ये कैसी नौकरी?

ये कैसी नौकरी?

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रंग-बिरंगे बिभिन्न प्रकाशकों के किताबों से सजे कमरे, कुछ खिड़कियों और कुछ बिस्तर के सिरहाने भी पड़ी हैं, उनमें दूर से ही चिर परिचित लुसेंट की किताब अपने पढ़ाकू साथी की व्यथा बता रहा थी। 

  किताबों से घिरे उस 5×8 के कमरे में कहीं दूर गाँव से आया लड़का,अपने जिंदगी का अहम हिस्सा यूँ कहें तो हसीन पल आँखों में सरकारी नौकरी के सपने लिए जीने वाला था। जैसे अर्जुन का मछली की आँख में तीर लगना जरूरी था, ठीक वैसे ही उसकी पढ़ाई की सारी सार्थकता सरकारी नौकरी पर ही आकर समाप्त होती है। यूँ तो इस उम्र में जीवन के कई लक्ष्य होते हैं परन्तु उसकी सरकारी नौकरी का होना खुद से ज्यादा सामाजिक, पारिवारिक और सांसारिक लक्ष्य था। बिना सरकारी नौकरी के आज के इस समाज में अपने दृढ व्यक्तित्व स्थापित करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा जान पड़ता है।

खैर सरकारी नौकरी की खोज में वो गाँव का सबसे होशियार लड़का दूर शहर तो आ गया लेकिन यहाँ आने के बाद उसे अपने वास्तविकता का परिचय मिला। जिसके चर्चे गाँव में होते थे उसकी गिनती सौ दो सौ कौन कहे यहाँ हजारों में भी नहीं है। अब उसे लग रहा था कि वो जिंदगी में अभी कितने पीछे है और सामने उम्मीदों का पहाड़ खड़ा है जो उसे हर हाल में सफलता की सीढ़ियों के सहारे पार करना है।

  अपनी अंदर की सम्पूर्ण ताक़तों को झोंकता हुआ वो पठन-पाठन के मार्ग पर तेजी से अग्रसर है। किताबों की ढेरों में से कभी मैथ, कभी रीजनिंग तो कभी जीके की किताब निकलती और जरूरत के अनुसार अध्ययन के बाद फिर वापस उसी रैक में अपनी अगली बारी का इंतजार करती। पढ़ने के साथ-साथ उसके हौसले काफी बुलंद होते चले जा रहे थे। उस सफर में अपनी व्यक्तिगत चाह ना जाने कितने पीछे छोड़ चला था, अब तो बस नौकरी लक्ष्य बन चुका था जिसमें वो दिन रात देखे बिना खुद को तपा रहा था कि शायद सफलता हाथ लगे। उसके मायने में सफलता का मतलब तो कुछ और था लेकिन सामाजिक परिवेश का भी ध्यान रखना जरूरी था।

आखिर वो दिन भी आ गया, ऊपर वाले ने उसकी मेहनत और परिश्रम का फल दे ही दिया। क्लर्क के पोस्ट पे उसकी नौकरी पक्की हुई। सभी खुश थे, घर पे मिठाइयाँ बँट रही थी, चारों तरफ उसके वाह-वाही के चर्चे थे। इनके बीच कोई दुखी था तो उसकी अंतरात्मा जो कहीं दूर बैठ अपने सपनों को दूसरों की खुशियो में तिल-तिल जलते देख रहा था। जलते अरमानों के साथ वो "Joining Letter" खोल कर एकटक देखे जा रहा था, उसको अंदाज भी नहीं हुआ कि कब उस "Joining Letter" के पन्नों को उसके अपने सपने आँसू बनकर भिगाते चले गए।


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