ज़िन्दगी और नजरिया

ज़िन्दगी और नजरिया

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बात–बात पर परेशान होना आज का फैशन है। हम सब अपनी-अपनी परेशानियों से परेशान है। एक अजीब कहावत है, “जिंदा है तो परेशान है।” इसका मतलब समझे तो परेशान या टेंशन में रहना ज़िन्दगी के लिए बहुत जरुरी चीज़ है, इसी लत की मैं भी मारी हूँ। हर बात पर परेशान होना मिज़ाज बन गया है। उस दिन हरे-हरे खेतों, तालाब और नहर देखकर मन के भीतर तक शकुन मिल रहा था, इसलिए भी क्योंकि गाँव, जिससे मेरा बचपन जुड़ा था फिर से मेरी नजरों के सामने था। बात सिर्फ आँखों तक ही नहीं रह गई थी। मिट्टी, पानी, फसल, जानवर और इंसान की खुशबू सब अपने से लग रहे थे।

इलेक्ट्रिक रिक्शा यानी हवा-हवाई अपनी ही रफ्तार से चली जा रही है। मैं अपनी आँखों में, फेफड़ों में और दिमाग में सब कुछ कैद करने की कोशिश में थी। दूर से रेल की आवाज़ सुनाई देती है, "जल्दी चलो भाई यह ट्रेन नहीं छूटनी चाहिए।"

यह सुनते ही मेरी परेशनी अचानक मुझ पर हावी हो गई। ड्राईवर ने कहा, "सर, नहीं छुटेगी। मैं हूँ न।"

ट्रेन नजदीक आती दिखाई दे रही थी। मैं बाहर से शांत पर अन्दर से परेशान, सब सुन और देख रही थी।

ड्राईवर ने कहा, "भाभी, तुम क्यूँ बाज़ार आई, लड़का कहाँ है ?"

"अब कौन सा पैदल चल कर बाज़ार जाना है, गाड़ी पकड़ो और चले आओ।" महिला ने जवाब में कहा।

ट्रेन कुछ धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रही है पर मैं अभी भी स्टेशन से कुछ दूर थी। परेशानी अब घबराहट में बदलती जा रही थी। "रोक न जरा।" महिला ने कहा, "बहुत आगे आ गए हम।" ड्राईवर यह कहते हुए हवा हवाई को पीछे करने लगा। अब मुझे गुस्सा आने लगा, यहाँ ट्रेन छूटने वाली है और यह भाभी से रिश्तेदारी निभा रहा है। लगभग १०० मीटर पीछे जा कर गाड़ी रुकी।

महिला ने कहा, "दीदी जरा पैर हटाइये।" मुझे लगा कोई समान होगा। मेरे पैर के पीछे मैंने पैर एक तरफ किया।

वो सीट से उतर कर पैर रखने वाली जगह पर बैठ गई। नीचे उतरते ही अपने हाथ के सहारे अपने शरीर को आगे की तरफ घसीटने लगी। उसके लिए यह चलना था। अपनी कमर से नीचे बेजान हिस्से से चलते हुए वह अपनी मंजिल पर पहुँच गई। ट्रेन की आवाज़ और सामने का दृश्य मेरे अन्दर बहुत देर तक ठहरा रहा।


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