तर्पण

तर्पण

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“क्या सोच रहे हो?’’

कुछ नहीं? पर....

क्या कहा बात कर रहे थे खुद से? इस उम्र में अलावा इसके कोई और विकल्प भी तो नहीं?

हाँ होता है ये ....कभी कभी यूँ भी अच्छा लगता है बात करना अपने से ही।

 

आप कह रहे हैं मैं नहीं करता? नहीं जनाब मैं भी आपका ही हमउम्र हूँ तकरीबन वैसे भी जहाँ तक ‘अच्छा लगने’ की बात है, ये उम्र की मोहताज नहीं होती, मैंने नौजवानों को अंतर्मुखी और गंभीर चिंतन करते हुए भी देखा है और साठ पार वृद्धों को छिछोरी बचकानी बातों पर ठहाके लगाते भी। हा! हा! हा! हा! ...

 

“मैं यहाँ क्यूं आता हूँ कहीं और क्यूं नहीं? सही सवाल ...

“सच पूछिए तो मैं भी यहाँ कश्मीर के इस अनजान से कोने में ख़ूबसूरत हरे भरे अरण्य, ऊँचे नीचे पहाड़, छायादार घाटियों, गरजती नदियों और इन पाइन और देवदार के ऊँचे दरख्तों के इस अलौकिक सौंदर्य से गुफ्तगू करने ही आता हूँ सात सौ मील दूर शुष्क बीहड़ धूल और लोगों से भरे मैदानी इलाकों से भागकर।

 

आप कह रहे हैं मैं नहीं करता? नहीं जनाब मैं भी आपका ही हमउम्र हूँ तकरीबन वैसे भी जहाँ तक ‘अच्छा लगने’ की बात है, ये उम्र की मोहताज नहीं होती मैंने नौजवानों को अंतर्मुखी और गंभीर चिंतन करते हुए भी देखा है और साठ पार वृद्धों को छिछोरी बचकानी बातों पर ठहाके लगाते भी। हा! हा! हा! हा! ...

 

“मैं यहाँ क्यूं आता हूँ कहीं और क्यूं नहीं? सही सवाल ....

“सच पूछिए तो मैं भी यहाँ कश्मीर के इस अनजान से कोने में ख़ूबसूरत हरे भरे अरण्य, ऊँचे नीचे पहाड़, छायादार घाटियों, गरजती नदियों और इन पाइन और देवदार के ऊँचे दरख्तों के इस अलौकिक सौंदर्य से गुफ्तगू करने ही आता हूँ सात सौ मील दूर शुष्क बीहड़ धूल और लोगों से भरे मैदानी इलाकों से भागकर दुनिया और दुनियादारी से अघाई/उकताई हमारी उम्र ऐसी ही जगहों की तलाश में रहती है।

 

सच बताइए क्या मैं गलत कह रहा हूँ?...कैसे बीतते होंगे खुद से वे लोग जिनकी ज़िंदगी की सड़क से इंतज़ार के पद चिन्ह मिट जाते हैं? मुझे लगता है जनाब इंतज़ार एक ना ढलने वाली रात है एक अलसाई उनींदी उम्मीद ....जिसे सवेरे की तलाश होनी ही चाहिए।

 

ओह ऐसी भी कोई खास नहीं ..पर आपको पंक्तियाँ अच्छी लगी ...शुक्रिया जनाब’ ’अरे अरे बस कीजिये मैं ज्यादा शराब नहीं पीता ये ‘ओल्ड मोंक’ आप लीजिए मैं अपने लिए बीयर मंगाता हूँ ....बेयरा.... अच्छा ख़ूबसूरत पंक्तियों की नज़र...? चलिए ठीक है चीयर्स ...

 

हाँ तो मैं कहाँ था!....”हाँ याद आया ....मैं यहाँ छुट्टियाँ बिताने आता हूँ ….कम से कम बीस पच्चीस दिन रहते हैं हम यहाँ  ...बस मैं और मेरी किताबें लोग कहते हैं कश्मीर में तुम सुरक्षित महसूस करते हो? तुम्हें डर नहीं लगता?’’ देखिये ज़िंदा हूँ आपके सामने बैठा हूँ ...’’ मैं हंसकर कहता हूँ ये दुनिया की सबसे पुरसुकून और तनहा जगह है, एक ऐसा एकांत जो चुप्पियों की भीड़ से अलग है, ये किसी तपस्वी  का एकांत नहीं बल्कि ये एक सर्जक और एक साधक का एकांत है ज़मीन की गीली धुंध से कुछ ऊपर और आसमान के विराट मौन से पिघलता हुआ ...धरती का एक अनजान सा कोना प्रकृति तमाम कायनात से पीठ करके बैठी हो जैसे सजदे में ओह, मैं तो संजीदा हो गया ...अब देखिये ना ये खूबसूरती है ही इस क़दर दिलकश कि हर संवेदनशील हृदय खुद ब खुद कवि बन जाये।

 

सच कहूँ बरखुरदार, शहरों से जब बेतरह ऊब होने लगती है, डोमिनोज़, फ़ूड चेन्स, मॉल्‍स, वस्तुओं के कोलाहल भरे बाज़ार, दुनियादारी के ऊल-ज़लूल मसले, मलाल, आडम्बर, हालातों की नोच-खसोट, जिम्मेदारियां कीचड़ की तरह देह से आत्मा तक चिपक जाते हैं यूँ समझ लीजिए बस उन्हें ही धोने चला आता हूँ यहाँ। वो देख रहे हैं आप, वो देखिये बादलों के धुंधलके के उस पार हरे भरे कोर्टयार्ड के बीच लकड़ी की कोठरी वही कॉटेज है मेरी ...जानबूझकर हर बार यही कॉटेज लेता हूँ मैं ताकि खूबसूरती का ये नज़ारा भी दिखता रहे उस बालकनी से गर्मागर्म कहवा पीते हुए और सुबह शाम यहाँ रेस्तरां तक तफरी भी कर ली जाय। अब तो उस सराय के मालिक से अच्छी भली जान पहचान हो गई है। अलस्सुबह मैं लकड़ी की उन ऊबड़-खाबड़ सुस्त सी मटमैली सीढ़ियों, सफ़ेद सागौन, बादाम, ओक, देवदार, लीची और शहतूत के बर्फ झाड़ते दरख्तों के जुगनुओं व तितलियों से भरे उस छोटे से जंगल को पार कर टहलता हुआ इस रेस्तरां तक एक कप कोको पीने चला आता हूँ। कोई मनपसंद किताब, लिखने को कागज कलम और जैकेट की जेब में सिगरेट का एक पैकेट और लाइटर यानी अपनी पूरी दुनिया समेटकर नर्म करीने से कटी छंटी मुलायम दूब के बीच उन बादाम के छायादार दरख्तों के झुरमुट के नीचे बैठकर सबसे पहले सिगरेट सुलगा आसपास की ठंडी सर्द सुबह को अपने भीतर रूह से गुज़रता देखता हूँ नई नवेली वधू सी रोमांच से सिहरती ये सुबहें सबसे ख़ूबसूरत हिस्से रहे हैं मेरी ज़िंदगी के जहाँ मैं खुद को खुद से विस्मृत होता हुआ पाता हूँ। सच कहूँ बरखुरदार मुझे नहीं लगता कि प्रकृति के इन दिलकश नजारों के पार भी कोई ख्वाहिश बाकी रह सकती है इंसान के ज़ेहन में।

 

जब मैं सिगरेट के नरम छल्लों और सिलेटी बादलों की पर्त के मध्य कुछ ‘रहस्यमयी’ ’सा खोजने के शगल में डूबा हुआ होता तब अचानक उसके बीच मुझे कोई ख़ूबसूरत चेहरा नज़र आता गुलाब की कोमल खिली पत्तियों पर तुहिन कणों जैसा निहायत ताजातरीन अदेखा अछूता सौंदर्य। उसके ठीक बाद मैं पाता कि वो चेहरा मेरे बिलकुल करीब आ गया है इतना कि उसकी सांसों को मैं छू सकता हूँ। वो वही होती हाँ बिलकुल वही सही पहचाना आपने .....ना ना माशूका नहीं पर ये सच है कि जिसे मैं खोना नहीं चाहता था पर खो देता था बार बार, जिसे मैं बेतरह पाना चाहता था पर वो अपनी गुमशुदगी अपने बगल में दबाए घूमती। मुझे अचानक महसूस होता कि वो ठीक मेरे सामने की कुर्सी पर आकर बैठ गई है। और फिर हम एक दूसरे को किसी घने सायेदार दरख़्त की अनाकृत परछाइयों के नीचे पड़ी कुर्सियों पर मद्धिम गुनगुने उजालों के बीच बैठा हुआ पाते। उसके गुलाबी गालों पर बगलगीर ओक के पत्तेदार साये गिर रहे होते, जिनमें उसका चेहरा एक पेंटिंग की तरह लगता। वो हरदम चेहरा उस झरने की ओर करके बैठती जिसकी लयबद्ध धार की मखमली झर झर उसकी आत्मा के अबूझ जंगल में पहाड़ों के बीच से गुजरते चाँद की चांदनी सी फैलती जाती, उसके होंठों का मासूम सा कंपन मैं अपनी आँखों में महसूस करता पर उसकी पीठ, उस ढाबेनुमा रेस्तरां की ओर होती जिसके सामने के हिस्से में नुमाइश की तरह लटके उल्टी उधड़ी हुई मुर्गियों बत्तखों के मुर्दा जिस्म होते, जिनके ठीक नीचे लाल लाल दहकते अंगारों को अपने मुंह में भरे मिट्टी चूने की दहकती हुई भट्टियां, जिन पर कबाब की सीखें और जानवरों की राने सिंक रही होतीं ‘वाजवान’ और ‘गोश्ताबा’ की गंध फिजाओं में गूंजती गुलाम मुहम्मद सज़न्वाद के सूफी गीतों या किसी लोक वाद्य के मद्धिम बजते संगीत की धुनो में गुथ गई सी लगती जो अक्सर वहाँ तिरा करती थी।

 

बरखुरदार आपने कभी ऐसा सरोवर देखा है जिसकी हल्की थरथराहट से कांपती पारदर्शी नीली लहरों से उसकी तलहट आईने की तरह चमकदार और साफ़ दिखाई देती हो एक पंख या कोई पत्ती भी उसके एकांत में हलचल सी पैदा कर देती हो? नहीं ना? मैंने ये सरोवर उसकी आँखों में देखा है नृत्य करते मोर पंखों की झरझराती तरंग सा रंग। दरअसल उसकी आँखों का रंग आज तक मैं जान ही नहीं पाया जब भी उसकी निश्छल आईने जैसी आँखों में झांकने की कोशिश की लगा बहुत सारी रंग-बिरंगी तितलियाँ उसकी आँखों में सिमटी बैठी थीं छिपी सी अचानक उड़ने लगी जो मुझे घेर लेती और मैं फिर अबूझ रह जाता तितलियों के इस खेल में मैं हमेशा पराजित होता रहा।

 

आपको बता दूँ कि हम अपने शब्द कम जाया करते बनिस्बत संकेतों के। मैं सिगरेट का पैकेट और लाइटर रख देता टेबल पर उसके सामने। ..उसे विल्स अच्छी लगती “ये लाइट होती है ज्यादा फेंफडों में भरती नहीं। ‘ये बात वो कहती नहीं पर मैं समझ जाता ऐसी तमाम बातें थीं जो हम आपस में कहे बिना ही समझ लेते। वो अपनी गोरी पतली उँगलियों में सिगरेट को फंसाए अपने होंठों के बीच दबा लेती ...ऐसे में उसकी हल्की नीली चमकीली आंखें थोड़ी सिकुड़ जाती। कहीं शून्य में देखती हुई। मैं चुटकी बजाता  ..

 

"हेलो मोहतरमा जेनी .... कहाँ हैं आप?”...वो मेरी ओर देखती उन नज़रों से जैसे कुछ ढूंढ रही हो, जो बस अभी अभी कहीं खो गया हो। कभी कभी एक बिल्ली जैसा डर उसके चेहरे पर कौंध जाता ..दूध पीते हुए पकड़ लिए जाने जैसा खौफ ..अकबका जाती वो। बहुत हलके से मुस्कराती। उसकी घनी काली पलकों की छाया में बादाम सी खूबसूरत आँखें यकायक झुक जातीं और उनमें एक अजीब सा निखार और खूबसूरती आ जाती। उस वक़्त मैं उससे नज़रें हटा कहीं और देखने लगता ये महसूस करते हुए कि उस पर इस खास वक़्त उमड़ आये प्यार को चूम रहा होऊं।

 

“अरे मैं अकेला पीने बैठ गया ...आप लेंगे सिगरेट? नहीं?” ओके

 

...हाँ तो हम बात कर रहे थे जेनी की। जेनी उसका असल नाम नहीं मेरा दिया गया नाम था। उसने कहा नाम में क्या रखा है? और टाल गई जैसे कई बातें टाल जाती थी....वो कहाँ रहती है क्या करती है सब ...नाम में कुछ रखा नहीं ये तो मैंने होश सँभालते ही जान लिया था पर तमाम असुविधाओं से बचने के लिए नाम होना ज़रूरी था, सो मैंने ही रख दिया उसका नाम अपनी सुविधानुसार मुझे उसकी शक्ल एक रूसी कॉमिक्स की पात्र से मिलती थी सफ़ेद चम्पई रंग ,घुंघराले लंबे बाल हल्की नीली सी बड़ी और ख़ूबसूरत आंखें लंबी पतली देह ......मैं उसे जेनी ही कहूँगा ...हलांकि अब जेनी कहूँ या जेनब क्या फर्क पड़ता है? उसने कहा “तुम मुझे अच्छे लगते हो क्यूं कि तुम में बात करने और ‘सब कुछ’ जान लेने की भूख नहीं खुश्क मैदानी लोगों की तरह।’’

 

कहीं पढ़ा था, कि जब तक आप अपनी आँखों से अपने परिचित को मरता नहीं देख लेते एक हल्की सी गुंजाइश बनी रहती है उसके ज़िंदा होने की दिल के किसी कोने में तो जनाब मैं इसी गुंजाइश के फेर में चला आता हूँ यहाँ तक हर साल छः महीने में।........

“जाड़ा और रात बढ़ रही है श्रीमान, आपको जाना तो नहीं ना? तो फिर ठीक है ....

 

हमारी मुलाक़ात यहाँ कैसे हुई इसका भी एक अजीब और दिलचस्प किस्सा है

उस दिन जब बुझते सूरज की लालिमा से जैसे पूरी की पूरी कायनात ही सिंदूरी हो चली थी मैं शाम के इस संधि कालीन धुंधले में अपने कमरे से इस रेस्तरां की ओर चला आ रहा था रोज की तरह मस्त गुनगुनाता हुआ सिगरेट के कश खींचता। साथ-साथ चलते परतदार नर्म बादलों से गुफ्तगू करता हुआ, तब इसी रस्‍ते के बीच थोड़ी दूरी पर एक साये सी आकृति मुझे धुंधली  रोशनी से पीठ किये उस घने दरख़्त के नीचे अँधेरे में लुढ़कती-पुलटती सी दिखाई दी। मैं थोड़ा डरा हुआ पर कौतुहलवश उसके निकट गया। वो एक औरत थी और झुककर कुछ ढूंढ़ रही थी। उसका चेहरा दूसरी ओर था।

 

'क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ मोहतरमा? मेरी आवाज़ में डर और संकोच की छाया थी। उसने पलटकर मेरी ओर देखा अपने सिर के दुपट्टे को जो थोड़ा ढलक आया था ठीक किया। वो  पच्चीस छब्बीस साल की दुबली-पतली बेहद खूबसूरत लड़की थी। मैंने देखा उसके पतले गुलाबी होंठों के बीच एक बिना जली सिगरेट दबी हुई थी? मैं माजरा कुछ कुछ समझ गया था।

 

“लीजिए” मैंने मुस्कुराते हुए अपनी जैकेट की जेब से लाइटर निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया।

 

“शुक्रिया” उसने ज़ुबान से नहीं आँखों से कहा और नज़रें झुका लीं।

उसकी आँखों में संतृप्ति के भाव थे।

 

उसने सिगरेट सुलगा ली, मुझे देखे बगैर लाइटर वापस दे दिया। सिगरेट होंठों में हौले से दबा वो दरख़्त की पास की चट्टान पर बैठ गई और शून्य में अपलक देखती रही। मैं रेस्तरां में चला आया और कुर्सी पर बैठकर सिगरेट पीने लगा कुछ देर बाद शायद वो वहाँ से चली गई होगी उन्हीं झुरमुटों में खोती हुई। उस वक़्त तक मैं सचमुच बिलकुल नहीं जानता था कि वो अनजान लड़की इस छोटी अजीबोगरीब सी मुलाक़ात में अपने साथ मेरी रात मेरी नींद चैन सब कुछ लिए जा रही है, मेरे पास एक रहस्य भरी गठरी को छोड़कर। मैं परेशान हो गया। रात भर करवटें बदलता रहा उस गठरी को सिरहाने रखे उसकी अमानत की तरह जो वो मेरे पास छोड़ गई थी। रिवाइंड हो होकर वो गिने चुने एक दो वाक्य दुहराते रहे खुद को, एक दूसरे पर गिरते पड़ते से। कुल मिलाकर रात परेशानी भरी बीती। कुछ विचित्र से ख़याल भी आते जाते रहे दिल में हलांकि मैं भूत प्रेत में यकीन नहीं करता।

 

उस बेहद ख़ूबसूरत लड़की और उसकी रहस्यमयी गतिविधियों ने मुझे उससे दुबारा मिलने को आतुर कर दिया। मैं उसका पता ठिकाना कुछ नहीं जानता था। फरवरी की उतरती शाम थी, वो ..दिन की उस आख़िरी रोशनी में कुछ देर मैं बे- मकसद भटकता रहा। दरख्तों से टपकती झीनी ओस का पारदर्शी पर्दा और नीले पहाड़ों की ऊंघती ढलानों पर लुढ़कती धुंधली रोशनी सहित फूल का आख़िरी रस चूसती तितलियों के झुण्ड तक अपने अपने कामों में उसी शाइस्तगी से तल्लीन थे, पर मेरे दिल की हलचल से बेखबर भूख और चहास दोनों लगने लगी तो चला आया अपने उसी रेस्तरां में। जब मैं वहां पहुंचा तो हल्की ठंडक हो गई थी। बादल ज़मीन पर उतर आये थे गोया बेफिक्र दोस्तों के साथ गलबहियाँ डाले ज़मीन पर तफरी करने निकले हों। बादलों का चेहरा सर्द और सांवला था। काले परतदार बादलों ने बारिश का एलान कर दिया था जैसे। रह रह कर बादलों की गड़गड़ाहट भी गूंज रही थी जैसे आसमान पर ढोल नगाड़े लिए बरात निकल रही हो और आतिशबाजी भी की जा रही हो। मैंने शेरा को आवाज़ दी। शेरा जो उस रेस्तरां का मालिक या मैंनेजर था और जो अपना भारी बदन लिए “बावर्चीखाने’’ के बाहर अखरोट की लकड़ी के दीवान पर बैठा शहद भरा हुक्का हमेशा गुड़गुड़ाया करता था। अब तक हम दोनों कुछ कुछ पहचानने लगे थे एक दूसरे को।

 

’’जी जनाब ...अभी भेजता हूँ लड़के को क्रीम कॉफी? उसने मुस्कराकर पूछा-

“हाँ दे दो” मैंने कहा। वो मेरे शौक जानने लगा था।

 

अरे नजीब .....टेबल फाइव पर एक क्रीम कॉफी .....शेरा ने जल्दबाजी में कहा, और काम में मसरूफ हो गया।

जी भाई जान ...नजीब दौड़ गया बावर्ची खाने की तरफ।

 

जाड़े की ओस भरी फुरफुरी हल्का सा कंपन पैदा करने लगी थी देह में। मैंने अपनी कैप को दुरुस्त किया और कॉलर को गर्दन तक चढ़ा लिया। नीले सफ़ेद रुई के गोलों से उड़ते बादल कुर्सियों खुशबुओं दरख्तों लोगों के बीच-बीच से दौड़ते हुए छिया छाई का खेल खेल रहे थे। नमी से लबरेज उन बादलों से कुर्सियां और पेड़ पत्ते सब सीझ गए थे और ताजगी और खुशी से चमक रहे थे। मैंने क्रीम कॉफी का ऑर्डर कैंसिल कर चिकन सैंडविच और बीयर का ऑर्डर दे दिया और सिगरेट सुलगा ली। मौसम ऐसा हो गया था जैसे किसी मंच पर धुंधली नशीली रोशनी में खुशनुमा सुबह का दृश्य दिखाया जा रहा हो। ताड़ों के बीच हवा की हलकी सी खुशबूदार गुनगुनाहट भरी थी। अचानक आसमान से उतरी एक परी सी वो मेरे सामने नमूदार थी।

 

“मैं बैठ सकती हूँ यहाँ?’’ उसने बहुत धीरे से पूछा।

 

मुझे लगा आसमान से सिर्फ बादल ही नहीं सूरज चाँद तारे सब उतर आये हैं और मेरे आसपास चहलकदमी कर रहे हैं। उसने गुलाबी बुरखा पहन रखा था जिसके किनारों पर बेल बूटे की कढ़ाई थी और जिसमें से सिर्फ उसकी बड़ी ख़ूबसूरत आंखें दिख रही थीं। वो एक संगमरमर की मूर्ति सी लग रही थी।

 

“ज़रूर क्यूं नहीं?’’ मैंने मुस्कराकर कहा।

 वो मुस्कराई

 

अस्स्लामोअलैकुम ....उसकी खनकदार आवाज़ में उसकी ही तरह की नरमी थी। वो चुपचाप बैठ गई मेरे सामने वाली कुर्सी पर और दरख्तों पर फुदकते शोर करते परिंदों की ओर देखने लगी एकटक। मेरा दिल एक सुपर फास्ट ट्रेन की रफ्तार से धड़क रहा है उस वक़्त ऐसा मुझे महसूस हुआ। एक गैर शादीशुदा और मिजाज से फक्कड़ इंसान के लिए ये लम्हे कितने अजीब होते हैं ये भला मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है? कुछ देर हम मौन बैठे रहे जैसे बात करने का कोई सिरा खोज रहे हों और वो कहीं गुम गया हो।... कुछ अजीब थी वो ...कुछ नहीं बहुत ....ये मैंने पहले दिन ही भास लिया। पहली मुलाकात के सबसे नए हिस्से में उसने कहा –

 

’माफी चाहते हैं आपसे पर हम जितना अपने बारे में बता दें, सब्र करियेगा ...आगे पूछने की कोशिश करे बगैर।.... हम आपसे कभी ज़ाती सवाल नहीं करेंगे ....ख़याल रहे कि हम दोनों सिर्फ मुसाफिर हैं मौजूदा वक़्त के। अपने अपने पड़ाव आने पर चले जायेंगे अपने ठिकानों पर ...

 

मेरे ‘मंज़ूर कहे बिना उसने समझ लिया। ना उसने मुझे बताया कि वो कहाँ रहती है क्या करती है ना मैंने कुछ कहा अपने बारे में। हालांकि उससे ये अभूतपूर्व और रहस्यमयी मुलाक़ात मेरे भीतर कई तरह के अंदेशे और अटकलें पैदा कर रही थी। मेरा ‘होना’ उसके लिए क्या मायने रखता था ये तो मैं नहीं जानता पर मेरे लिए वो अनजान लड़की रहस्य में लिपटा एक सतत इंतज़ार थी ये सच था। वो परी कथाओं की मानिंद पहाड़ियों के कहीं पीछे से बड़े दरख्तों और उस छोटे जंगल को पार कर वक़्त पर आती करीब करीब मगरिब की नमाज़ के पहले। उस सीझी नम ज़मीन पर मेरे सामने पड़ी कुर्सी से टिककर खामोश बैठ जाती और बातचीत किये बगैर पहाड़ियों से घिरे उस सामने से झरते झरने में खो जाती। ये रहस्य को और गहराता था हलांकि सुखद था मेरे लिए। उसकी झील सी आंखें कुछ पलों के लिए मेरी नज़रों को छू जातीं तो वो सहमकर अपनी लंबी घनी रेशमी पलकों की छाया में उन्हें ढँक लेती और नीचे देखने लगती, उस वक़्त मुझे महसूस होता जैसे कोई हिम खंड टूटकर गिरा हो मेरे मन की उथली सूनी घाटी में और मेरे भीतर बर्फ़ की एक ठंडी नदी पिघलने लगती। हम दोनों इन दस बारह दिनों में उस जगह से इतने जुड़ गए थे कि रेस्तरां में काम करने वाले और रोजाना आने जाने वाले लोग उसे या तो मेरी बीवी समझते थे या फिर महबूबा ,ऐसा मुझे महसूस होता लेकिन मुझे भी उनके इस समझने पर भला क्या एतराज हो सकता था? शेरा भी अब खुद ब खुद दो कॉफी, चाय भिजवा देता यकीनन एक जेनी के लिए।

 

उसकी आवाज़ बहुत धीमी पर खनकदार होती ,इतनी कि कभी कभी मुझे अपना चेहरा उसके करीब ले जाना पड़ता था सुनने के लिए। इस ख़ूबसूरत रेस्तरां में कहवा या सिगरेट पीते २ वो बात करते हुए अचानक रुक जाती। कभी कभी आधे वाक्य पर ही। यदि आप होते जनाब मेरी जगह तो निश्चित ही उसे कोई सिरफिरा समझते पर ना जाने क्यूं धीरे धीरे मुझे उसकी इस आदत की आदत होने लगी। कभी कभी मैं सोचता ठीक ही तो है ,किसी बात को हड़बड़ाकर बोलने से बेहतर है उसे एक बार फिर सोचना ..भले ही आधे वाक्य के बाद ही। क्यूं ज़रूरी है कि किसी वाक्य को पूरा किया ही जाए ये जानते हुए भी कि इसकी शुरुआत गलत हो चुकी है? कभी कभी उसकी बातें मुझे किसी “निहलिस्ट’’सी लगतीं, क्यूं कि ना तो वो किसी परम्परा के सामने झुकना चाहती थी ना किसी मर्यादा को रिलीजन से जोड़ने की कट्टरता थी उसमें। इसकी एक वजह शायद उसके माता पिता का दो अलग अलग कौम का होना भी हो सकती है।

यकीं एक बर्फ की तरह होता है जिसे पानी से बर्फ में तब्दील होने के लिए कुछ वक़्त की दरकार होती है। उसने बर्फ के इन्हीं छोटे छोटे टुकड़ों को अपनी सीली हथेली पर रख मुझ पर अपने यकीं को पिघला लिया था शायद और तब उसने बताया कि वो मूलतः एक कश्मीरी लड़की है। उसके पिता मुस्लिम थे और माँ हिन्दू कश्मीरी पंडित। ये बात हम समझते थे कि कोई नहीं जानता उसने कहा ..पर...।’’ वो चुप हो गई।

 

उसने फिर बताना शुरू किया -

’’हम दो भाई एक बहन हैं। एक बहन यानी वो खुद। दो भाई ..एक बड़ा एक छोटा। हमारा छोटा और ज़हीन परिवार बेहद सुकून से रहता था कश्मीर के झेलम के किनारे बसे गाँव उड़ी में यहाँ हमारा पुश्तैनी मकान भी था। अब्बू पाँचों वक़्त की नमाज़ के पाबंद थे। हर बकरीद पर ईदगाह जाते। बुजुर्गाना हैसियत थी उनकी। अम्मी कश्मीरी पंडित यानी हिंदू थीं, हलांकि पढ़ी लिखी ज्यादा नहीं थीं बावजूद इसके वो एक तरक्की पसंद खानदान से थीं। दरअसल हम आज़िज़ आ चुके थे इस माहौल से इस दरिंदगी से। ना जाने कितनी औरतों की देह चीथड़े की गई कितने हरे भरे परिवारों को उजाड़ा गया हालात बेहद खराब थे।"

 

कुछ पल मौन रहने के बाद उसने कहा “आप बाकी महफूज इलाकों में रहने वाले बाशिंदे क्या जानें कि हम मुज़ाहिरों की तबाही के नज़ारे और तकलीफ क्या होती है?हजारों मील दूर बैठे अख़बारों या टीवी में आधी अधूरी ख़बरों को देख अंदाज़े लगा लेना और उन घटनाओं के रूबरू होना बल्कि उनके भुक्तभोगी होना इन दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क होता है “उसकी आँखों में एक नफरत और भय के मिले-जुले भाव थे। वो बात करते करते जैसे अतीत में खो जाती .. “कैच एंड किल” पॉलिसी ने ना जाने कितने परिवारों का घर तबाह किया कितने अपना दिमागी संतुलन खो चुके। करीब एक लाख कश्मीरी पंडित अपने घरबार छोड़कर चले गए पर अम्मी अब्बू ने वहां से जाना क़बूल नहीं किया। हम जैसे कुछ और भी परिवार थे। अम्मी तरक्की पसंद औरतों की एक ज़मात के साथ जुड़ी हुई थीं। वैसे हमारा परिवार दहशतगर्ज़ लोगों से अलग था हम उन लोगों में से थे जिनकी उम्मीदों ने हालातों के सामने घुटने टेकना नामंजूर कर दिया था। लेकिन ये भी सच है कि एक खौफ और फ़िक्र मुस्तकिल तौर पर हमारे दिलों में उखड़े हुए फर्श के बीच बीच घास की तरह उग आई थी।

 

हमारा फलों का कारोबार था। एक छोटा सा घर कश्मीर में डलगेट रोड पर और कुछ सेब अखरोट के बगीचे। वो चुप हो गई उसकी आँखों में उदासी के सफ़ेद कबूतर फिर बैठ गए थे।

 

“फिर? ’मैंने पूछा

वो दुमंजिला पुश्तैनी घर बाद में “उन’’ लोगों ने छीन लिया फिर हमने वहीं गुलमर्ग में एक रिश्तेदार के यहाँ पनाह ली क्यूं कि यहाँ हमारा पुश्तैनी कारोबार भी था  ...कहाँ जाते? जेनी की आँखों में तिरस्कार के भाव थे।’ यहाँ के हालात देखकर अब्बू ने मुझे मेरी बुआ के पास जम्मू भेज दिया था। भाईजान अम्मी, अब्बू और छोटा भाई रहते थे यहाँ। भाई जान हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन में एक फोरमेन की नौकरी करते थे लेकिन बाद में उन्हें वो भी छोड़ देनी पड़ी अम्मी अब्बू को वो नौकरी महफूज़ नहीं लगी अब भाईजान ही तो उनका सहारा रह गए थे। जवान बेटा ऐसे हालातों में एक बड़ा सहारा होता है लिहाज़ा अब्बू के साथ ज़ल्दी ही उनका कारोबार संभालने लगे थे।

 

“तुम जम्मू में पढ़ती थीं, मैंने पूछा।

“जी हाँ और नाटक भी खेलती थी। जोहरा सहगल का नाम सुना है आपने?

हाँ हाँ काफी मशहूर हैं वो तो!

 

जी उन्हीं के ग्रुप में थी ..हलांकि बाजी, हम उन्हें बाजी ही कहते थे, वो तो बाहर ही रहती थीं कभी कभार ही आती थीं यहाँ पर, सईदा आपा उनकी गैरहाजिरी में पूरा काम संभालती थीं। हम लोगों ने कुछ नुक्कड़ नाटक भी खेले यहाँ के हालातों के खिलाफ, जिससे हमें वार्निंग भी दी गई थी ....

 

फिर?...मैंने पूछा

हमारा ड्रामा ग्रुप उन लोगों की हिट लिस्ट में था ये जानते थे हम। कई बार हमें इन “हरकतों’’ के लिए खबरदार भी किया गया था, लेकिन हम उनकी वार्निंग की परवाह किये बगैर, उनकी खिलाफत के बावजूद नाटक खेलते रहे। बाज़ मर्तबा तो अरेस्ट होने की भी नौबत आ गई।

 

वो एक रौ में बही जा रही थी ......

“उस दिन जैसे ही हम लोग एक नाटक की रिहर्सल से निकले, एक शख्स ने एक खत दिया। अम्मी ने किसी के हाथ खबर भेजी थी। उर्दू में लिखा था ...

 

“हमारा इलाका करीब-करीब खाली हो चुका है। ना जाने कैसे इन लोगों को खबर हो गई है कि मैं कश्मीरी पंडित हूँ और मैंने अपना मज़हब नहीं बदला है। उन लोगों ने हमें परेशान करना शुरू कर दिया है। तीन रोज़ पहले दरवाज़े पर एक पुर्जा चिपका गए हैं वो लोग, लिखा है “सात दिनों में जगह खाली करके चले जाओ वरना अंजाम बुरा होगा। अब तो उन्होंने हमारे बागों और दुकान पर कब्ज़ा कर अपने आदमी बिठा दिए हैं। अब्बू कहते हैं कि डरकर भागेंगे नहीं, कभी ना कभी अपना हक लेकर ही रहेंगे ...पर माहौल बेहद खराब होता जा रहा है, तुम अपना ख़याल रखना।’’

 

मैंने अम्मी के पास उसी शख्स के हाथ खत का जवाब लिख भेजा-

“अम्मी हम बखैरियत हैं, अब्बू सही फरमाते हैं आखिर कब तक यूँ ही खौफ खाते रहेंगे हम? किसी ना किसी को तो उन वहशी दरिंदों के खिलाफ पहल करनी ही पड़ेगी। कोई परवाह मत करो दो बेटे हैं आपके। अब्बू भी माशाअल्ला हट्टे कट्टे हैं। घर में दो पिस्तौलें भी हैं। बस थोड़ा एहतियात से रहिये। आखिर कब तक चलेंगी उन लोगों की ये खौफनाक हरकतें ...कभी तो कोई हल निकालना होगा। भाईजान भी तो हैं आपके साथ क्यूं डरती हो? हम डरते रहे हैं इसीलिए तो ये हालात पैदा हो गए हैं? आप तो माशाअल्ला एक ज़हीन और हिम्मती औरत हैं। उन तमाम औरतों से जुदा जो अपने औरत होने से ही खौफज़दा रहती हैं, वो नहीं जानतीं कि औरत होना कमजोरी नहीं एक ताकत है। वो दरिंदे भी तो किसी औरत के पेट से ही जन्मे होंगे? आप हिम्मत से रहिये मजबूती से हालातों का सामना कीजिये। इंशा अल्लाह फ़तह हमारी ही होगी। हम अपने घरों में वापस ज़रूर जायेंगे।” मैंने उनकी हौसला अफजाई की और वो शख्स खत लेकर चला गया था। जेनी को उदास और मौन देख उसका दोस्त साहिल जो इसी ड्रामा ग्रुप का एक मेंबर था और उस वक़्त उसके पास ही बैठा था उसने माजरा पूछा, तो वो जैसे भरी ही बैठी थी ..बिफर गई “क्या समझते हैं ये लोग? कैसे खारिज कर सकते हैं उन लोगों के जज़्बात, कैसे निकाल सकते हैं उनके बुजुर्गों के पुश्तैनी घर से सबको? कितनी पुश्तें और खौफज़दा गुजरेंगी और कब तक? दरिंदगी की हद है ...शिराओं में उबल रही नफरत यकायक भड़क उठी।

 

“ऐसा नहीं है...’’, साहिल जो समझदार और शांतिप्रिय लड़का था ने जेनी को समझाने की कोशिश की थी।’’ वक़्त हर चीज़ के मायने बदल देता है अच्छे वक़्त का इंतज़ार करो और उस पर भरोसा करो।’’

 

“तुम दीवाने हो बिलकुल।’’ जेनी और रोष में आ गई। ‘‘वक़्त क्या खुद ब खुद बदल जाएगा? तुम्हें वाकई ऐसा लगता है?....अच्छा एक बात पूछते हैं तुमसे ...बताओ तो, हम मुज़ाहिर किस मुल्क के बाशिंदे हैं? कौन सा मुल्क हमारे हिफाज़त की गारंटी लेता है? बोलो? सच तो ये है कि हम लोग ना इधर के हैं ना उधर के ....हम सिर्फ एक खानाबदोश कौम हैं। जब जिसका दिल होता है हमारा इस्तेमाल करता है और जब चाहा बन्दूक उठाई और शूट कर दिया ...जानवरों से भी बदतर ....जेनी की आँखों में चिनगारियाँ थी।”

 

किसकी हाज़त रवा करे कोई ....!

जेनी ने बताया– “दूसरे दिन हमारा नाटक था शेक्सपियर का ओथेलो।....बहुत बड़ा नाटक था वो... इनफेक्ट हम सब के लिए एक चुनौती ..दिलों जान से जुटे हुए थे हम उसकी तैयारी में’’ फिर शून्य में देखते हुए जैसे कहीं खो गई हो बोली “जानते हो उन दो महीने की रिहर्सल में ओथेलो की डेस्दीमोना के किरदार ने मुझे बेतरह परेशान किये रखा जो मैं खुद निबाह रही थी ...सच बताऊं मैं डेस्दीमोना नहीं बल्कि इमीलिया होना चाहती हूँ ...ओथेलो की इमीलिया।”

 

तुम कुछ बता रही थीं खबर के बारे में ...मैंने उसे याद दिलाया।

हाँ हाँ ...बीच नाटक में मुझे खबर मिली कि तुम्हारे घर में कोई हादसा हो गया है।

हमने नाटक पूरा खेला उसके बाद पूछताछ की पर कुछ खास पता नहीं चला।

“फोन नहीं किया?” मैंने पूछा

अरे यहाँ फोन करने की इजाज़त नहीं थी।

हुआ क्या था? मैंने बेसब्री से कहा

 

“जिन रिश्तेदारों के यहाँ अब्बू ने मय परिवार पनाह ली थी, वो भाग चुके थे, बस हमारा परिवार वहां था। रात में “उन’’ लोगों ने घर पर हमला कर दिया। भाईजान तब तक घर लौटे नहीं थे। अब्बू के मुंह में कपड़ा ठूंस उनके दोनों हाथ बाँध अम्मी के साथ उन्हीं के सामने ...। अम्मी लहूलुहान बेतरह चीखती चिल्लाती रहीं ...पर पड़ोसियों ने भी जैसे साँसें रोक ली थीं अपनी...जेनी ने निगाहें नीची कर लीं’ ’वो तीन लोग थे। छोटे भाई के चिल्लाने पर उन्होंने उसे भी मुंह में कपड़ा ठूंस बाहर बरामदे में बंद कर दिया था।’’

ओह.....मेरे मुंह से निकला आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मेरे शब्द मानों ज़ुबान पर बर्फ़ की तरह जम गए थे। मैं जड़ हो गया था।

 

आगे फिर बोलना शुरू किया उसने -

अम्मी बेहोश हो गई थीं। अब्बू ने रस्सियाँ तोड़ने की कोशिश की तो एक ज़ालिम ने उन पर फायर कर दिया। बीच में भाईजान आये थे उन्होंने ये मंज़र देखा था अपनी आँखों से। अम्मी का निर्वस्त्र शरीर और अब्बू उस वक़्त खून में लथपथ तड़प रहे थे। अम्मी और छोटे भाई ज़ाकिर को लगा कि भाईजान उन्हें छुड़ाएंगे, वो दोनों ज़ोर ज़ोर से चीखने लगे गुहार करने लगे मदद के लिए पर भाईजान डर कर भाग गए। जिनके भरोसे थे वही .....।

 

.... बस हमारा घर टूट चुका है बर्बाद हो चुके हैं ....इतना जान लीजिए। अम्मी अपने होश हवास खो चुकी हैं। अब हमारा कोई खैरख्वाह नहीं। अब्बू का इंतकाल हो चुका है।

 

“अब कहाँ हैं वो लोग?” मैंने पूछा

“कैम्प में .... । अम्मी और मुझसे छोटा भाई कैम्प में है और बड़े भाईजान. गुमशुदा उनका कोई अता पता नहीं। और अम्मी ... होशमंदों की दुनिया ने उन्हें पागल करार कर दिया है अम्मी का दिमाग फिर गया है, ऊलजलूल बोलती रहती हैं।’’ बुलाओ उस बदजात को दूध ना बख्शुन्गी “वो भाईजान के लिए कहती हैं।....कभी कहती हैं मुझे दरगाह ले चलो, अल्लाह ....मैं सौ रकात नफिल तेरी दरगाह में पढूंगी।’’ अब भी वो खुद को ही गुनाहगार मानती हैं। उनकी आँखों के सामने से वो वाकये गुज़रते ही नहीं हैं कि जिस बदन को ज़िंदगी भर ढंके रखा सिर्फ शौहर की अमानत जान उस इज्ज़त के ना सिर्फ शौहर बल्कि नाबालिग बच्चे के सामने चीथड़े कर दिए गए।

 

कोई नहीं जान सकता कि फसादों के चश्मदीद गवाह बच्चे किन किन मानसिक संतापों से होकर गुजरते हैं सब कुछ छुड़ा लिया उन जालिमों ने हमसे हमारा ...हमारे घर से लेकर इज्ज़त तक। जेनी खुद से बुदबुदा रही थी।

 

सैंडविच, कॉफी आ गई थी। हम दोनों चुपचाप कॉफी पीने लगे।

“तुम्हें डर नहीं लगता जेनी?” मैंने कहा।

किस बात का? तुम्हें डर नहीं लगता? “उसने मुझ से ही प्रश्न पूछ लिया।

कैसा डर?

 

“कि इतनी खतरनाक दुनिया में जहाँ इंसान की जान की कीमत जानवरों से भी गयी गुजरी हो गई है, ऑफिस से सही सलामत वापस घर पहुँच पाओगे या नहीं? कि तुम्हें कोई सिरफिरा नशे की हालत में गाड़ी से कुचल तो नहीं देगा? कि सड़क पर किसी दंगा फसाद की चपेट में तो नहीं आ जाओगे? कि स्कूल कालेज गई तुम्हारी बेटियों और तुम्हारे घर में तुम्हारा इंतज़ार करती बीवी किसी हादसे का शिकार नहीं हो जायेंगे? बोलो ..है भरोसा तुम्हें? नहीं लगता तुम्हें डर?

“एक बात बताओ.’’ अब उसके चेहरे पर हताशा के भाव थे बोली- “तुम दो किश्तियों में सवार एक मुसाफिर हो, हर कोई तुम्हें बेक़सूर होने के बावजूद कसूरवार ठहरा रहा हो, सारी की सारी व्यवस्था उसकी तरफ हो जाये, तुम्हें सज़ा मुकर्रर कर दी जाये उस गुनाह की जो तुमने किया ही नहीं और असल गुनाहगार छुट्टे घूम रहे हों तो? तो क्या करोगे? तुम ...आखिर में ....आखिर में क्या करोगे?  उसने दोहराया।

 

’’विरोध’’ मैंने कहा

और नहीं कर पाए तो

“विद्रोह’’ मैंने कहा

उसके रोष भरे चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कुराहट कौंध गई एक संतृप्त और यकीं से भरी मुस्कराहट जैसे उसने मुझ पर भरोसा कर वाकई कोई गलती ना की हो गोया एक अविश्वसनीय कौम पर यकायक  उसका यकीं बढ़ा हो। उसके बाद उसने बहुत संजीदगी से कहा “आगे से हम इस मसले पर कभी बात नहीं करेंगे।’’

 

हरेक शाम की तस्वीर में अलग रंग हैं, हरेक पहले से ज्यादा उदास लगती है ......

 

जेनी एक आदत बन गई थी, बल्कि जिन्दगी का एक मकसद ...मैं चौबीस घंटे उसके ख्यालों की गिरफ्त में रहता। कुछ कह नहीं सकता ठीक ठीक कि वो मुहब्बत थी या एक बेख़ौफ़ अकेली और मजबूर लड़की के प्रति सहानुभूति! “तुम्हारी आँखों का रंग देखना चाहता हूँ बहुत करीब से” एक दिन जब वो उदास थी, उसका मुरझाया हुआ चेहरा कुछ पीला और मासूम सा लग रहा था, तब मैंने कहा। मुझे उस पर बेहद प्यार आ रहा था, दरअसल मैं उसे खुश देखना चाहता था। वो मेरी ओर ऐसे देखने लगी जैसे वो मुझे जानती ही नहीं। एक बार उसके होंठों पर मुस्कान की छोटी सी लकीर उगी। उसने मुझसे नज़रें हटा लीं और एक नाज़ुक दरख़्त की तरफ देखने लगी।

 

“आप ऊब तो नहीं रहे श्रीमान? चलिए अब कुछ खा लिया जाए ....वेटर दो प्लेट कोरमा और कश्मीरी दमपुख्त लज़ीज़ मक्खनी नान के साथ लेकर तो आओ और उसके पहले “दो ब्लैक होर्स बीयर।”

 

जी ज़नाब ......शेरा की आवाज़ पीठ के पीछे से सुनाई दी।

“नहीं नहीं उम्र का तकाजा नहीं है ये....इतना तो तय है जनाब ...अभी इतना बूढ़ा भी नहीं हुआ हूँ हा हा हा

हाँ हाँ सब्र रखिये बरखुरदार, आगे का किस्सा सुनाता हूँ ......बस एक सिगरेट सुलगा लूँ ...।

 

हाँ तो सुनिए ....”शुरू में वो मुझे बिलकुल बच्ची लगी थी। कभी कभी छोटी सी बात पर इतना हँसती वो ..इतना कि मुझे खुद पर ही शक सा होने लगता कि मुझे हँसी ना आना मेरे मस्तिष्क की शिथिलता तो नहीं? कभी कोई बच्चों जैसा प्रश्न पूछ बैठती। उसकी कल्पना मुझ पर हावी रहती थी दिन रात, जैसा वो चाहती मैं करता ये समझ लीजिए कि मैं पूरी तरह उसकी दोस्ती की गिरफ्त में था जैसे आदमी अपनी आदतों की गिरफ्त में होता है।

 

एक दिन सामने के पेड़ पर गिलहरी को चढ़ते देख बोली “आप तो बड़े शहरों में रहते हैं ना मुझसे बड़े भी हैं! एक बात तो बताइए भला! गिलहरियाँ कभी बुज़ुर्ग नहीं होती क्या?’’

 

अरे बुढ़ापा तो सबका आता है...जीव है जो बुढ़ापा आएगा ही उसका ...मैंने कहा।

तो फिर ये हमेशा उछलती कूदती और खुश ही क्यूँ दिखती है आदमियों की तरह बुढ़ापे में निढाल क्यूँ नहीं हो जाती?

सच कहता हूँ उस की वो पहली और आख़िरी बिंदास झरने सी हँसी आज भी मेरी आँखों में बसी हुई है .....मैं निरुत्तर....।और कभी इतनी बड़ी बात को इतना हलके से लेती कि मुझे हैरानी होती ....मन ही मन सोचता “किस मिट्टी की बनी हो जेनी तुम?’’

 

उस दिन जब हम लोग यहीं रेस्तरां में बैठकर चाय पी रहे थे हल्की-फुल्की बातें करते हुए तभी एक तीस बत्तीस साल का लड़का जो उस रेस्तरां के मालिक शेरा के बगल में अक्सर बैठा दिखाई देता था टीवी देखता हँसी मजाक या बातें करता हुआ शायद उसका मित्र होगा। वो एक बारह तेरह वर्ष के बच्चे को रेस्तरां के भीतर से बुरी तरह मारता हुआ लाया और बाहर घसीटने लगा।

इस वक़्त मैं और जेनी रोज की तरह उसी घने दरख़्त के नीचे उस अँधेरे हिस्से में बैठे थे जहाँ तक शायद ही किसी की नज़र पहुँचती हो। जिस अपराध पर लड़का पिट रहा था उसे वो रोते रोते नकार रहा था ...पर आदमी एक जल्लाद की तरह जुनून में पीटे जा रहा था उसे। शेरा, उस होटल का मालिक उसे मारने को उकसा रहा था। बच्चे के मुंह से खून बह रहा था। गिने चुने ग्राहक तमाशबीन की तरह देख रहे थे ये नज़ारा। मुझे हैरानी हुई मैं दौड़कर बचाने जाने लगा तो जेनी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।’

 

’अरे बेतरह पीट रहा है जाने दो बचाने? मैंने कहा

“नहीं मत जाओ .... बैठो यहाँ” वो उतनी ही शांति और सहजता से बोली

पर क्यूँ, मैंने कुछ नाराज़ होकर कहा। 

पहले बैठो ...उसके स्वर में बड़प्पन और अधिकार था। मैं यंत्रवत बैठ गया।

ये वक़्त मुफीद नहीं ....कहकर वो फिर रोते हुए बच्चे की तरफ निर्विकार सी देखने लगी।

देखो इतना सख्त दिल होना ठीक नहीं ...मुझे उस बच्चे पर रहम आ रहा था।

 

“जो अपनी हिफाज़त खुद नहीं कर सकते बल्कि करना नहीं चाहते उन्हें माफ नहीं करना चाहिए .... तुम देख रहे हो? जनी ने मुझसे कहा, जो मार रहा है पिटने वाले से उम्र में दुगुना बड़ा और भारी बदन है। वो बच्चा एक हाथ मारेगा तो दूर जाकर गिरेगा शैतान ...पर हिम्मत ही नहीं ना !इन लोगों ने तो मान ही लिया है कि ये इस संसार में सिर्फ पिटने और ज़ुल्म सहने ही आये हैं। लेकिन यदि तुम अभी इस जुल्मी का हाथ रोक दोगे तो इस बेक़सूर निरीह कौम को दो पीढ़ी और भुगतने की गर्त में डालोगे। सब्र करने और खून के घूंट पीने की एक हद होती है...बस उसके पार हो जाने का इंतज़ार करो, सब समझ जाओगे।”

 

“पर वो बच्चा, लहूलुहान हो गया है वो देखो तो .... कुछ तो रहम खाओ जेनी .......कम स कम उस बच्चे पर”, मैं द्रवित हो गया।

’’वो मेरा छोटा भाई है, उसने बहुत धीरे से कहा।’’

“अरे .... आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। तब तो.... मैं फिर उसे बचाने को उठा।’’

“कहा ना मैंने जाने दो!’’ उसने निर्भाव कहा।’’ वो नहीं जानता, इस वक़्त मेरा यहाँ होना थोड़ा सब्र से काम लो’’ जेनी ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे बिठा लिया। लड़के के मुंह से खून बह रहा था और कमीज़ चीथड़े कर दी गई थी जो देह पर किसी पक्षी के नुचे हुए पंख सी झूल रही थी। वो देखने लगी धूल में घुटनों के बीच में मुंह छिपाए बैठे उस सुबकते हुए लड़के की ओर उदास और तटस्थ नज़रों से, जिसमें दूर कहीं शोले भी भड़क रहे थे।

 

मैं एक बार फिर निरुत्तर ..।

तुम यहाँ बहुत दहशत भरे माहौल में रह रही हो। मेरे साथ चलोगी? मैंने जेनी से कहा।

 

उसने मुझे बहुत खाली और उदास नजरों से देखा। कई भाव एकसाथ आये गए उसके चेहरे पर और फिर स्थिर हो गए एक फीकी सी मुस्कुराहट में। उसने कहा-

“तुम एक अजनबी हो फिर भी क्या तुम हमारी दोस्ती की वजह जानते हो, जबकि मैं इस वक़्त तक तुम्हारा नाम तक नहीं जानती? फिर वो थोड़ा हँसते हुए बोली ...”अल्लाताला ने हम औरतों को भले ही मर्दों से कमज़ोर बनाया है पर चंद रस्मों-रिवाज़ ऐसे बना दिये हैं जो हमारी ढाल बन जाते हैं कभी-कभी हमें हौसला देते हैं महफूज़ रखते हैं, खैर तुम नहीं समझोगे ...शायद वक़्त आने पर सब समझ जाओ।’’

 

मैं देखता रहा उसकी तरफ बगैर इस बात का मतलब समझे। कभी कभी उसकी पहेली सी बातें मुझे उसकी उम्र से ज्यादा उम्रदराज लगतीं।

 

श्रीमान आप ऊब तो नहीं रहे? लीजिए अब एक सिगरेट और पी ली जाय ......अरे वाह रोचक लग रही है कहानी ...आगे सुनेंगे? तो सुनिए

 

उस दिन .....

इंतज़ार का समय पीछे छूट रहा था और मेरी नज़र पेड़ों के उस अँधेरे से झुरमुट में बिंधी थी जहाँ से वो रोज रोशनी की मानिंद नमूदार होती थी। वेटर एक खाली सफ़ेद रंग की चीनी मिट्टी की प्लेट रख गया था और मैंने उसमें एक सिगरेट और लाइटर रख दिया था, रोज की तरह जेनी के लिए। वो आते ही मुस्कराती हुई बहुत धीरे से शुक्रिया कहती और सिगरेट सुलगा लेती थी। आज उसकी कुर्सी खाली और उदास बैठी थी। मौसम लुभावना था पर मेरी आँखों में पतझर था। एश ट्रे सिगरेट के बुझे ठूंठों से भर गई थी। धूप सरककर रेंगती हुई पैरों तक आ चुकी थी मानों उसने मेरे पैरों को कस कर जकड़ लिया था। मैंने महसूस किया कि आज मेरी आँखों को दरख्तों के उस झुरमुट के सिवाय कुछ दिख ही नहीं रहा है जिनके बीच से वो रोजाना आती दिखाई देती थी, गोया वहीं नज़रें किसी शाख पर टंग गई हों। वो अनजान सी लड़की किस क़दर मेरी धड़कनों का एक हिस्सा बन चुकी है मुझे अब अहसास हो रहा था। मैंने घड़ी  देखी सुबह के नौ बज चुके थे। दिमाग में एक अजीब सी बोझिलता और शून्यता सी भर गई। मैं वापस बुझे मन से कमरे में लौट आया। उस दोपहर मैं अपने कमरे के सामने की लकड़ी की बालकनी पर खड़ा सिगरेट पीता रहा। शाम घिरने लगी। बादल हुजूम की शक्ल में फिर ज़मीन पर तफरी करने उतर रहे थे। मन तो ज़रा भी नहीं था फिर भी मैंने जैकेट पहनी कैप लगाई और उतरने लगा सीढ़ियां। आज क़दमों में वो खुशी नहीं थी जो हिलोर रोज होती थी।

 

आसपास की हवा सहमी और खामोश थी। यानी वो शाम को भी नहीं आयी मैं सोचता चला आ रहा था जैसे-जैसे मैं रेस्तरां के निकट पहुँच रहा था, एक शोर सा सुनाई दे रहा था। जो क्रमशः गाढ़ा हो रहा था, मैं तेज कदमों से रेस्तरां की तरफ बढ़ा। वहां लोग गुच्छों की शक्ल में घबराए हुए से खड़े थे अफरा-तफरी मची हुई थी। कुछ एक घटना को अंजाम देते हुए और बाकी तमाशबीन बने देखते। लोगों का एक समूह किसी को बेतरह पीट रहा था। जिसमें कोई आवाज़ जानी पहचानी सी लग रही थी। पास जाकर देखा तो ये रेस्तरां के मालिक शेरा की आवाज़ थी। उसका लम्ब तड़ंग शरीर पठानी सूट पहने उसकी आंखें गुस्से और जुनून में लपटें उगल रही थीं। मैंने एक व्यक्ति जो दूर से डरा-डरा देख रहा था माजरा पूछना चाहा पर वो वहां से चला गया।

 

अचानक शेरा किसी के बाल पकड़कर घसीटता हुआ ले जा रहा था। बाल लंबे थे और लड़की ने काला बुरका पहना हुआ था जो तार-तार हो चुका था। उसके नंगे पैरों की पतली पिंडलियों पर खून की दरारें छलछला आई थीं। रेस्तरां में बजने वाले संगीत की कोई जिप्सी धुन अब भी हौले हौले गूंज रही थी। अंधेरों के बीच बीच में रोशनी के कुछ टुकड़े बिखरे पड़े थे। उन्हीं टुकड़ों के एक हिस्से में जब मुझे उस ज़मीन पर घिसटती हुई लड़की का चेहरा दिखा, मैं मानों अचेत सा हो गया। वो जेनी थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने लोगों के बीच मैं क्या कर सकता हूँ? कैसे रोक सकता हूँ? और किया क्या है इसने? मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था।

 

आवाजें एक के ऊपर एक गिर रही थीं। कोई कह रहा था “इसे नंगा करके पीटो’’ कोई कह रहा था इसे इसकी माँ जैसा कर दो ....अरे इसे भी इसके बाप के पास पहुंचा दो ....। लोग उसकी देह के साथ छीना झपटी सी कर रहे थे। मेरी आँखों के सामने सहसा रेस्तरां के सामने लटके मुर्गियों बत्तखों के नर्म गोश्त की तस्वीरें उभरने लगीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जेनी के चेहरे पर कोई घबराहट या खौफ नहीं था, वो निर्भाव और शांत थी। उसकी गुलाबी देह के खुले अंगों पर खून के रेशे उभर आये थे। वो जानवरों की तरह घसीटी जा रही थी ज़मीन पर बेरहमी से, बाकी लोग तमाशबीन बने नजारा देख रहे थे, इतनी सहजता से जैसे रोज की बात हो। मुझे लग रहा था मैं अंधा बहरा हो चुका हूँ। घसीटते हुए उसकी निगाह मुझसे टकराई...मैं और भी बेचैन हो गया ...गहरी उदासी और निरीहता उसकी आँखों में थीं जाती हरियाली और आते पतझड़ की आमद के बीच की खामोश बेचैनी ....

 

अचानक जो देखा मैं हतप्रभ रह गया। वही लड़का जो उस दिन जेनी के छोटे भाई को बुरी तरह पीट रहा था और जो शेरा के पास अक्सर बैठा दिखाई देता था, उसकी लाश खून में लथपथ पड़ी थी ज़मीन पर, उस सायेदार दरख्त के करीब जिसकी परछाईं मृतक के चेहरे पर पड़ रही थी।

 

जेनी ने उस लड़के को गोली मार दी थी। कुछ लोग लाश को घसीटते हुए किनारे ले जा रहे थे ...तभी जेनी ज़ोर ज़ोर से चीखने मचलने लगी।

 

“उसे घसीटो मत मरदूदों ...चाहे मेरा कोई हश्र कर दो... उसे इंसानों की तरह ले जाओ ...आखिर वो तुम्हारा दोस्त था ....’’ वो चीख चीख कर यही दोहरा रही थी वो अर्ध मूर्छित थी।

 

तभी एक बुज़ुर्ग सा आदमी बोला “तूने तो उस लड़के को मार ही दिया है ना  .....अब क्यूँ तड़प रही है इतना?

 

“वो लड़का नहीं मेरा सगा भाई था ...भाईजाSSSSSSन ....’’आख़िरी लफ्ज़ की चीख दर्द और बेहोशी में गुम सी हो गई थी .... उसकी देह के साथ ... पौष माह की इस झरती हुई सर्द धुंधली शाम में तेज़ी से दूर जाती वो चीख मुझे दुनिया छोड़कर जाती हुई आत्मा की कराह जैसी लगी।

 

प्रार्थना किसी अंत के बाद का पहला और शायद इकलौता पड़ाव होता है।

शुक्रिया ज़नाब...तीस साल गुजर गए ..पर ....अब सुकून से जाऊंगा अपने शहर कभी वापस ना आने के लिए। चाहता था किसी को पूरी कहानी सुनाना .ताकि एक आखिरी बार उसे फिर से पूरा का पूरा याद कर सकूँ .....ताकि उसकी यादों की कब्र पर एक आख़िरी फूल रख इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह सकूँ।

 

 

 

                                                                     

 

 


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