वो रंग
वो रंग
"माँ मुझे ये होली का त्यौहार कभी बचपन से अच्छा नहीं लगा लोग कैसे रंगने के बहाने कहीं न कहीं ऐसे छूते है कि वितृष्णा हो जाती है " पाखी ने परेशान होते हुए माँ से कहा ।
"ऐसे नहीं कहते हैं पाखी बचपन में तुम्हें लगता था कि रंग छूटे नहीं छूटता और अगले दिन स्कूल में सब एक दूसरे को देख हंसते थे जो तुम्हें बिल्कुल पसंद नहीं था। थोड़ा बड़ी हुई तो माँ मेरी त्वचा खराब हो जाएगी ,और अब ये बहाना ऐसे नहीं सोचते बेटा अब तुम्हारी शादी हो गई है तुम्हारी इसबार होली ससुराल में होगी वहाँ सब का सम्मान करना, ऐसे ही कुछ भी मत बोल देना "माँ ने पाखी को प्यार से समझाया ।
"ये हमारी परम्पराएं हैं बेटा जो विरासत के रूप में हमें मिली है जो हम अपने से अगली पीढ़ी को सौंपते हैं, किसी भी त्यौहार की शालीनता तुम पर निर्भर करती हैं तुम सम्मान से सबको तिलक लगाओ और स्नेह से उनसे गुलाल लगवा लो अगर कोई हुडदंगई हो भी तो शालीनता से उसे मना कर रोक दो, ठीक कहती हो तुम कुछ लोग इस पवित्र त्यौहार का नाजायज़ फायदा उठा इसका मज़ा और मन दोनों ही खराब कर देते है, पर वो चिन्हित हो जाते है उन्हें कोई सम्मान नहीं देता वो परिवार हो या समाज सबकी नजरों में गिर जाते हैं काठ की हांडी बार बार थोड़ा चढ़ती है बेटा ।
और बेटा अपने को आने वालों के स्वागत में खिलाने चाय बनाने में व्यस्त कर लो तो कोई भी अनावश्यक दबाव नहीं बनाएगा और घर के बड़े भी ध्यान रखेंगे समझी " कहते हुए माँ चौके की ओर बढ़ गई ।
