Yogesh Suhagwati Goyal

Drama

5.0  

Yogesh Suhagwati Goyal

Drama

उधार वसूली की गाय

उधार वसूली की गाय

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राजस्थान राज्य में अलवर जिला, और अलवर जिले में खेरली नाम का क़स्बा। जी हाँ, यही है मेरे कस्बे का नाम। ५० से ८० के दशक तक, खेरली अपने आप में खासकर सरसों और बाकी सभी प्रकार के खाद्यानों की एक प्रमुख मंडी थी। नयी फसल की आवक पर तेल मिल मालिकों के प्रतिनिधि दूर-दूर से आकर वहां खरीदारी करते थे। उन दिनों का व्यापार एक अलग दौर का व्यापार था। ज्यादातर व्यापार उधारी पर ही चलता था। वहीं हमारी भी एक कपड़े की दुकान थी। दुकान पर सारा कपड़ा उधार में आगरा और भरतपुर से आता था और उसका पैसा धीरे-धीरे किश्तों में चुकाया जाता था। खेरली के आसपास छोटे-छोटे कई गाँव हैं। उन सारे गावों के किसान अपनी फसल बेचने खेरली में ही आते थे। अपनी फसल बेचकर, पहले पुराना उधार चुकाते थे और फिर अपनी जरूरत का नया सामान खरीद ले जाते थे। हमारी कपड़े की दुकान का काम भी कुछ ऐसा ही चल रहा था। नकद का व्यापार तो ५ से १०% भी नहीं था। फसल खराब होने के कारण या फिर किसी और वजह से अगर किसान निर्धारित समय पर अपनी उधारी नहीं चुका पाते थे तो बड़ी मुश्किलें पैदा हो जाती थी। दुकानदार भी अपनी उधारी नहीं चुका पाते थे। इस किस्से के वक़्त, मैं करीब ११-१२ साल का था। उस बार ऐसा ही कुछ हुआ। लगातार दो साल से फसल खराब हो रही थी। दुकान की उधारी किसानों से वापस नहीं आ रही थी। लेनदारों का दबाव लगातार बढ़ रहा था।

हमारी दुकान पर पास के गाँव से एक ठाकुर साहब कपड़ा खरीद करने आते रहते थे। ठाकुर साहब हमारे अच्छे ग्राहकों में से एक थे। दो साल पहले उनके घर में लड़की की शादी थी। शादी के चक्कर में मोटी खरीद हो गई पर लगातार दो साल से फसल खराब होने के कारण उधारी नहीं चुका पाए। रकम भी बड़ी थी और ब्याज भी लगातार बढ़ रहा था। आमतौर पर उधारी के तगादे के लिए दुकान का एक कर्मचारी मानसिंह ही जाया करता था। ठाकुर साहब के यहाँ पिछले दो साल में वो ६-७ बार हो आया था। पैसा वापस नहीं आ रहा था।

आखिर एक दिन मानसिंह के साथ हमारे पिताजी को खुद ठाकुर साहब के गाँव जाना पड़ा। ये बात सच थी कि फसल के नाम पर ठाकुर साहब की कोई कमाई नहीं हुई थी। लेकिन साथ ही इतनी मोटी उधारी को भी और कितने दिन खड़ा रख सकते थे। कोई फैसला लेना जरूरी हो गया था। दोनों पक्षों ने मिलकर निश्चित किया कि उधारी के बराबर, ठाकुर साहब के आँगन में बंधे कुछ जानवरों का सौदा कर लिया जाये। उधारी की रकम के एवज में एक ऊंट, दो बैल, एक भैंस और बछड़े के साथ एक गाय का सौदा हुआ। लिखा पढ़ी कर उसी शाम सभी जानवरों को पिताजी अपने घर ले आये।

उस दिन शाम को जब हम स्कूल से आये तो घर के सामने ६ जानवरों को बंधा देखकर आश्चर्य चकित रह गए। फिर मानसिंह ने सारी बात बताई। उसके बाद अगले दो दिनों में, एक गाय और उसके बछड़े को छोड़कर सारे जानवर बेच दिये गये। ये गाय बहुत सीधी और अच्छी नस्ल की थी। देखने में भी हष्ट पुष्ट थी। ख़ास बात ये थी कि ये गाय “पैलोन” की थी यानि पहली बार ब्याई थी। अभी तो सिर्फ आधा से पौना लीटर ही दूध दे रही थी लेकिन अच्छी देखभाल से कुछ दिनों बाद डेढ़ से दो लीटर तक दे सकती थी।

शुरू में तो हम उसके पास जाने से डरते थे लेकिन धीरे-धीरे अभ्यस्त हो गए। अगर सच कहें तो जैसे दोस्ती हो गई थी। रोज उसको खोलना, बांधना, चारा डालना, खल बनाना और पानी पिलाना जैसे कई काम हमारे जुम्मे थे। कभी-कभी तो पास के कुएं पर ले जाकर उसे खूब नहलाते थे। दूध निकालने का काम पिताजी ही करते थे। उनकी गैर मौजूदगी में माँ ये काम करती थी। घर में और किसी को ये नहीं आता था। हमने भी एक दो बार ये कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। दूध दोहने के लिए, पहले बछड़े को गाय के पास छोड़ते थे। गाय के थनों को थोड़ी देर वो चूसता था। जब थनों से दूध टपकने लगता तब बछड़े को हटा देते थे और गाय के पीछे के दोनों पैर बाँध देते थे। फिर थनों को अच्छी तरह से धोकर दूध दोहा जाता था। शुरू के ७-८ दिनों तक पौना से एक लीटर दूध ही मिल रहा था।

७-८ दिन बाद, शाम को जब पिताजी दूध दुह रहे थे तो दुहते -दुहते बोले, एक साफ़ बर्तन और ले आ। लगता है आज ये ज्यादा दूध देगी। उस दिन हमारी गाय ने डेढ़ लीटर दूध दिया। १५ दिन बाद वो करीब पौने दो से दो लीटर दूध देने लगी थी। उस गाय से हम सभी घर वालों का लगाव हो गया था। वो गाय हमारे घर काफी दिनों तक साथरही।


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