तुम, मै और समय
तुम, मै और समय
तुम जो समय से तेज़ चलती हो, जिसकी एक झलक मै सीढ़ियों पर बैठकर सड़क पर टकटकी लगाकर सबसे पहलेपाने की कोशिश करता हूँ।
मै जो समय से बहुत धीरे चलता हूँ, जिसकी सुबह ही उस एक झलक को पाने के बाद ही होती है। कविताओं में चाँद के तसव्वुर तुलना होती है परन्तु तुम मुझे उगते हुए सूर्य की भांति प्रतीत होती हो जिसके चेहरे के तेज़ से मेरा तन-मन प्रदीप्तमय जाता है।
‘ समय ’ एक यही जीवन्त किरदार है हमारे बीच जो हमे मिलाता भी है और बिछड़ने का साहस भी प्रदान करता है। जब हम तीनो एक साथ एक होते हैं तो ये समय बहुत तेजी से अपने आपको भागते हुए प्रदर्श
ित करता है। समय को रोकने के मेरे सारे प्रयास विफल हो जाते हैं।
जब मै खुद को तुम्हारी आँखों में खोजने का सफलतम प्रयास करता रहता था तब तुम्हारा मन किंकर्तव्यविमूढ़ समझ आता था। तुम्हे ठहरने की अत्यंत इच्छा भी होती और घर देर से पहुंचने का डर भी। तुम्हारा नज़रे न मिला पाना और जुगनुओं की भांति पलकों को डबडबाना ये मेरे ह्रदय को घर कर जाते थे। कुछ पलों के बाद समय का हमारा साथ न देना मन को विखंडित कर देता था शायद उस क्षण ही ऐसा प्रतीत होता था मानो अभी तो बहुत कुछ बताना पूछना बाकी ही रह गया।
“समय के साथ तुम्हारा जाना मुझे हर बार रिक्त कर देता है।”