कुकुरमुत्ता

कुकुरमुत्ता

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 आज की रात रहने दो साहब, पूरा बदन बुखार से तप रहा है, जिस्म का पोर पोर  दर्द से टूटकर भट्टी की माफिक तप रहा है।

अगर आज की रात इस मुऐ को आराम नहीं मिला तो, कल ना जाने और कितनी किस किस प्रकार की पीड़ा बर्दाश्त करनी पड़ेगी।

     पूरे दिन पूरी रात तकलीफ सहकर जालिमों को खुश करना होगा, और अगर किसी शैतान को खुश करने के चक्कर में और ज्यादा बीमारी ने घेर लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।

     बस आज की रात मुझे बख्श दे, कल की पूरी रात तेरे नाम, कल तुझे बहुत ऐश कर आऊंगी, ऐसे ऐसे ऐश कर आऊंगी जैसा तूने कभी सोचा ना कभी किए होगा। अपने जिस्म की जमीन पर तुझे जन्नत की सैर कराऊंगी।

    बस आज की रात मेरी बात मान लो, मेरे दर्द और तकलीफ को समझो।

      मैं जिंदगी भर तेरी कर्जदार रहूंगी।आज वैसे भी अपुन का मन बहुत उदास है दिल किसी दर्दो गम से और बदन किसी और दुख से बेजार हैं।

  कल रात एक जालिम ने खूब रौंदा था, मिल गई हराम ज्यादा नशे में धुत था।

   यह सारे मर जा अपने आप को ना जाने क्या समझते हैं जब नशे में होते हैं, औरतों पर अपनी मर्दानगी साबित करते हैं पर असलियत में वह क्या होते हैं ? यह एक औरत ही जानती है,,,,,,, साले सब खोखले, खाली पड़ी बोतल की और निचोडे हुए कपड़े की तरह,सब,

    सब ना मर्द है साले मेरी नजर में, और अपने आप को कामदेव का अवतार समझते हैं यहां आने वाला हर मर्द मुझे सूअर की औलाद सा महसूस होता है।

    पर आज तुझसे हाथ जोड़ तीनों की बस आज की रात मुझे परेशान मत करो।

     अगर तुम सच्चे दिल और दया ममता वाले ह्रदय के इंसान हो गए तो जरूर मेरी तकलीफ और दर्द को महसूस करोगे।

       अपने बदन से एक एक कपड़े को उतारते ,उसकी आंखों से झर झर खारे पानी का झरना बहता हुआ उसके दर्द की ठहरी चट्टानों को और भी मजबूत बना रहा था।

     आज वो हिमशिला की तरह पिघलना चाहती थी,स्वयं को स्वयं के हवाले कर आज की रात अपने साथ गुजारना चाहती थी।

  कारण?,,,,,,,,

उसने जब से अपने तन को बाजार की रौनक बनते पाया कोई भी ऐसा फल नहीं था कि उसने अपने लिए जिया हो।

   ना जाने कब सूरज उगता और जिस्म की जमीन में कांटे बोती रात पुनः सुबह मैं तब्दील हो जाती थी।

     उसका आज हिमशिला की तरह पर करना वाजिब था। .


क्योंकि क्या जरूरी कि फरियादी की पुकार सुनी जाए, और न्याय मिल ही जाए? मगर न्याय मिल जाने के बाद भी क्या? बच पाना यहां बसने वाली जिसे अनेकों नाम की उपमाओं से नवाजा जाता है रंडी ,वेश्या, धंधेवाली और भी ना जाने कितने नाम से उच्चारित करके इनके दर्द और पीड़ा को बढ़ाया जाता है क्या इनकी तकदीर में यहां से बाहर निकलना लिखा है या संभव है कि वे अपना अलग जहां बसा सकें हर किसी की तकदीर में नहीं होता है ये सब।

  

    उसे पक्का विश्वास था कि अभी आवाज गूंजेगी हरामजादी ,कुत्तिया, छिनाल ,फोकट में थोड़े ही तेरे बदन को सेकने आया हूं।

    तो जैसी के नखरो को अच्छी तरह समझता हूं।

   ना जाने कितनों की रात दिन रंगीन करती है और जब बदन साथ नहीं देता तो बीमारी का बहाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है।

    मैं यहां तेरी बकवास या तेरी बीमारी के दुखते जिस्म की कहानी थोड़े ही सुनने आया हूं।

     मुझे तो अपने तन में लगी आग को बुझाने से मतलब,,,,,,,, समझी तू

     कान खोलकर सुन ले मेरा काम होने के बाद तू मरे या जिए इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

     चल चल जल्दी कर वरना अपना भेजा खराब होने लगेगा और खोपडी काम करना बंद कर देगी।

   सबसे बड़ी और बुरी बात तो यह होगी कि मेरे भीतर जो गर्म लावा उबल रहा है वो तेरी बकबक से ठंडा पड़ गया तो देखना तेरा गला दबा दूंगा।

    इन सब दिल को तोड़ने वाले ,रूह को खत्म करने वाले शब्दों को वह कानों में उबलते शीशे की तरह महसूस कर रही थी ,पिघले सीसे ने उसे व उसके मासूम जज्बातों को बर्फ की तरह जमा दिया था।

     एक एक लफ्ज़ का उसके कान, मन ,आंख, दिल ,आत्मा किसी को भी अब कोई फर्क नहीं पड़ता था रोज का ही मामला था।

   और यह सब जो उसके मन उसके दिल में हथौड़े की चोट से वार होते हुए उसके वजूद उसके जमीर को थरर्रा दे रहे थे यह सब स्वयं ही स्वयं उसे अपने भीतर घुसते महसूस हो रहे थे,,,,,,,, सिर्फ हवा में लहराते यह शब्दों के बाद उसे ही भेद रहे थे, उसे अकेले खुद को ही सुनाई दे रहे थे।

     उसने ना चाहते हुए भी अपने कानों को जोर से हाथों से दबाकर बंद कर लिए।

      यह सब तो सिर्फ उसकी अपनी सोच से उपजी शब्द लहरी थी,जो रोज रोज सुनते सुनते रोजमर्रा की नियति में शामिल होने की वजह से उसके मानस पटल पर इस तरह अंकित हो गई थी मानों जैसे कोई गोदना गोदंते हैं अपने शरीर के किसी अंग पर ,जिसका मिटना नामुमकिन हो।

   वह अपने ही ख्यालों की शब्द लहरी में तैरती उतराती अपने आप में डूबती खोई हुई अपने तन का एक एक कपड़ा बेमन से उतारने में लगी थी।

   बड़ी ही मुश्किल से वह यह काम कर रही थी।

    उसका आज का ग्राहक तो खामोश कहीं खोया सा बैठा जुबां से एक भी शब्द नहीं फूट रहा था अपने ही खयालों से उपजे शब्दों को सुना था उसने।

   जब वह निर्वस्त्र हो गई तो ना जाने क्यों आज वो दूसरी बार शर्म महसूस कर रही थी, पहली बार तब बहुत शर्म महसूस हुई थी ,जब सब से पहले हां पहली मर्तबा उसने इसी तरह अपने कौमार्य को ,अपने सपनों, जज्बातों ,अपनी भावना को ,और बचपन से थोड़ा ऊपर आई जवानी की दहलीज पर खड़े अपने आने वाले भविष्य को मजबूरी या फिर किसी की थोपी गई जिम्मेदारी की भट्टी में खुद को झोंक दिया था।

   उस समय पहली बार किसी मर्द के शरीर की गर्मी से निकलते लावे को अपने भीतर समाते वो बहुत शर्मसार हुई थी वह मर्द उसके लिए उस समय किसी वहशी जानवर या सब बातों में हष्ट पुष्ट होते हुए भी उसे वह नपुंसक महसूस हुआ था।

   नारी के शील की ,उसकी लाज की, जो लाज ना रख पाए हो किसी में से जानवर दरिंदे से कम नहीं है।

     वह अगर चाहता तो उसकी जिंदगी बचा सकता था।

   बहुत रोई गिड़गिड़ाई थी पर सब बेकार।

   एक गंदी गाली निकल गई आज वह सब याद करते हुए ,उसके मुंह से उस नामर्द के लिए ,मुंह का थूक भी कसैला हो गया वहीं पलट कर उसने थूक , थूक दिया।

    और फिर तब से तो सब रोज की दिनचर्या या रात के जश्न में शामिल हो गया।

     हर रात अपने आप को नंगा करते करते हो सही मायने में तन को ढकना किसे कहते हैं भूल ही गई थी।

   जब कभी भी अपने ऊपर होते अत्याचार पर आवाज उठानी चाहिए तो उसकी आवाज गले में ही घूंट दी गई मार खा खाकर बदन हरा जमी हुई काई सा कर दिया जाता।

    ना चाहते हुए भी उसने हथियार डाल दिए थे।

     आज दूसरी बार वो उस ग्राहक के सामने कपड़े उतारते हुए वैसे ही शर्म महसूस कर रही थी।

      मानो आज ही ताजा खिलने वाली कली हो, मासूम भोले भाले सपने संजोने वाली,अरमानों की डोली में बैठने वाली नवयौवना दुल्हन हो, और आज उसके सपनों का राजकुमार घोड़े पर सवार हो उसे सपनों की दुनिया को साकार बनाने ले जाने वाला हो, छोटी सी उसकी जीवन बगिया खिलकर महकने वाली हो, अब दूर दूर तक दर्द-ए-ग़म ,तन्हाई पतझड़ का आगमन नहीं होने वाला हो।

   सोचो की अंधेरी बिना और छोर की गुफाओं में विचरते हुए उसने अपने आज के ग्राहक को देखा जो अपने आप में ही डूबा हुआ खयालों में था और ना जाने किस दुनिया में खोया था।

   आज इस अजनबी ग्राहक में ना जाने ऐसा क्या था जो उसका दिल महसूस कर रहा था जो उसकी समझ में नहीं आ रहा था

     दिल कुछ तो दिमाग कुछ और कह रहा था, दिल दिमाग के बीच जंग छिड़ी थी, एक ऐसी जंग जिसमें जीतना भी हार के समान था।

    यह सब सोचते अनायास ही उसके खूबसूरत गुलाब की पंखुड़ी के होठ हौले से मुस्कुरा दिए।

     उसने अपने बेलगाम उड़ान भरते ख्वाबों खयालों की लगाम खींच कर अपने भीतर ही कैद कर लिया अपने सपनों की डोर को किसी अंधेरे खंडहर में बांध दिया।

    और अपना तन तैयार कर दिया उस ग्राहक को सौंपने के लिए,जोश के लिए बिल्कुल अजनबी ताप पर फिर भी कुछ जाना पहचाना लगा।

और,,,,,,,,जो अभी तक मौन था सूनी आंखों से उसे निहारे जा रहा था।

    आज का यह ग्राहक यू तो देखने में अच्छा खासा दिख रहा था या यू कहेंगे की एक मर्द को कैसा होना चाहिए बिल्कुल वैसा ही था।

    और यह ग्राहक शायद खुद दर्द का मारा था दिल में मानो किसी उबलते तूफान को संभाले था आंखों में आंसुओं के सैलाब छुपाए था ऐसा उसे महसूस हुआ।

 पर हां,,,,,,,,,,,,

जिस्म मै थमा ज्वालामुखी यह कह रहा था कि बस अब बस ज्यादा और जरा भी देर हुई तो किसी भी वक्त जिस्म की जमी का सैलाब सब तबाह कर डालेगा।

    अगर जल्दी ही जीता जाता नारी बदन ना मिला तो शायद तबाही आ सकती है ऐसी तबाही जिसकी सीमा रेखा सिर्फ जिस्म के बाहर ही नहीं जिस्म के भीतर बसते बहते लहू, नाडियों ,नसों ,हड्डियों के बसे बसाये गांव शहर कस्बे को यह जिस्म में उबलता वासना का ज्वालामुखी विनाशकारी ना साबित हो जाए।

     इसे वही महसूस कर सकता है जिसका मन और शरीर इसके शिकार होते हैं और अगर उसे जल्दी ही अपनी मंजिल ना मिली तो ना जाने वह इंसान कब दानव बन जाए, किसी भी हद तक गिर जाए, इसका अंदाजा खुद स्वयं इसको भी नहीं होता ,और इसी मन:स्थिति में वह मासूम नन्ही जीती जागती कलियों को भी अपनी वासना की घिनौनी आग के शोले में जिन्होंने से भी बाज नहीं आता है।

    

     मानव की जिस्मानी वासना की आग को जब भी बुझाने के साधन नहीं मिले तब तब ऐसी तबाही आई के घर ,समाज ,देश में इस देह की आग ने कितने जलजलों को जन्म दिया।

    ऐसी ही आग को बुझाने का श्रेय इन बस्तियों को दिया जाता है।कहने मात्र को यह बदनाम है पर अगर यह देहासुकून देने वाली बस्तियां न हो तो अपनी प्यास बुझाने के लिए उन मर्दों द्वारा समाज में कितने प्रलय लाते रहेंगे जो सामाजिक बंधनों को नहीं मानते।

    

यह अजनबी ग्राहक भी उसी आग का शिकार है और नि: वस्त्र होती स्त्री अग्नि बुझाने का अग्निशमन का यंत्र।

      मगर आज की रात जो माजरा था वह कुछ अलग था,या एक ऐसी हकीकत कहेंगे कि चारदीवारी के बंद सीलन भरे बदबूदार कमरे को इत्र की परफ्यूम की खुशबू से रोमांटिक बना रखा था थोड़ा आधुनिक शैली में ढला बदनाम प्रसिद्ध बस्ती के छोटे कमरे के भीतर की घटित सच्चाई भीतर ही भीतर दम तोड़ देती है।

     हालांकि उसके लिए रोजाना का किस्सा था।

     जिस्मफरोशी ने मानो आज बनी बनाई मजबूरी का लबादा और अपनी अलग ही दुनिया बसा ली है।

   कभी मजबूरी तो कभी स्वेच्छा से ऐशो आराम की जिंदगी जीने के लिए अपनाई वह वहशीवृत्तियो का मानवीय वृत्तियो 

मै आज कुकुरमुत्ता का बेरोकटोक पनपना जारी है।

     जिस प्रकार कुत्ता अपने मन मुताबिक उचित जगह देखकर अपनी एक टांग उठा कर मूतना चालू कर देता है,,,,,,,,,ठीक वैसे ही हर एक दिमाग से सोचने समझने वाले मानव कहलाने वालों ने उसी प्रक्रिया को अपनाकर इतने कुकुरमुत्तू उगा दिए हैं कि घर, समाज ,देश ,गांव ,कस्बा कुछ भी अब सुरक्षित नजर नहीं बचा नजर आ रहा है।


    इन कुकरमुत्तो का मनचाही जगह मूतना बंद करना हो तो एक ही उपाय है वह यह कि या तो इन्हें भरे चौक पर नंगा करके गोली से उड़ा दिया जाए या इनके सेंटर पॉइंट यानि मूत्र पलायन करने वाले यंत्र के अस्तित्व की ही समाप्ति कर देना।

     

 ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी।

अचानक उसने अपने सूखते ज्वर से तपते बदन को जो कि मरियल पंखे की हवा लगने से भी पतली टहनी से भी कांप रहा था गर्माहट महसूस की।

     

 क्योंकि उसके ग्राहक ने उसे अपनी बांहों में भरा और जब उसके बदन को तपती आग सा महसूस किया तोबहते आंसुओं से भरी आंखों को उठाकर देखा तो अपने तन पर पुराने पलंग पर नई सी खुशबू छिटकी चादर को अपने तन से लिपटा पाया।

     साथ ही स्वयं को मजबूत बांहों में उठाए पलंग पर उसकी बाहों में उसके चौड़े सीने से लिपटा थपकी ओं से सुलाते पाया चादर से लिपटा उसका तन अपने ग्राहक अपने खरीददार से खुद-ब-खुद अब और ज्यादा लिपटने लगा।

    बदन का दर्द, ज्वर ,थकान ,तड़प ,मजबूरी, मायूसी, सब खत्म होने लगी,उसका प्यार भरा एहसास उसकी कोमलता ने रोज तन बेचने वाली को मजबूर कर दिया समर्पण के लिए।

      वह सोचने लगी बस अब आज इस पल जो भी हो जाए वही मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सत्य सबसे सुहाना और हसीन पल अपनी स्वेच्छा का समर्पण आज रूह की गहराई तक का सब तुझे अर्पण मुझे अपने प्यार की गंगा में बहा ले जा।

      फिर उसका मन सोचने लगा,,,,,,,,,,,

     माना कि मैं एक ऐसा फूलों जो देवता पर नहीं चढ़ाया जाता जिसका कि इस जालिम जमाने में कभी कोई वजूद नहीं समझा पर फिर भी मेरी पवित्र आत्मा तुझ पर न्यौछावर, प्यार का यह स्नेहिल स्पर्श थपकीओं का मधुर धुन सी भरे गीतों की गुनगुनाहट

निरंतर,,,,,,,, निरंतर ,,,,,,,,,,,,,,निरंतर,,,,

 उसके कानों में पढ़कर ह्रदय को आत्म विभोर कर रही थी,,,,,,, और यह धुन किसी पिघलते शीशे से नहीं अपितु मानो मां की लोरी ,पिता का स्नेह ,प्रेमी की वफा वाली प्रेम धुन, सब कुछ सब कुछ आज उसे मिल गया उस अजनबी से।

     उस अजनबी से उसे आज पहली बार मोहब्बत का एहसास हुआ।

     मजबूत बाहों में सिर्फ एक चादर से लिपटा उसका अर्ध नग्न शरीर लाज की चादर में सिमट गया।

      उसका सुंदर सा दिखने वाला बीमार सा मुखड़ा खिले गुलाब सा खिल गया, वह उसके सीने से और ज्यादा जोर से लिपटकर चिपक गई,,,,,,मानो यह कह रही हो कि यही बाहें यही प्यार ,सम्मान ,अपनापन यह धड़कनों का एक दूसरे के साथ धड़कना ,मेरी जिंदगी है और तुम ही मेरी जिंदगी हो अब मुझे छोड़ कर कहीं मत जाना यही बस जाना मेरे दिल की जमी पर मेरी रूह की बस्ती में।

    इन्हीं खयालों में वह ऐसी सोई मानो बरसों बाद सुख शांति वाले नींद में सोई हो।

उसका आज का ग्रहण आज के ठहराए हुए रुपयों को वहीं रखकर काली रात की कालिमां को सुनहरी भोर दे चुपचाप चला गया।

     मानो आज उसने स्वयं भी अपने भीतर एक ऐसे सूरज को उगते देखा जिसका कि कभी अस्त होना ही नहीं है उदयांचल है पर अस्तांचल का नामोनिशान नहीं है।

    उसने उगते सूरज की पहली रश्मि को नतमस्तक हो नमन किया।

    कुकुरमुत्ते को जन्म देकर पनपने से पहले ही जड़ सहित उसके वजूद को उखाड़ कर खत्म कर दिया।

     भोर की किरण खिलने वाली रश्मि उसके कमरे में उसकी गहरी नींद की गवाह बनी थी।

     दूसरी और वो अजनबी अपने दर्द को अपने भीतर मै उबलते पौरूषी लावे को ,उस आग को अपने भीतर ही समेटे गंतव्य की ओर बढ़ा जा रहा था मानो बीती रात ने उसके अंतःकरण को नवीन ज्ञान से तृप्त कर दिया हो।



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