तुम
तुम


और उस दिन हमारे रास्ते जुदा हो गए.
" तुम " जिसके बिना मै अधूरी हूँ। "तुम " जिसके बिना मन की हर बात अधूरी है।
रिमझिम बरखा की झड़ी कुछ देर रुकी थी खुली खुली धुप आंगन मे थी, अपने घर की बालकनी मे बैठी मै देख रही थी आसमान की और। देख रही थी हवाओ के रुख से बादलो के बनने बिगड़ने को, की अचानक एक मेघ लेने लगा कुछ पहचाना सा आकर, औऱ..... औऱ उभर आये "तुम ", हाँ तुम ही तो थे.... .
तुम्हारे अक्स से खुद को जुदा कर पाती की मैंने पाया तुम ओझल थे आसमान से ! पर अगले ही पल तुम्हे मेघ रचने वाली बुँदे बरस चुकी थी मुझ पर औऱ भिगो चुकी थी मुझे वैसे ही जैसे तुमने अपने प्रेम मे बरसो पहले भिगोया था मुझे। मै खो गयी उस बरसात की यादो मे.......
आंसू ढुलक आये गालो पर, पर मैंने उन्हें पोछा नहीं, बरखा की बुँदे साथ जो दे रही थी मेरा
उनसे ही सीखा हमने दोस्ती निभाना
हम रो भी दिए औऱ जान ना पाया जमाना।
अब भी यकीन नहीं आता कैसे तुम मिल गए थे मुझे। तुमने कहा था मेरी हँसी पर मर मिटे हो, पर सच कहुँ अपनी हँसी मे खनक तभी महसूस की मैंने जब मिले थे तुम। मेरे भीतर छिपी अल्हडता खिलखिलाहट मे बदल रहे थे तुम।
मुझे सुकूँ सा मिलने लगा था वहां जहाँ होते थे तुम। संघर्ष के उस दौर की कड़ी धुप मे घनी छाँव से लगने लगे थे तुम।
फिर वो समय भी आ गया जिसका अहसास हम दोनों को था। चुपचाप राह बदलनी थी हमें। वो आखिरी दिन कालेज का .... मैंने खुद ही तो अपना कॉलेज बदलवाया था अपने शहर... सभी मुझे बधाईया दे रहे थे
पर ना शब्द मेरे होठों पर थे
ना कुछ बोल रहे थे तुम
राहें हमारी हो रही थी जुदा
पर मेरी राह से कांटे हटा रहे थे तुम।
हाँ मै खुद छोड़ आयी थी तुम्हे। अपने मन पर पत्थर रख कर। ट्रैन की खिड़की पर बैठी मैं देख रही थी ट्रैन की ओर दौड़ते फिर छूटते पेड़ों को। उनमे भी नज़र आ रहे थे तुम। मन चाह रहा था रोक ले वे मुझे। मुझे खिंच ले वे। और मुझे फिर से पुकार लो तुम।
पर ऐसा कुछ ना हुआ, ना थमा मेरा सफर। ना ही पुकार सके तुम।
पर जानती हूँ बरखा की हर बून्द तुम्हे भी मेरी याद दिलाती होंगी... मुझे भूल तो ना पाए होंगे " तुम "