वो कौन है ?
वो कौन है ?
रविवार की सुबह थी वो। सैन फ्रांसिस्को की पाँच सितारा होटल मे एक बड़े से बाल रूम मे हो रही थी एडवांस टेक्नोलोजी पर एक कॉन्फ्रेंस। सुबह से एक के बाद एक प्रेजेंटेशन हो रहे थे और सभी एक से बढ़कर एक। मैं अभिभूत सा था। दोपहर के खाने के पहले एक और प्रेजेंटेशन एक भारतीय महिला का था। नाम कुछ अजीब सा था उसका “सु पैट”। वो स्टेज पर आई । धुंधले प्रकाश मे उसका चेहरा पहचान मे नहीं आया। “आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस” इस विषय पर उसका प्रेजेंटेशन शुरू हुआ और हम सब जैसे अपनी कुर्सी से चिपक से गए। अपने विषय पर बहुत अच्छी पकड़ थी उसकी। प्रेजेंटेशन कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला। बहुत ही प्रभावशाली तरीके से उसने प्रेजेंटेशन किया था। उसकी आवाज, बोलने का लहजा, एनिमेशन वाली स्लाइड्स और उसका समझाने का तरीका॥ जबर्दस्त !! भोजन के लिए बाहर निकलते वक़्त सभी की यही अवस्था थी.
भोजन कक्ष मेँ फिर से वो दिखी। अब उसका चेहरा एकदम स्पष्ट दिख रहा था। उसकी प्लेट मे कुछ सलाद और स्टार्टर थे। कॉन्फ्रेंस के आयोजक और कुछ प्रेजेंटर उसे घेर कर खड़े थे। सभी उसका अभिनंदन कर रहे थे और वो सभी को हंस कर नम्रता असे उत्तर दे रही थी। मैं भी कुतूहल से उसकी ओर देख रहा था। अन्तर्मन से कहीं आवाज आई “एक बार मुझे भी उससे मिलना चाहिए”। लेकिन वो अकेली दिख ही नहीं रही थी। फिर मैंने खयाल छोड़ दिया।
जाने दो देर हो जाएगी ये सोचकर मैं भी अपने भोजन की थाली परोस कर एक कुर्सी पर बैठकर खाने लगा। मुझे खाते हौवे पाँच मिनट ही बीते होगे तभी “मे आय जॉइन यू?” कहते हुये किसी ने मेरी पीठ पर थपकी दी। पराए देश मे कौन मुझे पहचानने लगा ये सोच मैंने पीछे मुड़कर देखा तो थोड़ा चौंका। “वो” ही थी। कुर्सी पर बैठते हुये उसने पूछा “तुम विवेक बारलिंगे हो न?” कहते हुए वो मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठी। मैं बुरी तरह से चौंका। पश्चिमी फॉर्मल सूट पहनी हुई, नक्षशिकांत स्मार्ट दिखनेवाली वो औरत मुझे मेरे नाम सहित “तुम” कहकर बात कर रही थी।
“पर आप ... मतलब तुम ... “ मैं पहचानने की कोशिश करके उससे कुछ पुछूँ उससे पहिये ही वो बोल पड़ी “ अरे मैं सुनंदा पटवर्धन. खामगाव मे फर्स्ट इयर मे हम लोग एक ही क्लास मे थे कुछ याद आया?”। यादों के झरोखों से एक चेहरा चमक उठा। लेकिन ये “वो” कैसे? मैं सोच मे था तभी किसी ने उसे आवाज दी और वो “लेट अस मीट इन द इवनिंग” कहते हुये मुझे बाय का इशारा करके चली गयी।
और में अतीत के गलियारों मे चला गया। सुनन्दा हमारे क्लास की सबसे होशियार लड़की थी। पर उसके बहुत कम ही कोई दोस्त सहेली थे। मैं तो भी उसकी मित्र सूची मे नहीं था। वह हमेशा साधारण से सुती सलवार कुर्ता पहनती, उसपर तेल लगाकर बनाई हु दो लंबी चोटी, बिना किसी मेकअप के पैरों मे स्लिपर पहनकर एक पुरानी से खटर खटर साइकल पर कॉलेज आती थी। बहुत कम बोलने वाली और अपने काम से काम रखनेवाली लड़की थी वो। पास ही की किसी निम्नस्तर सोसाइटी मे रहती थी ऐसा किसी ने बताया था। हम जैसे मस्ती मे डूबे रहने वाले और क्लास बॅंक करने वाले छात्रों का अलग ही ग्रुप था। कभी सिनेमा कभी पिकनिक तो कभी कुछ और। लेकिन वो लेक्चर खत्म होने के बाद हमेशा लाइब्ररी मे जाती और फिर वहाँ से सीधा घर। खाना भी घर से एक स्टील के टिफिन मे लाती और क्लास मेँ ही खा लेती। उसे कभी भी कैंटीन या सिनेमा जाते नहीं देखा। उसकी कोमल नजर थी मुझ पर ऐसा मुझे कई बार एहसास हुआ था पर मैंने कभी उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। प्यार के बारे मे सोचना तो बहुत ही दूर की बात थी। वो मुझसे कभी कुछ बात करती तो भी मैं हमेशा उससे बात करना टालता रहता।
साल पूरा होने को आया तब प्रक्टिकल बुक पूरी करने की चिंता हुई। दोस्तों ने कहा अगर सुनन्दा की बुक मिल जाये तो काम बन जाएगा। मुझे भी दोस्तों की बात सही लगी। उनके लिए न सही लेकिन खुद के लिए तो मैं सुनन्दा से बुक मांग ही सकता था। मैं इसी कोशिश मे लग गया। उस दिन मैं दोस्तों के साथ सिनेमा न जाकर लाइब्ररी गया। उसके सामनेकी कुर्सी पर बैठकर पढ़ाई करने का झूठा ढोंग करने लगा। दो तीन दिन इसी तरह गुजरे। उसने मुझे देखा पर कुछ बोली नहीं। बस अपनी पढ़ाई करती और निकल जाती। एक दिन मैंने उससे बात की और बुक मांग ली। थोड़ी सी ना नुकुर के बाद दो दिन की मुहलत देकर उसने मुझे अपनी प्रैक्टिकल बुक दे दी। बहुत ही सुंदर अक्षरों मे सलीके से बनाई हुई। हालांकि दो दिन कहने के बावजूद मैने लिखने मे देर लगाई और दस दिन होने के बाद भी मैंने उसे उसकी बुक वापस नहीं दी। आखिर उस रविवार को वो अपनी सायकल से अचानक मेरे घर आ गयी। मैं एकदम घबरा गया। पता नहीं क्या कहेगी और घर वाले क्या सोचेंगे। वो घर मे आई। माँ और पापा को सलीके से चरणस्पर्श किया और नम्रता से अपने आने का कारण बताया। लेकिन मेरी बुक तो अब तक कोरी ही थी। कल देता हूँ कहते कहते भी वो अपनी बुक लेकर चली गई। जाते जाते उसने बहुत गुस्से से मुझे देखा. मुझे समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ। माँ पिताजी भी उसकी तारीफ कर रहे थे।
दो दिन बाद मंगलवार को उसने मुझे लाइब्ररी मे मिलने के लिए बुलाया। कुछ झिझकते हुये ही मैं गया। उसने एक नयी प्रेक्टिकल बुक मुझे दी। सुंदर अक्षरों मे पूरी लिखी हुई। उस बुक पर सुंदर सा कवर चढ़ा था और लेबल पर मेरा नाम लिखा था। उसकी आंखे देर रात जागकर लिखने से शायद सूजी हुई थी। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वो बिना कुछ बोले चली गयी। उसके बाद कॉलेज बंद हो गया और हम सीधे परीक्षा के केंद्र पर ही मिले। वो हमेशा परीक्षा के पहले किताबों मे उलझी रहती। पूरी परीक्षा खत्म हो गयी लेकिन मैं न उससे मिल पाया न कुछ बोल पाया। उस प्रेक्टिकल बुक की वजह से मुझे विषय मे अच्छे मार्क मिले थे और मैं उसे धन्यवाद भी नहीं कह पाया।
उसके बाद मेरे पिताजी का ट्रान्स्फ़र औरंगाबाद हो गया और हमारा शहर बादल गया। गर्मी की छुट्टियाँ थी और उस वक़्त मोबाइल का जमाना नहीं था। बल्कि फोन भी बहुत मुश्किल से किसी के पास होता। मैं खास किसी को कुछ बता नहीं पाया।
उसके बाद सुनन्दा आज मेरे सामने थी.... पर इतना बदलाव? मैं अचंभे मे था। न आँखों को भरोसा हो रहा था न कानों को।
“अरे हो कहाँ तुम” कहकर फिर वो सामने आई। और लगभग खींच कर ही वो मुझे अपनी कार मे ले गयी। कार निकालकेआर सीधे एक लाउंज मे ले गयी। मुझसे पूछे बिना मेरी पसंद का नाश्ता और जूस लेकर आई। मैं अचंभे मे था लेकिन पूछा नहीं॥
इधर उधर की बातें करते करते हम लोग फिर अतीत मे पहुंचे और मैंने उसे इस बदलाव के बारे मे पूछा। उसने बताया “जिस साल तुम कॉलेज छोडकर गए, उसी गर्मी की छुट्टी मेँ मेरे पिताजी चल बसे। किसी तरह ट्यूशन पढ़ाकर और घरों मे काम कर के मैंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। पर उसके बाद गरीबी के मारे पढ़ाई छूट गयी। घर मे आर्थिक सहयोग की जरूरत बढ़ गयी। जल्दी ही भाई ने अपनी आर्थिक परिस्थितिनुसार सगाई कर के मेरा विवाह कर दिया। साथी चुनने की छूट नहीं थी मुझे। पति खूब शराब पीता था। किसी न किसी वजह से मुझे मारता। वो पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए वो हमेशा मुझे अपमानित करने का बहाना ढूँढता रहता। विवाह के एक साल के भीतर ही मुझे एक लड़का हुआ। उसके बाद एक दिन अचानक शराब पीकर सड़क पर झूमते हुये वो एक ट्रक से टकराया और अपने प्राण जगह पर ही त्याग दिये। तब मेरा बेटा 2 साल का था।“
“फिर अब यहाँ कैसे ? तुम मेँ इतना बड़ा बदलाव ? ये सब कैसे हुआ ? “ मैंने पूछा
“अरे अब मैं और मेरा बेटा अकेले बचे थे। भाई की कमाई भी सीमित और अब उसका परिवार भी था। कब तक उनके भरोसे रहती। जीने के लिए कुछ करना तो जरूरी ही था न। फिर कुछ इधर उधर काम कर के और थोड़ी इस भाई की मदद से एक कम्प्युटर का कोर्स किया। बहुत कोशिश के बाद एक छोटी सी कंपनी के कम्प्युटर डिपार्टमेंट मेँ नौकरी लगी। इसी नौकरी केदम पर थोड़ा और ज़ोर लगाया, बैंक से एक छोटा लोन लेकर कम्प्युटर का एडवांस कोर्स किया। उसी क्लासकी प्लेसमेंट सेल की मदद से एक मल्टीनेशनल कंपनी मे मेरा डायरेक्ट सेलेक्शन हो गया। मेरा काम अच्छा था और मनोबल भी। मेरी लगन की वजह से जल्दी तरक्की हो गयी। उस वक्त अमेरिका मे भारतीय आईटी के लोगों की बहुत डिमांड थी। एक साल के अंदर ही मेरी लगन तो देखते हुये कंपनी ने मुझे ऑन साइट भेजा। कंपनी की तरफ से ही पर्सनलिटी डेवलपमेंट का कोरसे हुआ। अब तीन साल से यहीं रिसर्च कर रही हूँ ।“
“ओ माय गॉड ... इतना सब कुछ हो गया तुम्हारे साथ और फिर भी इतना आत्मविश्वास... यकीन नहीं होता” मैंने कहा
“ज़िंदगी सब कुछ सीखा देती है विवेक” उसने जूस का सिप लेते हुये कहा
“और तुम्हारा बेटा ? वो कहाँ है” – मैंने पूछा
“अभी मेरा बेटा लोनावला के एक बोर्डिंग स्कूल मेँ है” उसने बताया
“अब आगे क्या इरादा है ?”
“आगे कुछ खास नहीं। तीन चार महिने मे मेरा ये प्रोजेक्ट पूरा होगा। फिर वापस मुंबई जाऊँगी। तब तक बेटे की प्रयमरी की शिक्षा पूरी हो जाएगी। फिर उसे भी बोर्डिंग स्कूल से निकाल लूँगी और हम दोनों साथ रहेंगे”
इतनी मितभाषी सुनन्दा एक मुलाक़ात मे ही कितना कुछ बोल गयी... “हे भगवान॥ “ मेरे मुंह से निकला
“अरे मुझसे ही पूछते रहोगे या अपने बारे मेँ भी कुछ कहोगे। मैं भी सच मे पागल हूँ सिर्फ अपने बारे मे ही बोलती रही। तु अपने बारे मे बताओ यहाँ कैसे ?” उसने पूछा
मैं भी उसके साथ हंसा। “अरे मेरे बारे मे बताने को भी कुछ नहीं” मैं बोला “खामगाव से पापा की ट्रान्सफर होने के बाद हम औरंगाबाद आ गए। वहाँ इंजीन्यरिंग ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद कैट की परीक्षा दी और आय आय एम मे चुन लिया गया”। दिल्ली मेँ रहकर MBA किया. उसके बाद कैम्पस मे ही एक बंगलोर की आयटी कम्पनी मेँ नौकरी लग गयी। पिछले पाँच सालों से बंगलोर मे हूँ। यहाँ भी कम्पनी के एक क्लाइंट के काम से र्ट टर्म असाइनमेंट पर यहाँ आया हूँ पिछले रविवार को ही। प्रोजेक्ट “इन्टरनेट ऑफ़ थिंग्स” पर है इसलिए मेरे क्लाइंट नेही मुझे इस कोंफ्रेंस के लिए नोमिनेट किया. अच्छा हुआ तुमसे मुलाक़ात हो गयी। नहीं तो इस पराए देश मे मैं सच मेँ उकता जाता। “
और बाकी विवाह वगैरे ?” उसने पूछा
“नहीं किया अब तक। कोई मिली नहीं मन लगे वैसी। अब पापा नहीं रहे पिछले साल हार्ट अटैक से चलते रहे। माँ पीछे पड़ी रहती है टिपिकल माँ जैसी। कब तक पराए शहर मे अकेला रहूँगा। अब विवाह कर लो। हर हफ्ते तसवीरों का एक लिफाफा आ जाता है। अब उनसे क्या कहूँ?” मी बोललो.
नाश्ते का बिल उसी ने दिया। “अगले रविवार क्या कर रहे हो? कुछ पक्का नहीं हो तो मेरे घर आना। दोपहर मे जल्दी आओगे तो कहीं घुमाने भी ले चलूँगी। रात का खाना साथ खाएँगे मेरे घर।” उसने कहा और मैंने बिना कुछ सोचे समझे सकारात्मक गर्दन हिला दी।
उसने मुझे कार से होटेल तक छोड़ा। कमरे मे पहुंचा पर वह नजर के सामने से हटती नहीं थी। मन की अच्छाई और आत्मविश्वास इंसान को कितना खूबसूरत बना देता है इस बात पर मुझे कभी भी भरोसा नहीं आता अगर मैं सुनन्दा को आज नहीं मिला होता। मन मेँ उसके ही विचार चल रहे थे। प्रोजेक्ट के काम करते करते भी वही नज़र के सामने आ जाती। लगता जैसे सामने खड़ी रहकर वो मुझे ही निहार रही है। क्या जाने क्या हुआ था मुझे। जो लड़की कॉलेज मे साल भर मेरे साथ थी ॥ जिसे मैंने कभी नजर भर भी देखने की जरूरत नहीं समझी आज वो हर वक़्त मेरे ख़यालों मेँ थी। इतवार कब आएगा अरु कब मैं उससे मिलुंगा बस यही गिन रहा था मैं।
किसी तरह रविवार का दिन निकला। उसके यहाँ जाने के पहले मैंने कई बार कपड़े बदले, कोई दस बार बाल सँवारे दोपहर होने के पहले ही होटल से निकाल गया। डी मार्ट मेँ जाकर उसके लिए एक छोटा सा गिफ्ट खरीदा, कुछ गुलाब और अचानक ज्वेलरी शॉप मे भी घुस गया। सब कुछ लेकर बटुए की इजाजत नहीं होने पर भी टैक्सी ली और उसके घर पहुंचा। वो भी तैयार थी। शायद वो भी इंतजार कर रही थी। एक छोटासा सुंदर घर था उसका। कोई ज्यादा फर्निचर नहीं। कॉफी पीकर हम निकले। उसने सैन फ्रांसिस्को के आस पास की बहुत सारी जगहों पर ले गयी। शाम को आठ बजे हम घर पहुंचे। उसने खाने की काफी सारी तैयारी पहले ही कर रखी थी। सादा भारतीय खाना बनाया था। उसने खाना गरम किया और ताजे फुल्के बनाकर लायी। हम दोनों ने खाना खाया।
थोड़ी देर बातचीत करने के बाद मैंने विदा लेने की बात काही। “दो मिनट रुको कहकर वो अंदर गयी”। बाहर आई तब उसके हाथों मे एक छोटी सी एम्ब्रोयडरी की हुई थैली थी। उसने वह मेरे हाथ मे दी। मैंने खोल कर देखा तो उसमे मुझे मेरा कॉलेज लायब्ररी का आइडेंटिटी कार्ड, मेरा रुमाल और एक पेन था. ये उसी दिन खो गया था जिस दिन मुझे सुनन्दा ने प्रेक्टिकल बुक दी थी। प्रक्टिकल बुक मिल गयी थी इसलिए मैंने भी कुछ खास ध्यान नहीं दिया था। ढूँढने की कोशिश भी नहीं की थी। कदाचित लायब्ररी मे। ही भूल गया था। लेकिन सुनन्दा ने उसे अब तक इतना संभाल कर रखा था ये उस खूबसूरत थैली को देखकर ही समझ मे आ गया था। मैंने उसकी तरफ देखा लेकिन वो मुझसे नजर चुराने की कोशिश करने लगी।
मैं उसके पास गया और उसके चेहरे को हथेली मे लेकर उठाया। उसने नज़र उठाकर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों के आँसू वो सब कुछ कह गए जो उसकी जुबान कह नहीं सकी थी। मैंने उसकी आंखो को चूमकर उसके आँसू पी लिए और अपनी जेब से डब्बी निकाल कर उसकी उंगली मे अंगूठी पहना दी।
देर रात को होटल मे पहुंचा तो मैं बहुत खुश था। पहुँच कर सीधा माँ को फोन लगाया और बोला “माँ इस बार मैं तुम्हें एक बड़ा सरप्राइज दूंगा।”