उजड़ा हुआ दयार -श्रृंखला (31)
उजड़ा हुआ दयार -श्रृंखला (31)
दिन के सूर्य का निकलना और उसका उसी दिन डूब जाना प्रकृति का अनिवार्य नियम है। किसी पौधे का विकसित होना, पुष्पित और पल्लवित होना और अंततः मुरझा जाना उसका नियम है। अब आप कह सकते हैं कि सूरज भला डूबता कहाँ है , वह तो पृथ्वी का चक्कर लगा रहा होता है..तो आप भी सही हैं क्योंकि आपकी दृष्टि वैज्ञानिक है। लेकिन सूरज का आँखों से ओझल हो जाना भी तो सही ही कहा जाएगा ? इसी तरह मनुष्य आता है , जाता है और सृष्टि के नियम का पालन होता जा रहा है। इसे भी आप कह सकते हैं की वह आता जाता कहाँ है ..वह तो अमर आत्मा है ..शरीर बदल कर फिर फिर आ जाता है .........तो यह भी सही ही है !
समीर अपने बचपन में " जो है सो है " का तकिया कलाम इस्तेमाल करने वाले अपने होम ट्यूटर शर्मा जी को भूले कि अपने क्रूर पिताजी की मार को, बिनोदवा नौकर की चुगुलखोरी को भूले या मीडिया में घोड़े और गधों की जुटान और उनके पहचान के संकट को याद करे ...इंडिया का कैम्ब्रिज कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद या प्रयागराज के सुमित्रानन्दन पन्त के धवल बालों को भूले या उनकी चपल आँखों को जिसे निर्मला ठाकुर की तलाश रहा करती थी .....बिगड़ैल किन्तु नामचीन शायर जनाब फ़िराक साहब के किस्सों को याद करे या संगम नगरी में हर बारहवें साल होने वाले महाकुम्भ की सरगर्मियों को याद करे ....समीर को हमेशा के लिए अधीर करके विदेश जाने वाली धीरा के प्यार को याद करे, उसकी याद के तड़प को याद करे या धीरा की जगह उसके दाम्पत्य जीवन में रेगिस्तान बनाकर आने वाली मीरा को ......कुछ समझ में नहीं आ पा रहा था। उसका सर चकराने लगा था और लगा कि वह गिर जाएगा।
"पकड़ो...उठाओ...अरे ये आदमी तो बेहोश हो गया है " समीर ने यही अंतिम अपरिचित स्वर सुना था जब वह सड़क पर अनायास टहलने निकल पड़ा और गिर पड़ा था। उसे लादकर किसी सज्जन ने अस्पताल पहुंचाया था और उसे एडमिट कराकर ही रवाना हुआ था।
"नर्स, मैं यहाँ कैसे और कब आया हूँ ?" समीर ने होश आने के बाद वहां खड़ी नर्स से यह सवाल पूछा।
"सर , आप आज सुबह सड़क पर बेहोश हो गए थे और आपको किसी राहगीर ने यहाँ पहुंचाया है। आप ..आप अपने घरवालों का नम्बर दे दीजिए मैं उन्हें काल करके बुला लूँ।" नर्स बोल पड़ी।
"घरवाले ..."व ह बुदबुदा उठा था और फिर बेहोश हो गया। उसे दुनिया अस्थिर लग रही थी -आलम -ए-ना-पाएदार..उसे लग रहा है कि वह धोखे से फंसा कर शिकार बनाया जा चुका है।
उधर दूर से कहीं फिल्म लाल किला का एक गीत हवा में लहरे मार रहा था .....
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
समीर और उसका दयार उजड़ चुका था, वह जाए तो कहां जाए.. पुकारे तो किसको?
(समाप्त)