खुदकुशी
खुदकुशी
"देखो रमेश तुम आज फिर पीकर आ गए हो, क्या हो गया है तुम्हें अचानक से तुम तो ऐसे नहीं हो, तुम्हारा ये चलन बच्चों पर गलत असर डाल रहा है। अब ये हमारी गृहस्थी पर भारी पड़ता जा रहा है" प्रेम ने रमेश को दरवाजे पर संभालते हुए कहा।
गुस्से से चिल्ला उठा रमेश "अपने पैसे की पीता हूँ तुम्हारी कमाई की नहीं, छिनाल ऑफिस के नाम पर सारा दिन न जाने कहाँ गुलछर्रे उड़ाती हो, लड़खड़ाते हुए दीवार को पकड़ते हुए आगे बढ़ा रमेश।
तेज आवाज सुन दोनों बच्चे बाहर आ गये पिता को ऐसी हालत में पहली बार देख कर घबराकर बोले "माँ पिता जी की तबीयत खराब हो गई है क्या इनको चक्कर आ रहें हैं पिता जी ऐसे क्यों लड़खड़ा रहें है।"
एक शब्द भी कहे बिना प्रेम दोनों बच्चों को ले कर शयनकक्ष में चली गई।
वहाँ बच्चों को लिटा कर बोली "सुबह स्कूल जाना है न अब जल्दी से अच्छे बच्चों की तरह सो जाओ कल जब कार्यालय के वापस आऊंगी तब इस बारे में बात करूँगी " प्यार से समझाते हुए प्रेम ने कहा। चलो अब आँखें बंद करो बच्चे मां से आश्वासन पा कर आँखें बंद कर लेट गए।
शयनकक्ष का दरवाजा बंद कर बाहर आई प्रेम, देखा सोफे पर आड़ा तिरछा रमेश लेटा खर्राटे ले रहा है उसका मन वितृष्णा से भर गया सारे घर में एक अजीब सी दुर्गंध भर गई थी। उसने खिड़कियां खोल दी बाहर से आती ठंडी हवा ने कुछ राहत दी।
रसोई समेट ख़ुद भी बिना खाये लेट गई। नींद आंखों से कोसो दूर थी विचारों में खोई प्रेम, सोच में पड़ गई, रमेश के कदम क्यों इस ओर बहक रहें है । ये तो समय से पहले स्वयं आत्मघात करने जैसा कदम है। इतना प्यार करने वाला हर सुख सुविधा का ध्यान रखने वाले रमेश ने दस साल के वैवाहिक जीवन में कभी कोई शिकायत का अवसर नहीं दिया। बच्चों की हर बात मुंह से निकलते ही पूरी करना जैसे उसका शौक था। अब अपने कर्तव्यों से विमुख कैसे हो सकता है। कुछ तो ऐसा है जो अंदर ही अंदर रमेश को खाये जा रहा है मगर क्या ये मुझसे बात क्यों नहीं करता आज पहली बार ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं कहीं कुछ तो गड़बड़ है। मुझे सुबह ही बात करनी होगी कहीं बात बहुत न बिगड़ जाए।
कल बच्चों को स्कूल भेज कर मैं और रमेश इस समस्या का समाधान खोजेंगे, अपनी जिंदगी को ऐसे आत्महत्या नहीं करने दे सकती मैं। मुझे रमेश को इस से बाहर लाना होगा सोचते सोचते न जाने कब प्रेम को निद्रा ने घेर लिया।