तू भी आजा
तू भी आजा
जमीला अभी पांच कोठियों का काम निपटा के घर पहुंची ही थी कि रिक्शा लेकर आमिर पहुंच गया, बोला अरी पांव पसार के क्या बैठी है,जल्दी से एक आध जोड़ा अपने कपड़े लत्ते रख ले, बस में बिठा आता हूं तुझे।
या अल्लाह, ऐसा क्या हो गिया जो सर पे सवार हो रहे हो,
तेरे अब्बा का फोन आया था, कि जमीला को भेज दो, फूफी लोग भी सब आ रहे हैं।
ऐसा कौन सा काज तय कर दिया अब्बा ने, जो आनन फानन में बुला रहे हैं। कुछ तुम्हारे दिमाग का फितूर लगे है मुझे।
तो मैं झूठ बोल रिया हूं क्या ! तू जुम्मन भाईजान को फोन काहे ना कर लेती, ले मैं ही लगा के देता हूं,
'कर ले बात' कहते आमिर ने फोन जमीला को पकड़ा दिया,
फोन में भाई की आवाज सुन जमीला के चेहरे में खुशी भर उठी, "सच्ची कह रहे हो भाईजान.. आप मान गये तो फिर कोई बात ही नहीं..अब्बा तो हमेशा ही चाहते थे.. ठीक है मैं पहुंच जाऊँगी".., जमीला फोन बंद कर आमिर को देते हुये बोली,
"जाना ही पड़ेगा परसों राखी है, जब तक अब्बा का बस रहा, हर राखी में दोनों फूफी को बुलाते रहे, पर जुम्मन भाई मदरसे जा के चार हरफ क्या पढ़ आये, सबसे पहले राखी मनवाना बंद करवाया, अब्बा कहते रहे "ये भाई बहनों की मोहब्बत का त्यौहार है, इसमें धरम कहां आता है।"
आज भाईजान कह रहे हैं कि "अब्बा कि इच्छा है कि जिन्दगी के आखिर सालों में मेरी बहनों को राखी बांधने आने दे, अब दोनों दोनों फूफी आ रही हैं, तो तू भी आ ही जा", भाई जान की अक्ल तो फिरी, खुदा खैर करे" यह कहते जमीला का चेहरा सुकून से भर उठा।