का कप टेबल पर रखते हुए मैंने चिट्ठियों को मीठी नज़र से मुसकुराते हुए देखा। कुछ ही पल में एक चिट्ठी मेरे हाथों में थी। न जाने कौन सा इत्र था जो मेरे रोम रोम में समा रहा था। मैंने चिट्ठी खोली और पढ़नी शुरू की।

अभी पहली पंक्ति के रस को पीया ही था तब तक न जाने कहाँ से ज़ोया धमक पड़ी। उसने गुस्से में मेरे हाथों से चिट्ठी खींच ली। 

मैंने भी गुस्से में उससे कहा- “पागल हुई जाती हो क्या? दिमाग नहीं रखती कि किसी की निज़ी चिट्ठी को नहीं लिया जाता!” 

वो तो जैसे फूंफकार रही थी। डंसने के लिए तैयार थी। उसने गुस्से की नज़रों से कहा- “तूने अब्बा की इज्जत का ख़याल नहीं रखा। बदनामी का गुल ऐसे खिला रही है कि गली मोहल्ले में तेरी ही चर्चा चल रही है। अपने दुपट्टे को ऐसा लहरा आई है कि हर कोई दूसरा लड़का इसकी छाया को बेताब है। कुछ तो ख़याल रखा होता कि तू एक लड़की है। अपना ही सोच रही है। ज़ाहिल कहीं की! पढ़ाई का असर भी नहीं तेरे पास। जाने क्या आग लगी तेरे बदन में!"

वो बोले जा रही थी। मैंने बहुत कोशिश की उसे अनसुना करने की। मैंने कर भी दिया। पर वह हिंसक हो गई और अचानक मेरी बेशकीमती दौलत पर हमला बोल दिया। उसने टेबल से चिट्ठियों पर एक झपट्टा मारा और रसोई घर की तरफ़ भाग निकली। मैं ज़ोया चिल्लाते-चिल्लाते उसके पीछे हो ली। मेरा पारा चढ़ चुका था। मैं अपने आपे में नहीं थी। फिर भी मैंने उसके आगे चिट्ठियों के लिए मिन्नतें कीं।

उसने पास में पड़ी माचिस से गैस चूल्हा जला लिया। मैं, 'ज़ोया मेरी चिट्ठियाँ लौटा दो’ कहती रही। उसने मुझे दोनों हाथों से सामने की दीवार पर धक्का दे दिया। मैंने संभलने की कोशिश की फिर भी मैं दीवार पर जा लड़ी। मेरी दोनों कुहनियों पीछे के हिस्से पर ज़ोरदार चोट लगी। तब भी मैं उठी और ज़ोया की तरफ झपटी। मेरी फुर्ती तेज़ साबित नहीं हुई थी। उसने चिट्ठियों को गैस पर बेदर्दी से झोंक दिया था। मैं अम्मी अब्बा के नाम से भी चिल्लाई। सोचा क्या पता कहीं से आ जाएँ और ज़ोया को रोक दें। पर वहाँ कोई नहीं था तो आता कौन! मेरी चिट्ठियों से चमकीली आग निकली और काले धुएँ के साथ उन्हें काले पेपर-पापड़ में तब्दील कर गई। मेरी मोहब्बत राख़ में बदल चुकी थी। मैं अब उबल रही थी। मैंने ज़ोया को ज़ोर से धक्का दिया। उसका सिर बर्तन वाली दीवार से टकरा गया। इस बीच बर्तनों के गिरने की तेज़ आवाज़ हुई। लेकिन मुझमें सब्र नहीं था। मैं ज़ोया को यह बतला देना चाहती थी कि उसने बहुत बड़ा ज़ुर्म किया है और उसे इसे किसी भी क़ीमत पर माफ नहीं किया जा सकता। मैंने उसे एक ज़ोर का धक्का मारा।

पर वह भी कम नहीं है। उसमें बड़ी पक्की परवरिश का खून दौड़ता है। उसे इज्ज़त और बेइज्ज़त जैसे शब्दों का बड़ा ख़याल रहता है। उसके मुताबिक़ मैंने मुहब्बत कर के बड़ा पाप किया है। मुझे इस बात का कतई हक़ नहीं कि मैं इस तरह की परवाज़ भरूँ। उसने अपने माथे को बाएँ हाथ से छूआ तो खून लिपट आया। उससे अपना खून देखा न गया। उसका बहता खून देख कर इस बीच मेरा दिल पसीज गया। मैं उसके पास उसे देखने दौड़ी तब तक उसने चाकू से मुझपर हमला कर दिया। वो उठी और मेरे पेट पर चाकू से कई वार किए। मुझे पता था कि अब मैं मर जाऊँगी। मैं कमजोर थी। ज़ोया ख़तरनाक। उसने बचपन से कट्टर ख़याल पाये हैं और मैंने ख़यालों की कट्टरता को कभी अपनाया ही नहीं। मैंने रुई से भी हल्के अहसासों को जीना चाहा था पर ज़ोया की नज़र में यह गुनाह से कम न था। मेरा जिस्म ज़मीन पर गिर चुका था। रसोई में खून था। मैंने दर्द से जो आँखें बंद कीं और दुबारा नहीं खोलीं।

दूसरी तरफ़ ज़ोया खुश थी कि उसने एक बहकी हुई लड़की और तय नियमों को न मानने वाली रूह को शरीर से बाहर कर दिया था। उसने मेरी लाश को घर के पीछे खाली पड़ी ज़मीन में दफ्न कर दिया। ज़ोया में दिली और जिस्मानी ताक़त हद से ज़्यादा रही है। इसलिए उसको इस काम में कोई दिक्कत नहीं आई। लगभग दो घंटे में उसने मेरी सारी निशानियों को ख़त्म कर दिया था। कुछ बचा ही नहीं था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि रसोई में किसी का क़त्ल किया गया है।

अगले रोज़ अम्मी और अब्बा आए तब तक ज़ोया नॉर्मल बन गई थी। अम्मी को कुछ शक़ भी हुआ कि ज़ोया के मिजाज़ से 'मैं' ग़ायब हूँ पर अब्बा ने कहा कि लड़की हमारी एकदम दुरुस्त है। तुम नाहक़ ही चिंता करती हो। शाम के खाने पर भी मैं ज़ोया के अंदर नहीं दिखी। अब्बा ने कहा कि पढ़ाई का असर बच्ची के दिमाग़ पर काफी हो गया है। आराम करेगी तब ठीक हो जाएगी। पर अम्मी का शक़ है कि जाता नहीं। उन्हें रसोई में लहू की गंध लगी थी। सो वो रात को ज़ोया के पास आ गईं। वो अपने तई कुछ तफ़तीश करना चाह रही थीं। ज़ोया पढ़ाई के टेबल के साथ बैठी थी। अंधेरे में। अम्मी ने पास जाकर ज़ोया के सिर पर हाथ रखा और मैं फफक फफक रो पड़ी। मैंने अम्मी को बताया कि ज़ोया ने आपकी ग़ैर-हाज़िरी में मेरा क़त्ल कर दिया था। अम्मी को समझ नहीं आया कि ज़ोया को क्या हो गया है!

  

कुछ दिनों बाद अब्बा गुलाब के कुछ कलम खरीद लाये और वहीं लगा दिया जहां मैं दफ्न थी। मुझे सुकून मिला। मुझे ठंडक का अहसास हुआ। अम्मी ने बड़े जतन से उन नन्हें पौधों की देख रेख की। उनमें गुलाब की कलियाँ आने लगी थीं। सब ठीक चल रहा था। अब ज़ोया का बर्ताव भी बदल गया था। वह शांत रहती थी मानो किसी गुनाह के लिए अफ़सोस में जीती हो। अम्मी उस पर ग़ौर किया करती थीं।

एक रात अम्मी ने अपनी डायरी में दर्ज़ किया- “ज़ोया, पीर के रोज़ अंधेरे में उन गुलाबों को अपने आसुओं से सींच रही थी। न जाने मेरी इकलौती बच्ची को कौन से साये ने घेर लिया है! दिन भर कुढ़ती है। जैसे उसने किसी का क़त्ल कर दिया हो। गुलाब के पौधों के पास ऐसे शांत होकर बैठती है जैसे किसी अपने के मरने के ग़म का मातम मना रही हो।...मैंने ज़ोया के अब्बा से दरगाह पर चादर चढ़ाने को कह दिया है। मैं तो चाहती हूँ कि हमारी बच्ची के सिर से जो भी बला है जल्दी चली जाये।

   

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