वो दिन भी क्या दिन थे
वो दिन भी क्या दिन थे
सच में पहली बार मुझे उन गाड़ियों की हॉर्न से चिड़चिड़ाहट नहीं होती, बल्कि ऐसा लगता है कि मुझे उनसे मोहब्बत हो गई है। स्कूल को जाते वक्त साईकिल से वह सफ़र जिसमें सूर्य की किरण हर एक के मन में ताजगी ला दे। आसमान और पेड़ों की वह विचित्र आर्द्रता जिसमें वे सबके मन मोह लेते थे, आज वह सब देखना एक सपना हो गया है। जाते - जाते कोई दोस्त मिल जाए तो बस! स्कूल की पहली वार्तालाप उन्ही जनाब के साथ होती है, जिसमें सबसे पहला स्थान होमवर्क खत्म करने की मुश्किलों से शुरू होकर फिर टीचर की शिकायतों तक चलती है और फिर गेम्स पीरियड की प्लानिंग में जा खत्म होती है। स्कूल में लेट न होने के लिए वो भागदौड़ और लेट हो जाने पर टीचर की वह हर दिन की एक ही गाली जो शायद कभी - कभी याद रह जाता है, आज फिर से वही गाली सुनने को कान तरस गए हैं और लड़कियां तरह-तरह की बाल बनाकर आने से टीचर की वह डांट आज न जाने क्यों बहुत याद आती है।
प्रार्थना सभा में हर बार एक ही प्रतिज्ञा लेना, समाचार सुनते हुए भी न सुनना, मिलकर गाना गाना और हर बार उन दो शब्दों वाली लंबी- लंबी भाषण सुनकर अनिच्छा से ताली बजाना; यह सब तो अब कठोर तपस्या के फल मालूम होने लगे हैं। और हाँ! सबसे जरूरी बात, अगर प्रार्थना सभा में सूरज दादा अपनी चमक का प्रदर्शन करना चाहे, तो उन्हें इतनी बद्दुआएं मिलती थी कि वह खुद बादलों से अपना मुंह छिपा लिया करते थे।
क्लास शुरू होने पर गणित के वे जटिल प्रश्न, विज्ञान के वे टेढे-मेढे चित्र, अंग्रेजी का वह नासमझ अध्याय, हिंदी के बड़े-बड़े उत्तर, सामाजिक विज्ञान के वे अटल तारीखें और संस्कृत का वह बूढ़ा व्याकरण सब कुछ एक ही बोर्ड पर समा जाते थे। आज वही बोर्ड के अनुपम दर्शन के लिए आंख तरस जाते हैं।
और हाँ!, हमारे यहां दो चीजों की बड़ी प्रतीक्षा होती है। पहली पूर्णिमा की चांद की तरह आने वाली गेम्स पीरियड की, जिसमें न जाने हमारे बैग से कितने ही खेलने के सामान निकलते हैं और पुस्तकें बेबस होकर उन्हें देखती रहती है। दूसरा है हैलिस कामेट के तरह आने वाले फ्री पीरियड जिनका सौभाग्य हमें मिल जाए तो हम समझते हैं भगवान ने कृपा वर्षा कर दी। पर हाँ ज़रा सोचिए अगर पूर्णिमा कि चांद और हैलिस कामेट एक ही दिन में आ जाए तो!!! उस दिन में चार चांद लग जाते हैं, और वह क्लास सबसे सौभाग्यशाली माना लिया जाता है।
कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो, सिर्फ आधाघंटा बिताने अपनी बाकी छह घंटों की बलिदान देने के लिए पीछे नहीं हटते। रिसेस में खाना का अदला -बदली, कल की झगडे का बदला, एक-दूसरे से वे अनंत शिकायत जैसे कई प्रोग्राम का आयोजन पहले से ही रिजर्व हुए होते हैं। पर उसी पल के सबसे दुखी वही होते हैं जो बाहर से खाना लाते हैं, क्योंकि अगर बाहर के दाने में खाने के लिए उनका नाम लिखा रहता है तो वर्षों की मुहावरा का अवमानना करते हुए उनकी नाम की चीज़ दूसरों को प्राप्त होती है और दूसरों की उन्हें।
स्कूल से लौटते वक्त चाहे जितना भी गर्मी हो लेकिन साईकिल चलाते वक्त वो सारी थकान खो जाते थे। अब न ही वह थकान की महसूस होती है और न ही साईकिल में मेरी उस अकेले सवारी का।
हर दिन की स्कूल की वो मस्ती, कभी कभार दोस्तों से वह खट्टे मीठे झगड़े, टीचरों की वह शिक्षा और फिर चलने कि वह रस्ता जिसे हम बातों में गुजार देते थे, इन सबकी जुदाई वही महसूस कर सकता है जिसे पहले दिन स्कूल जाने में बहुत डर लगा हो और फिर उसी स्कूल से ऐसा अतुट रिश्ता जुड़ गया हो जिसे ब्रह्मा भी न तोड़ सकें।
-अपर्णा
