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डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत" प्रीत

Drama

4.5  

डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत" प्रीत

Drama

वो लम्हा

वो लम्हा

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ले अम्मा तू भी ये चार पूड़ी ले ले बाकी मैं रख लेती हूं- एक स्त्री आवाज- जो बहुत ही नम्र, नाजुक, शांति से शब्दों को तोलकर बोलने वाली थी व कम उम्र भी दर्शा रही थी।

अररी...रहन दे, तुमही रख लियो, घर जाके मोड़ा-मोड़ी (बच्चों) को खिलाईयो मोरो का है कोई भी कछू दे दे है तो खा के पेट भर लेहूं। अकेली जान हूं दिनभर मा इत्ता तो मिल ही जात है के पेट भर जाए। 

दूसरी आवाज जो बातों की तरह उम्र की परिपक्वता दर्शा रही थी। अरी अम्मा हम इसी ससुरी रोटी की खातिर ही तो जीवत-मरत हैं-चाहे भीख मांग के ही न गुजारा करना पड़े है—

का करे? अपनी तकदीर में शायद ऊपर वाले ने ये ही सब कछु लिख्खा हो.... और देखो ये अमीरन लोग इनको कोई जात की भी कदर थोड़े ही है इस रोटी की ? बेरहमी से फेंक देत हैं, अन्नपूर्णा है, ये तो, पर ई लोग अन्नपूर्णा की भी इज्जत नाही करत हैं?

हम लोगन की तरह भूखे रहें तब समझें इस रोटी की कीमत। अपना का है जब जैसा मिल जावे गुजारा कर लेत हैं, ना मिले तो पानी पी के भी गुजारा कर लेत हैं—पहली आवाज

कित्ते बच्चे हैं तोहार? दूसरी आवाज। अरी अम्मा, पांच-पांच बच्चे और मुआ एक खसम का बोझ लादे जी रही हूं—पहली आवाज

अरी मुई- पांच-पांच बच्चे जनने की कहे तकलीफ करी...आज के समय में दो-तीन बच्चों की ही सरकार सलाह देत है देखत नहीं हो अपनी बस्ती में डाक्टरनी आके और रिक्शे में भोंपू वाला ये ई कहत है कि हम दो हमारे दो।

हम जेसन के लिए तो इत्ते बच्चे पालन में कित्ती मुश्किल होत है। सब-सब साले नाली के कीड़े कै जैसे पलत हैं- भीख मागो, चोरी चपाटी, कचरा बीनवे को काम, बस ये ही तो जिन्दगी है। और तू तो जानत है, महंगाई की मार से अच्छी भीख भी तो मिल नई पात है। अरी तू कैसे पालत है इन सब को ?

अरी अम्मा पूरे के पूरे पांच हमरे थोड़े ही हैं। दो हमारे, दो हमार सौतनिया के और एक हमार बहन को है, जो अब इस दुनिया में नई है। हमार मरद ने दो लुगाइयां कर रखी हैं पहले-पहल तो हम दोनों सौतनों में खूब ही झगड़ा होत रहत हतो बिल्कुल भी हम दोनऊ की पटत नई थी पर अब सब धीरे-धीरे ठीक कर लियो, हम मिल-जुलकर रहन लगीं।

अगर हम झगड़ा ही करत रहत तो मुआ मरद वही का हो ले रह जात, का करे औरत जात करे भी तो का, सब कुछ मरद जात पे ही तो हमार जीवन निर्भर है, वो जो भी करे वो सब ठीक, हम कछु भी न करे तो भी बदनामी हमार ही होत है...

का भयो कि हम भीख मांग कर जीवन जीयत हैं, पर हमार भी तो कोई दीन धरम है के नई......बोल अम्मा और तो और हम गरीबन को तो भगवान भी अपना नहीं होत है..।

सबकी झूठन बटोर-बटोर, भीख मांग-मांग कर जीवन गुजारना पापी पेट की खातिर ही तो ई सब करन पड़त है..

मुऐ पेट को एक बखत की रोटी न मिले तो कुलबुलात है- अंधे कुंए सा जित्ता डालो कभी भरत ही नईयां। थोड़ी देर भी न बीते कि दाना-पानी की खातिर जोर करन लागत है—बस इसी अंधे कुंए से पेट के भूखे की खातिर कब जिन्दा रहत, रहत मरजात हैं, हमें पता ही नाही चलत है कब ये मुआ जीवन पूरो हो के खत्म हो जात है, ये भी पता नई लागत बस ठठरी बांद कर श्मशान में जला देत हैं। अब देखो हम ई रोटी को मरत हैं जीवत हैं पर इन अमीरन को ऐकी कदर नाही।

ऐसे फेंक देत हैं मानो उनके लिए कोई जरूरी ही ना हो- जैसे पुराने कपड़े फेंक देत हैं या फिर हम जैसों को तिस्कार कर के दे देत हैं। उनकी फेंकी हुई रोटी के हम हिस्सेदार बनके ई धरती पे मानो आये हों- और- और शादी-ब्याह में तो इत्ती झूठन छोड़त हैं और खाना फेंकत हैं कि पूछो ही मत।

अरे उनके झूठन और फेंके खाने से तो अपनी पूरी बस्ती भरपेट खाना खा सके है। और भगवान ने बहुत सोच-विचार कर हम जैसों को जनम देकर धरती पर भेजो है—अनपुरना का अपमान ना हो- एक-एक दाना हम पे करजदार है। अम्मा करज तो हर हाल में उतारना ही पड़त है चाहे कछू हो जाए। अन्न को अपमान तो ईश्वर व देवता का अपमान है।

अरी...तू तो बहूतई बड़ी-बड़ी बात करत है

तोर इत्ती बड़ी-बड़ी बात हमार समझ में नई आवत है- तू तो बड़ी ज्ञान वाली पढ़ी-लिख्खी मालूम होत है री। कहां से सीख के आई री इत्ती सारी बातन को- दूसरी आवाज। अरी अम्मी हम कोनऊ पढ़े-लिख्खे नाही हैं हम तो निरे बुद्धू अनारी ठहरे पर एक बखत हम ऐसई टरेन में भीख मांगत-मांगत बस ऐसे ही एक टेशन में उतर गए, बाहर थोड़ी दूर जाके हमें बहुत सारी भीड़ दिख्खी- हम सोचन लागे चलो आज किस्मत अच्छी है, खुबई सारे पईसे मिल जावेंगे बस ऐई सोच के आगे बढ़त गई आगे जाकर का देखो कि खुब बड़ो पंडाल बधो है। और खूब दूर साधु महात्मा जी कछ्छू बतियां रहे हैं- सब बैठे सुन रहे हैं सो हम भी बैठ गए- कटोरा अपने आगे धर कर- काम भी होत रहो और महात्मा जी की बातें सुनके मन आत्मा तृप्त हो गई, महात्मा जी की कही बात हमार मन में बस गई-

बस उसी रोज से हम उनकी बातों का पालन करन लगी-

जो भी जित्ती भी रोटी भीख में मिलती उसमें से एक हिस्सा कुत्ते को, एक गैया को, एक किसी भूखे को- और जो कछ्छु बचा-कुचा रह जावे तो उसमें ही हम अपना पेट भेर लेत हैं- और हां अम्मा रुपया पैसा भी जो कछ्छु दान-धरम की खातिर दे ही देत हैं- कभी कोई मंदिर की पेटी में डाल देत है, कभी अपने जैसे ही किसी भिखारी को दे देत हैं- कभी कहीं कोई मंदिर-मस्जिद बन रही हो तो उसकी पेटी में भी इच्छानुसार पैईसा डाल देत हैं। हम भिखारी ही सही, भीख मांगकर अपनो जीवन अच्छो करेंगे तो शायद अपने किए पाप कट जावें, तो शायद अगले जनम में ऐसी जिन्दगी तो ना मिलेगी।

का भिखारी के मन में दया, ममता नाही होत-

मानवता व इन्सानियत का पाठ तो जिन्दगी के भोगते सुख-दुख से ही तो सीख जाते हैं।

अरी अम्मा महात्मा जी ने तो इत्ती अच्छी-अच्छी और ज्ञान वाली बातें समझाईं कि हम मानवों के कारण ही तो भगवान को अवतार लेकर इस धरती पर आनो पड़ो है- सच्ची में और का का बताऊं मैं तो धन्य हो गई प्रवचन सुनकर

और भी न जाने कितनी ही अच्छी-अच्छी, बड़ी-बड़ी बातें बोलते जा रहे थे।

वो और हम अन्दर कब तक कैद रहते। तैयार होकर बाहर निकले तो देखा वाशरूम में बिल्कुल दरवाजे के पास वो दो बातें करने वाली बैठी हैं।

एक बिल्कुल दुबली-पतली पीली साड़ी, लाल ब्लाऊज पहनी थी, बालों में तेल डाल सलीके से चोटी बनाई थी, ललाट पर लाल गोल बड़ी बिन्दी थी, लम्बी सिन्दूर से मांग भरी हुई थी- हल्की गेहूंआ रंग थोड़े ऊपर के बड़े दांत बाहर निकले हुए, आंखों में गहरा काजल उसे कुछ हद तक सुन्दर बना रहा था पर मोटी चपटी नाक उस पर बिल्कुल शोभा नहीं दे रही थी।

पर हमें तो उसके चेहरे की मासूमियत ने मोह लिया। उसके विचारों को सुन उसकी शारीरिक काया देख हमें कहीं से भी वो भिखारन नहीं नजर आई।

और-और उसे देख कर ऐसा कहीं से भी नहीं लगता था या कोई सोच भी नहीं सकता था कि इतनी ज्ञान के साथ साथ पवित्रता, भोलापन, सच्चाई की गंगा भी बह रही है। उसके अन्दर अजीब संयोग बना रखा है, ईश्वर ने कि जहां बहुत अधिक ज्ञान की संसार के लोगों को जरूरत है, साथ ही ज्ञान होते हुए भी सही-सही उपयोग व इस्तेमाल नहीं किया जाता है---हर मानव आधुनिकता की भीड़ में भाग-भाग अव्वल आने की होड़ में दांव लगा-लगा कर अंधकारमय और निरुद्देशीय जीवन जिये जा रहा है।

उसके पास तो अपने लिए भी वक्त नहीं है तो वो गाय, कुत्ते या किसी जरूरतमंद के लिए क्या करेगा या क्या क्या सोचेगा।

और देखो तो इस भिखारन के पास कुछ भी न होते हुए भी इतना कुछ है कि वो संसार के चक्रों को अपने मन-मुताबिक चला रही है।

वक्त के सांचे में ढली, अनपढ़ गंवार मजबूर, लाचार होने के बाद भी अपने आप में किसी ज्ञानी योगी से कम नहीं।

और उम्र भी तो कोई ज्यादा नजर नहीं आ रही थी- 30-31 के आस-पास ही होगी। और दूसरी वाली अधेड़ उम्र की 55 या 60 के आस-पास की होगी—बाल पूरे के पूरे सफेद, चिथरे बिखरे उसमें भी लड़कों जैसे कटे हुए सर पर ही जमे हुए जिसे दोनों हाथों से खुजला रही थी- फटी पुरानी साड़ी, काला रंग, टूटे दांत, उदासी भरा एक दम झुर्ऱियों वाला चेहरा।

भीड़ होने के कारण कुछ पल वहीं रुककर इन दोनों को हमने निहारा- दोनों के कटोरों में खाने की चीजों के साथ बांटी हुई पूडियां देख मन को बहुत सुकून मिला। सोचा पर्स खोलकर उनको कुछ रुपये दे दूं-

पर हिम्मत नहीं हुई वापस आकर दिल-दिमाग में हलचल मच गई- क्या हम जैसे इन्सान भी इस भिखारिन के जैसा सोच के कर पायेंगे? या इस भिखारन के जैसे कर पायेंगे? इतने ऊंचे विचार, अच्छी सोच हम क्यों नहीं रख पाते? न जाने कैसी-कैसी बुराइयों को अपने अन्दर अपनाकर पालते जाते हैं? अपना पेट भरने के लिए कितनों के पेट काटते हैं-

उफ...दिल दर्द से कराहने लगा। हे ईश्वर इस दर्द का कोई इलाज तो होगा।

मैं अपने आप को उन भिखारिनों से भी ज्यादा भिखारिन महसूस करने लगी इतनी कंगाली तो आज से पहले अपने भीतर मैंने कभी भी महसूस नहीं की थी। और शायद इसी कंगाली को महसूसते हमें उनको रुपये देते शर्म आई थी।

और वैसे सच ही तो है क्या आज का मानव इन्सान कहने के लायक है- कितनी कितनी कैसी-कैसी बातों को दोहराकर उल्लेख करके बन्द मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की।

कुछ देर में भोपाल आ गया। तभी मैंने महसूस किया कि उन दोनों की भाषा जिस तरह की रही वो तो मध्य प्रदेश में बोली जाती है। स्टेशन पर उतर कर टहल-टहल कर गरमा-गर्म पतली पानी वाली ही सही पर वो चाय पीकर सरदर्द में कुछ राहत महसूस करते हुए फिर अपने गंतव्य की ओर गाड़ी में बैठ गई। 

जिन्दगी की भागदौड़ में शायद बहुत ही जल्दी मैं इस सच्चाई की वास्तविकता को भूल जाऊं और पुनः अपनी दुनिया में मस्त हो जाऊं पर क्या हममें इतनी समझदारी व सहनशीलता कभी आ पायेगी?

सवाल गाय, कुत्ते को रोटी या भीख देने व मंदिर-मस्जिद में रुपये पैसे देने का नहीं है- सवाल तो बस सवाल है आज भी बहुत सारे प्रश्नों का जवाब प्रश्न ही बना रह गया है- और वक्त के चलते पहिये के नीचे न जाने कितनी जिन्दगियां कितनी लाचारी बेबसी, मजबूरी दम तोड़ रही है।


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