सड़क
सड़क
मैं जो हर रोज़ उन्ही गलियों से जाया करता था जिसका इस्तेमाल मैंने आज भी किया था। लेकिन आज सड़क वो बातें बयाँ नही कर रही थी जो वो मुझसे रोज़ किया करती थी। आज उसके मन मे तन्हाई और घर में अकेलापन था। फिर भी मैं उसकी भावनाओं को और समझने के लिए उस पर विचार करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था और तभी अचानक जब मेरी नज़र आसपास की दुकानों पर पड़ी तब मुझे समझ आया कि आखिर ये तन्हाई क्यों थी ?
आज शनिवार था, बाज़ार की साप्ताहिक बंदी का दिन। सड़क सूनी थी। रोज़ की अपेक्षा आधे लोग भी दिखाई नही पड़ रहे थे। मैं जो इन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था और आगे बढ़ता जा रहा था तो जब ख़यालों से जागा तो पाया सामने मेरी मंज़िल थी। शाम के छः बजे थे और बिना चाय की चुस्कियों के रात कटती नही। तो बस चाय के लिए दस रुपये दिए और चाय लेकर ये सोचने लगा कि यहां खड़ा होकर पियूं या आज बीच सड़क पे चलूँ। बीच सड़क पे जाने से मेरा मतलब ये नही था कि आज वहां चाय पे चर्चा या फिर चाय पीकर अनशन पर बैठना। मैं बीच सड़क पर गया क्योंकि वहां बीच सड़क पर काम चल रहा था तो गाड़ियां सड़क के किनारे से ही आ जा रही थी। वो नज़ारा मुझे बहुत आकर्षित कर रहा था। सत्यता तो ये थी कि मैं अकेला था और किस से बात करूं ये समझ नहीं पा रहा था। और अब मैं सड़क पे बीच में खड़ा था और वहां से मैं आने जाने वाले उन सभी गाड़ियों और लोगों में कुछ अनकही सच्चियों की तलाश कर रहा था। कुछ गाडियां जो मेरी तरफ आती थी उनको देखकर मैं रोमांचित हो जाया करता था क्योंकि वो बिलकुल मेरे सीधे पे आती थी और ठीक पांच कदम की दूरी से दायीं और कट जाती थी।
चाय गर्म थी। उसकी हल्की हल्की चुसकयों में जो स्वाद मुझे मिल रहा था वो शायद ही वहां कोई और ले रहा था। सब जल्दी में रहते थे किसी के पास इतना समय नई था कि वो उस चाय की स्वाद को समझ पायँ। लेकिन आज चाय की चुस्कियों में खोने से ज्यादा मेरा ध्यान कहीं और भटका हुआ था। मैं बहुत ध्यान से अपने सामने सड़क को देख रहा था, और महसूस कर रहा था कि कैसे ये सड़क लोगों का भार भी उठा रही है और उनके गंदे ख्याल से लेकर उनके द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी का भी। एक और चीज़ जो उस समय मेरे दिमाग मे चल रही थी की क्या लोगों के पास आस पास की चीज़ों को महसूस करने का समय नही है। ये व्यर्थ की भागदौड़ क्यों ? माना समय ही पैसा है लेकिन इसका मतलब ये तो नही की पैसों के पीछे भागते भागते आप समय की कद्र भूल जाएं और तब मुझे महसूस हुआ कि आज दिल्ली में हवा प्रदूषित क्यों है और बंगलुरू में पानी की कमी इतनी जल्दी क्यों हो गई। पहले मुझे इन रास्तों पे चलने के लिए आगे पीछे देखना पड़ता था लेकिन अब नही क्योंकि एक किताब में मैन पढ़ा कि आप अपने गंतव्य पर निगाह रखिये लोग खुद ब खुद आपको जाने की जगह देंगे। दरअसल ये बात ज़िन्दगी में कुछ पाने के लिए की गई थी लेकिन मुझे और कुछ तो मिल नही तो सोचा क्यों न उस बात को यहीं पर आजमाया जाए और वहां मुझे समझ आया कि बात बिल्कुल सही थी।
ये सड़के जिनसे मैं अपना रिश्ता बना ही रहा था की तभी एक आदमी मुझसे आके बोलता है कि क्या भी आंखों से सड़क में गड्ढे कर दोगे क्या? मैंने भी दबी ज़ुबान और चेहरे पे हल्की मुस्कान के साथ कहा नही मैं तो बस ये जानने की कोसिस कर रहा कि ये गड्ढे हो कैसे रहे हैं मेरी आँखों से या ये जो आने जाने वाले कि भावनाओं से। उस आदमी के चेहरे पर मुझे बात न समझ पाने की झलकियां साफ दिखाई दे रही थी। लेकिन मेरी परिस्थितियों को देखते हुए उसने दोबारा पूछने का साहस न किया क्योंकि मैं फिर से अपने ख़यालों में खो चुका था।
चाय का गिलास अभी भी पूरा भरा था आधा धूल भरी हवाओं से और आधा स्वादिष्ट चाय से। उसी सड़क पर खड़े हुए मैने एक और सबक सीखा की कैसे जब आप लोगों की भीड़ में हैं आपको कोई कुछ नही कहता और जैसे ही आप अकेले होते है हर आदमी आपको बेइज्जत करके चला जाता है। दरअसल जो मैंने वहाँँ देखा वो कुछ इस प्रकार था बीच सड़क पे सभी लोग अपनी चार पहिया वाहन को लगाकर बाजार में समान ले रहे थे और इसी तरह तो वाहनों के पीछे एक तीसरे व्यक्ति ने भी अपना वहां लगा दिया। हुआ कुछ यूं कि कुछ देर बाद आगे के दो वहां निकल गए और पीछे उस व्यक्ति का वाहन अकेले ही बीच में रह गया। जिसकी वजह से अब लोगों को परेशानी होने लगी मुझे तो हँसी इस बात पे आई कि अभी तक जब तीन वाहन थे किसी को कोई समस्या नही थी लेकिन अब एक बचा है अब सबको समस्या हो गयी यहाँँ तक कि उन राहगीरों को भी जो पैदल थे, जिनका उस वाहन से कोई वास्ता ही नही था।