तुमने कभी मुझे समझा ही नहीं
तुमने कभी मुझे समझा ही नहीं
"तुमने कभी मुझे समझा ही नहीं" उसके 15 मिनट के व्यथा वर्णन की एक मात्र लाइन जो मैं समझ सका। मैं एकटक उसकी आंखों में देख रहा था, लेकिन वो नहीं, बार बार आ रहे आंसू उसे आंख मलने को बाध्य कर रहे थे। मैं कुछ देर चुप रहा फिर बात को अलग दिशा देने हेतु बोला "अपन दोस्त रहेंगे ना" मेरे इसी कथन के साथ उसकी आंखें मेरे गालों पर जा टिकीं। मैं मुस्कुराया अब उसकी आंखें रक्त प्रवाह से लाल हो चुकी उसकी हथेली पर जा पहुंची थी। मेरी हंसी काफुर हो गई और होनी भी चाहिए थी अन्यथा उसकी हथेली और मेरे गालों का रंग मिलाप होने वक्त नहीं लगता। उसकी बातें जटिल होती थी, गणित विषय की छात्रा थी शायद इसलिए। वो हमारे रिश्ते को एक अलग और नए आयाम पर ले जाना चाहती थी, पर वो मौसम शायद प्यार का नहीं था।
ब्रेक-अप चाहते हो ? मैंने पास के साइन बोर्ड से हटाकर नजरें उसकी ओर की लेकिन बोला कुछ नहीं। तुम अजीब हो !
हाँ बाल थोड़े घुंघराले हैं, तपाक से बोल कर खुद ही हंसने लगा। वो भावशून्य होकर मेरी ओर ताकने लगी।
"मैं चलती हूं वेन आ गई, कल से क्लासेज भी नहीं है।" वो अपने हाथ में रखी किताब को अपने बैग में डालते हुए बोल रही थी।
मैं तब भी चुप था, चुप रहना बेहतर समझा। बैग कंधे पर लेके उसने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा मैंने भी वापसी में एक फिकी मुस्कान दी। वो जाने लगी लेकिन क़दमों की रफ्तार काफी धीमी थी शायद वो चाहती थी कि मैं आवाज़ दूं मैं भी इसी कशमकश में था। सुनो ! वो झट से मुड़ी और बोली "हां बोलो ना।"
अभी भी क्यूट लगता हूं क्या ?
उससे और बात करने के लिए मुझे उस वक्त इससे बेहतर बेतुका प्रश्न नहीं सूझा।
"नहीं, बिल्कुल भी नहीं।"
"ठीक है फिर" कहते हुए में अपना बैग उठाने जाने लगा ।उसकी तरफ देखा तो वो मेरी ओर ही देख रही थी। " इसलिए तो कहा तुमने कभी मुझे समझा ही नहीं।"
मैं फ़िर चुप था।
वो मुड़कर जाने लगी, इस बार क़दमों की रफ्तार हमेशा की तरह तेज थी।

