सूट की राम कहानी
सूट की राम कहानी
ज्यों ही सर्दियां शुरू होती हैं, मेरे कलेजे में एक हूक-सी उठती है, काश मेरे पास भी एक अदद सूट होता, मैं भी उसे पहनता, बन ठन कर साहब बनता और सर्दियों की ठंडी, बर्फीली हवाओं को अंगूठा दिखाता। ज्योंही दूरदर्शन वाले तापमान जीरो डिग्री सेंटीग्रेड हो जाने की सूचना देते, मैं सूट के सब बटन बन्द कर शान से इठलाता। मगर अफसोस मेरे पास सूट न था।
आज से बीस बरस पहले शादी के समय ससुराल से एक दो सूट प्राप्त हुए थे, मगर जैसे-जैसे बिवी चिड़चिड़ी होती गई, सूट के चिथड़े उड़ते गये और शादी की दसवीं वर्षगांठ आते-आते सूट स्वर्गीय हो गया। पेंट पहले फटा और कोट बाद में काल-कवलित हुआ। मगर सूट न होने से जो कष्ट थे, वे सर्दी के कम और सामाजिक ज्यादा थे। इधर किसी ने भी साहित्य की खतिर शाल तक नहीं ओढ़ाई कि उसी से काम चलता। फिर सर्दियां आ गई थीं, पहाड़ों पर बर्फ पड़ने लग गई थी, शीत लहर का प्रकोप आ गया था और मौसम वैज्ञानिकों ने इस बार बड़ी तेज सर्दी पड़ने की पूर्व घोषणा कर दी थी। इधर पत्नी ने भी कहा था कि शादियों में आना-जाना पड़ता है, दफ्तर में भी सब सूट पहनते हैं, आप भी एक सूट बनवा डालो। मैंने टालने की गरज से कहा-
एक सूट पहनकर दफ्तर जाने से तो अच्छा है, चार पांच जर्सियां बनवा लें और बदल-बदल कर पहन लें। हमारे दफ्तर में एक सूटवाले साहब हैं जिनके पास इकलौता सूट है जिसे वे दिवाली पर पहनते हैं और होली पर उतारते हैं, सब उन्हें सूट वाले साहब कहकर पुकारते हैं।
-- तो क्या हुआ। एक सूट होने से ही तो उन्हें सूट वाला साहब कहा जाता है।
-- वो तो ठीक है भागवान ! मगर सूट का आनन्द तब आता है जब आदमी के पास तीन-चार सूट, पांच-छः टाई तथा कम से कम एक जोधपुरी सूट हो। नहीं तो रोज एक ही सूट पहनने से अच्छा है आदमी सूट ही न पहने।
-- अब तुम्हारे पास पांच-छः सूट तो इस जिन्दगी में बनने से रहे इकलौता सूट मेरे पिताजी ने बनवा कर दिया था जो इतने वर्ष चला। तुम्हारी लाज ढकी और सर्दी से भी बचाया। चाहो तो इस सर्दी में एक सूट बनवा लो। कुछ मदद मैं भी कर दूंगी।
अब बात मेरी समझ में कुछ-कुछ आने लगी थी। अगले माह ससुराल में एक शादी थी, और श्रीमतीजी चाहती थी कि उनके श्रीमान एक अदद सूट में सजधज कर शादी में जायें।
सूट चर्चा सायंकाल भोजन पर फिर शुरू हुई। हमारी इकलौती बिटिया ने बताया - पापाजी टी.वी. पर सूट के कपड़ों के जो विज्ञापन आते हैं वे कितने प्यारे और खूबसूरत लगते हैं।
--पापा आप अगर सूट सिलाएं तो थ्रीपीस बनवाना। ये हमारे बड़े साहबजादे थे।
--ताकि वक्त जरूरत तुम भी पहन सको। ये तीर नन्हें ने छोड़ा था।
--भाई मैं थ्रीपीस सूट तो इसलिए नहीं बनवाऊगां कि आप तीनों मेरे थ्रीपीस हो।
यह सुनते ही तीनों अलग-अलग दिशाओं में मंुुह फेर कर हंसने लगे।
इधर श्रीमतीजी ने सूट की राम कहानी के सूत्र अपने हाथ में ले लिए, कहने लगीं-
देखो वर्माजी के पास कैसा शानदार सूट है। जब पहन कर नई पत्नी के साथ चलते हैं तो पत्नी की खुबसूरती में चार चांद लग जाते हैं।
अरे भाई वर्माजी की नई-नई शादी हुई है ससुराल से मिले हैं, उन्हें तीन-तीन सूट।
इसीलिए तो कह रही हूँ तुम भी सूट सिलाकर ससुराल में शादी में चलो, हो सका तो एक-आध सूट का कपड़ा वहाँ से भी झटक लाऊगीं।
अब मामला मेरी समझ मे आ गया था। बड़ा सीधा-सादा गणित था ससुराल में सूट पहन कर जाओ तो सूट मिलने की सम्भावना बनी रहती है, इसी सम्भावना को यथार्थ में बदलने की खातिर पत्नी एक अदद सूट सिलवाने के लिए अपनी साड़ी तक छोड़ने को तैयार थी, ऐसा महान त्याग।
आखिर सूट बनवा लेने के बारे में अंतिम निर्णय मेरी अनुपस्थिति में घर के चारों सदस्यों ने एक मत से कर लिया और मुझे इसकी सूचना सायंकाल भोजन के समय दे दी गयी। ये हिदायत भी दी गई कि सूट का कपड़ा, डिजाइन, दर्जी, वगैरह के बारे में भी अंतिम निर्णय यही समिति करेगी। मेरे विरोध के बावजूद मुझे घेर-घार कर एक रोज बाजार ले जाया गया। बाजार में इतने प्रकार के सूट के कपड़े और कपड़ों के डिजाइन थे कि मेरा तो माथा चकरा गया। खजाने वालों के रास्ते से दड़ा और दड़ा से बड़ी कम्पनियों के शो रूमों तक हजारों सूट के कपड़े बिखरे पड़े थे और भाव बस मत पूछिये क्यों कि कई सूट के कपड़ों का भाव हजार रूपए मीटर से भी ज्यादा था और सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात यह कि हर दुकान पर भीड़। पता नहीं लोगों के पास इतना पैसा कहां से आता है। कई बार तो लगता है कि शायद पूरा शहर ही सूट बनवा रहा है, लोगों के पास सूट बनवाने के सिवाय और कुछ काम ही नहीं है, मगर नहीं, लोगों के पास सूट बनवाने के बाद सूट पहनने का काम भी तो है।
एक दुकानदार से जब हमने कोई सस्ता सूट का कपड़ा दिखाने को कहा तो व्यंग्य भरी मुस्कान से वो बोला - साहब अब सस्ताई के जमाने गए। आप तो महंगे से महंगा खरीदना चाहें तो ऊपर देखें। महंगा सूट खरीदना मेरे बस का नहीं था। सो हम फिर किसी अन्य दुकान कि सीढ़ियां चढ़ने लगे। सुबह से शाम तक पूरा बाजार छान मारा मगर अफसोस अपनी बचत और जेब के अनुरूप सूट का कपड़ा नहीं मिला। शाम होते-होते दियाबत्ती के समय एक दुकान से एक कटपीस सूट का टुकड़ा ऐसा मिला जो हमारी जेब को सूट कर रहा था, यही सूट का कपड़ा लेकर अब एक अदद दर्जी की तलाश में निकल पड़े। सभी दर्जी शादी के कपड़े सीने में व्यस्त थे। हर एक के पास ढेरों सूट सिलने को पड़े थे। और सिलाई की राशि कई बार तो लगता कि कपड़ा सस्ता है और सिलाई महंगी। अन्त में हम अपने चिर-परिचित दर्जी जो वर्षो से हमारे कपड़े घटी दरों पर बना रहा था, की शरण में गए और उससे अपना सूट बनवाने को कहा उसने हमें कई सूट डिजाइनों के दसियों केटेलौग दिखाए। हरएक में एक फिल्मी सितारा अजीबोगरीब सूट पहनकर इठला रहा था और साथ में एक कामिनी खड़ी गर्व भरी मुस्कान फेंक रही थी। दर्जी जानता था कि मैं जीवन में पहली बार सूट सिलवा रहा था फिर भी पूछ बैठा।
साहब पहली बार सूट सिलवा रहे हैं ? वैसे हमारे यहां के बने सूट पहन कई लोग मंत्री पद की शपथ ले चुके हैं।
मैंने कहा-मुझे शपथ नहीं लेनी है। यह सूट दूसरी और अंतिम बार बनवा रहा हूं। पहली बार शादी पर ससुराल से मिला था।
--अच्छा क्या थ्रीपीस बनवाएंगे ?
--नहीं यार, उसमें कपड़ा ज्यादा लगता है।
--अच्छा तो तीन बटन वाला ?
नहीं वो भी नहीं, बस एक सिम्पल सूट बना दो।
अजी प्रोफेसर, साहब आप भी क्या बात करते हैं। ऐसा सूट बनाऊंगा कि पूरी क्लास में शांति रहेगी।
मगर मन में तो अशांति है, कब तक दे दोगे सूट बना कर। मैंने पूछा -
--अभी सूट कहां हजूर, अभी आप ट्रायल के लिए अगले बुध को आना। उसने नाप लिखकर बिल हमें पकड़ा दिया। नौ सौ रूपये सिलाई बिल देख कर मैं बंेहोश होते-होते बचा। उससे पूछा।
--ये तो बहुत ज्यादा हैं।
--क्या ज्यादा हैं सर। आप दस पांच रूप्ए कम दे देना या एक पाजामा बोनस में सिलवा लेना।
बुध को ट्रायल के लिए पहुंचे, उसने कच्चा कोट पहना दिया। मैंने कांच मे देखा तो लगा सर्कस का जोकर आ गया। मगर दर्जी बड़ी गंभीरता से आगे पीछे, दायें बायें न जाने क्या-क्या देख जांच रहा था। मैंने उससे कहा -
--बन्धु ये कोट है या कोट का प्रारूप।
--सर, बनती मिठाई और बनते कपड़े दिखने में अच्छे नहीं लगते। आप पूरा सूट तैयार हो जाने दीजिए। फिर देखिये आप अपने जलवे। आप अगले सोम को सूट ले जाना।
अगले सोम को सूट लेकर घर आया। सूट के साथ मैचिंग कमीज, टाई, जूते और मोजों की तलाश की गई। नया खरीदना सम्भव नहीं था। अतः एक पुराने कमीज को प्रेस करके मैचिंग बनाया गया। पुरानी टाइयों में से एक टाई को निकाल कर प्रेस किया। मोजे, जूते पुराने ही काम में लेने के संकल्प के साथ ही मैंने सूट को धारण किया।
सम्पूर्ण साज-सज्जा के साथ जब मैंने दर्पण में देखा तो सच कहता हूं एक बार तो स्वयं शरमा गया। बाहर निकला तो लगा कि सूट पहनना एक आवश्यकता है, मगर सर्दी से बचने की जो कल्पना कर रखी थी वो सत्य सिद्ध नहीं हो रही थी, सूट के कोट में बटन दो ही थे, और सामने से ठंडी हवा तीर की तरह कलेजे में चुभ रही थी। मगर घर वालों को सन्तोष इस बात का था कि मैंने सूट बनवा लिया और पहन लिया। एक रोज सूट पहन कर कालेज गया तो देखा छात्र-छात्राएं मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं कोई चिड़िया घर का भागा हुआ जानवर होऊं, वह तो बाद में पता चला कि वे मुझे भी सूट वाला साहब कह रहे थे।
इकलौता सूट अभी भी चल रहा है, क्योंकि औसत भारतीय की तरह मेरे पास भी दूसरा सूट नहीं है, और इस सूट में भी पत्नी की बचत, मेरे लेखों का पारिश्रमिक और बच्चों की दुआएं शामिल हैं। इस सूट को जब भी पहनता हूं, मुझे असीम आनन्द आता है। क्योंकि अब मुझे सभी सूट वाले साहब समझते हैं। वैसे सोचता हूं रोज-रोज सूट की चिन्ता करने के बजाय सूट को दीवाली पर पहन लूं और होली पर उतार दूं तो कैसा रहे, आपका क्या ख्याल है ?
