Sandhaya Choudhury

Inspirational

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Sandhaya Choudhury

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स्वामी विवेकानंद जी

स्वामी विवेकानंद जी

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सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए। 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये।


वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था,और ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया। 1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।


नरेन्द्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कूपइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के कामों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन (1860) का बंगाली में अनुवाद किया। ये हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे। पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा। विलियम हेस्टी (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा, "नरेन्द्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।" अनेक बार इन्हें श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति वाला एक व्यक्ति) भी कहा गया है।हम हनुमान के विचार के बिना श्री राम के बारे में नहीं सोच सकते, या अर्जुन को याद किये बिना हम श्रीकृष्ण का स्मरण नहीं कर सकते। इसी प्रकार ईसा तथा संतपाल की तरह बुध तथा आनंद की बात है। यही संबंध श्री रामकृष्ण स्वामी विवेकानंद के बीच है। क्योंकि यदि एक जलस्रोत था तो दूसरा इस जल स्रोत का प्रवाह रूप झरना था ।


श्री राम कृष्ण के लिए ईश्वर एक तथ्य तथा एक वास्तविकता थी उन्हें ईश्वर के बारे में वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं थी वे विश्वास पूर्वक ईश्वर की पुष्टि कर सकते थे। भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के शिखर थे। उनका दृष्टिकोण वैश्विक उनकी अनुभूती सर्व स्पर्शी सर्व समावेशक थी। उनके विचार आज भी भारतीय जनमानस पर आज भी विद्यमान है। एक अच्छा वक्ता होने के कारण लोगों के दिलों को बखूबी जीत लेते थे। आज भी इनके विचार अतुल्य और धरोहर के रूप में भारतीय युवाओं में विद्यमान है सचमुच वे एक विद्वान पुरुष ही नहीं एक अच्छे शिष्य के रूप में भी अपनी छवि भारतीय जनमानस में युवाओं में बहुत लोकप्रिय हैं।


 स्वामी विवेकानंद श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रधान छात्र उनके अत्यंत प्रिय शिष्य उनके महानतम उत्तराधिकारी उनके यथार्थ भाष्यकार तथा अत्यंत दक्ष कार्यवाहक भी थे।

सन 18 सो 93 के मई मास में स्वामी जी शिकागो में सितंबर मास में होने वाली विश्व धर्म महासभा में भाग लेने के लिए भाप चलित जलयान द्वारा रवाना हुए उन्हें औपचारिक रूप से आमंत्रित किया उनका नाम प्रतिनिधियों की सूची में शामिल नहीं किया गया था कुछ कठिनाई के पश्चात उन्होंने धर्म महासभा में सम्मिलित होने का अवसर मिल गया सम्मिलित ना होने देने की किसी भी कठिनाई की तुलना में वे कहीं अधिक प्रदीप्त प्रतिभा संपन्न थे परंतु तब यह प्रथम वक्तव्य में ही दिग्विजय की बात थी जब गरिमापूर्ण सभा को संबोधित करने की उनकी बारी आई तब वे उषाकाल के सूर्य की भांति उठे तथा अमेरिका की बहनों और भाइयों यह शब्द कहे उस हार्दिक पुकार ने विश्व धर्म महासभा तथा पश्चिमी जगत को मंत्र मुग्ध कर दिया। वे संकीर्णता में जकड़े धर्म पंथो तथा बौने मत वादों से ऊपर उठकर समन्वय तथा सार्वभौमिकता के बारे में बोले। उनका संदेश मानो दम घुटे लोगों के लिए जीवन स्वास था ।व्याख्यान करते हुए पश्चिमी देशों के निवासियों को शिक्षित करते तथा उन्हें भारतीय दर्शन के अध्ययन में सहायता करते हुए कई मास तक अमेरिका में रहे। तत्पश्चात वे इंग्लैंड तथा यूरोप गए। दो संस्कृति के बीच आपसी समझ के लिए सेतु बने।


सन 18 सो 97 में स्वामी जी भारत लौटे। समुचा राष्ट् एकीकृत होकर उनके स्वागत के लिए उठा ।भारतीय जनता ने उन्हें आदि शंकराचार्य के नूतन अवतार के रूप में पाया। जो मातृभूमि को ओजपूर्ण तथा जीवन शक्ति से स्फूर्ति करने को उठ खड़ा हुआ था। स्वामी जी ने अपने देशवासियों को भारतीय राष्ट्रीय आदर्श त्यागक् के महान आदर्श का स्मरण कराया ।उन्होंने भारतीयों के हृदयो में यह बात प्रविष्ट करा दी कि भारत में जन्म प्राप्ति परम सौभाग्य की बात है तथा उन्हें बताया कि किस प्रकार आध्यात्मिक संस्कृति ही भारत के अनश्वर अस्तित्व का रहस्य है। उन्होंने भारत को प्रबुद्ध भारत बना दिया।


 परंतु वे सलाह देने या उपदेश देने तक ही सीमित नहीं रहे एक कुशल संगठन कर्ता थे। तथा उन्होंने अपने गुरुदेव के लक्ष्य को निरंतरता को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए एक संगठन की स्थापना करनी चाही ।इसलिए उन्होंने रामकृष्ण मठ तथा मिशन की स्थापना की जिसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलूर मठ है। इस संस्था का उद्देश्य है "आत्मनो मोक्षार्थ जगद्विताय" च' अर्थात अपनी मुक्ति एवं संसार का कल्याण भी।


 स्वामी विवेकानंद अभी 40 वर्ष के भी नहीं हुए थे महासमाधि में लीन हो गए ।परंतु उनकी आयु की गणना सौर वर्षों के आधार पर नहीं होनी चाहिए ।लगभग एक दशक के लोकाप्रित कार्य द्वारा ही उन्होंने मानस चेतना में ऐसे विचार आरोपित कर दिए जिनके संपूर्ण क्रियान्वयन के लिए डेढ़ हजार  वर्ष लग सकते हैं। उनके जीवन कार्य का एक तो भारतीय पक्ष है तथा दूसरा अंतर्राष्ट्रीय पक्ष है ।इन दोनों क्षेत्रों में उनका योगदान बेजोड़ है।



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