अनदेखी मंजिल

अनदेखी मंजिल

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डूबते सूर्य और उगते चन्द्रमा के बीच किराया वाले रूम के छत्त पर बैठ कर अपने करियर से जुड़े सवाल जवाब में जब मन उलझा रहता है कि, इस व्यावसायिक कोचिंग की चमक धमक से बनी कच्ची पगडंडी के सहारे कहीं दूर अनदेखा मंज़िल तक कैसे पहुँचा जा सकता है..?

सवाल तो बहुत होता है, ये करे, वो करे

और मज़े की बात ये है कि उनके जवाब भी होते है।

इन सवाल जवाब के बीच मन तो बहुत होता है कि कुछ अलग किया जाएं, गांव-घर में जो कोई न किया हो, मतलब बिलकुल लिक से हटकर

एकदम अलग स्टीरीओटाइप्स( रूढ़ धरना) तोड़ दे।

लेकिन उतना हिम्मत कहाँ रहता है कि अगर एक आध बार विफलता भी लगे तो, सम्भल कर खड़ा हो जाएं और दुनिया को बताए की

इंतज़ार करो अभी शुरुआत है ये।

एक दिन हम ही आएँगे लौटकर सबके बीच में अपनी जीत का जश्न सबके साथ मिलकर मनाने।

बस कुछ समय के लिए मुझे गिरते ही झट से उठने के लिए हाथ आगे बढ़ाये रहना।

मैं ये नहीं कहता की आलोचना न करो, बेशक टाँगे खींचो मेरी लेकिन हां, जब मैं फिर दोबारा मज़बूती से खड़ा होकर लड़ने निकलूं

तो मुझे उस ऊचाई तक पहुँचाने में तुम्हारे कंधों का भी सहारा हो।

इसी बीच जब सपनों की परछाईं के साथ चलते चलते याद आता है कि रीजनिंग का होमवर्क तो किये ही नहीं है,

फिर का बस वही पगडंडी पकड़ते है फिर से।


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