वो अंतिम घूंट

वो अंतिम घूंट

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रात का तीसरा पहर, और नींद का नामो निशान नहीं। खाँस खाँस कर बुरा हाल हो रहा था दीने का। साँस धौंकनी सी तेज चल रही थी। कोई तो आएगा उसकी सुध लेने, पर कौन और क्यों ? सारी उम्र तो रज्जो के कलेजे पर मूँग दलता रहा था वो। वो सारा दिन लोगों के घरों में झाड़ू पोंछा कर चार पैसे कमाकर घर का चुल्हा जलाती और वो कम्बख्त दारू और तम्बाकू की लत के चलते कहीं टिक कर काम न कर पाता। भगवान की कृपा रही जो औलाद का सुख भी नसीब न हुआ।

"मैं किहा, किसे डागदर नूं दिखा लो। खाँसी मरजानी सारी रात न सोने दवै।"

"तेरी तो जात ही कुत्ती, जो हर वैले उलटे राग अलापदी रहैं। सो जा बाहर जाके मर।"

रज्जो बस रोती कलपती रहती, पर दीने पे कोई असर न था। डाक्टर को दिखाने का मतलब पता था उसे सब छोड़ना पड़ेगा, वो तो न छोड़ सका, पर रज्जो चली गई एक दिन सब छोड़कर।

"सुनो, हुन ताँ छडनी पऊ दारू वी ते तम्बाखू वी।"रज्जो थी।शायद उसे बुला रही थी।

"दफा हो जा..मैं नहीं छड्ड सकदा..."खाँसी बहुत जोर पकड़ रही थी। एक घूंट हलक से उतार लूँ शायद नींद आ जाए। हिम्मत कर उठाने के लिए चारपाई से कदम नीचे रखे।

 कदम लड़खड़ा रहे थे बुरी तरह, खांसी से सारी खोली हिल रही लगती थी। बोतल हिला कर देखा, बस एक ही घूंट बची थी। जैसे ही उठाने की कोशिश की, गश खाकर गिर पड़ा।


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