Tulsi Tiwari

Drama

0.2  

Tulsi Tiwari

Drama

सुहाग का पीढ़ा

सुहाग का पीढ़ा

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अभी दिन भी नहीं निकला था। रात भर के पहरे से लस्त पहरेदार जैसे सुबह- सुबह जम्हाई ले रहे हों, ऐसी ही अलसाई सी सुबह थी। वह उठी थी, सारे घर को झाड़-बुहार, लीपना, खुटियाना करके तालाब से एक बाल्टी कपड़े फटाफट धो लाई। थोड़ी सी कनकी थी, जरा सा नमक डालकर उसकी खिचड़ी पका दी। बच्चे उठते ही खांव-खांव करते हैं, जब वे उठे मुँह-हाथ धुला बाल संवार कर खिला-पिला कर बहला दिया उसने। तीनों निकल गये खेलने-कूदने। उनके बाबू नींद के नशे में चूर सो रहे थे। रात दो-दो तीन-तीन बजे तक नाचेंगे तो कहाँ उठ पायेंगे सबेरे जल्दी ?

उनका दल बना है गाँव में। जहाँ दोहपर ढली कि साथी लोग बुलाने आ जाते हैं। जल्दी-जल्दी उठते हैं, बाहर भीतर, करके नहा धो के जो कुछ पेज पसिया रहता है खा पी के निकल जाते हैं, अपने साथियों के संग। घंटो लगते हैं तैयारी में, तरह-तरह का वेश बनाते हैं। लाल-पीले फूदने, काले सितारे वाला बिन बाँह का अंगरखा, घुटनों के नीचे तक धोती, उसके नीचे पट्टा, घुंघरू बाँधते हैं। लाठी में भी घुंघरू गुथे रहते हैं, जो नाचते समय मधुर झंकार करते हैं। चेहरे पीली मिट्टी से रंगे होते हैं, सारे साथियों की तैयारी पूरी होते ही वे निकल पड़ते है गुदरूम-गुदरूम बाजे के साथ नाचते-कूदते एक विशेष लय में लाठी हवा में लहराते।

अच्छा लगता है उसे इस प्रकार सजे-धजे गोसान को देखकर, पहचानना मुश्किल होता है कि ये ही मनराखन के बाबू हैं। उनके लिए खाने पीने की चिन्ता नहीं रहती उसे। जानती है कि जहाँ भी वे लोग जाते हैं, वहाँ रुपये भेंट में पाते हैं, उसी में से खाते-पीते रहते हैं नचकरहे राउत लोग। परेशानी तो इस तरफ हो गई है डेढ़ कोरी (30) गायें दूहते हैं, सभी कुछ इस समय छोड़ रखा है। किसान हलाकान हैं। घर का राशन पानी खतम हो गया है। थोड़ा बहुत जो नगद था वह भी त्यौहार की तैयारी में खर्च हो गया। अब तो लाँघन की बारी आ गई है। कहीं जाते, कुछ पइसा कउड़ी माँग कर लाते, तो राशन आता, आज तो ऐसा समय है कि घर में दाल, चांवल, आटा, नून, तेल, लकड़ी सभी कुछ खत्म हो गया है।

कहने को उसने कहा था ‘‘सभी वस्तुएँ खत्म हो गईं हैं जी! बच्चों के लिए क्या पकाऊँगी।’’ उनके मुँह से कोई उत्तर निकलता इसके पहले ही खींच ले गये ।‘‘काय भइया,दिन-रात संगे म रइथऽ तभो ले जीव नी भरे हे भउजी सो गोठियाए ले ? चल तो ओती बेरा होवत हे।’’ शाम होने लगी। सूर्य भगवान् का ताप ठंडा होने लगा। उसने विचार कर देखा किसके घर से एक किलो चावल उधार मिल सकता है ? नमक भात तो खिला देती बच्चों को नहीं निदान में। अभी तो पारा की हलचल में भूख को भूले खुशी के नशे में खेल रहे हैं। वह अभी किसी नतीजे पर नहीं पहुँची थी कि दो व्यक्ति उनके दरवाजे पर आकर आवाज देने लगे - ‘‘गोपी यादव ! गोपी यादव का घर कौन सा है ?’’

उसकी आत्मा थर्रा उठी। यदि पहुना आ गये तब क्या होगा ? सारी इज्जत चली जायेगी।’’ उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे रहे गई। क्या करे वह, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कुछ पल वह सुनती रही, फिर सिर को अच्छी प्रकार आँचल से ढाँक कर दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गई।

देखने में तो अपने ‘सगा’ जैसे नहीं लगते, एक ने साफ सुथरा कुरता- धोती, पहन रखा था लाल रंग का दुपट्टा गले में लिपटा था, एक ने फुलपेन्ट शर्ट।

‘‘लगता है दूसरे घर के पाहुने हैं !"

‘‘ऐ ओ नोनी, गोपी यादव का घर यही है क्या ?’’ धोती कुरता वाले ने पूछा था।

‘‘यही है ददा, कहिए किस गाँव से आये हैं ?’’ इतने पर भी वह कैसे मुँह चुरा सकती थी ?

‘‘हम लोग आमापारा के पटेल हैं, ए वो नोनी नहीं पहचानी क्या ? दो साल पहले नवरात्र के समय तुम लोग हमारे गाँव माता के दर्शन के लिए आये थे, तुम्हारी साइकिल बिगड़ गई थी, जिसके कारण तुम्हें हमारे घर दो तीन घंटे अपनी काकी के साथ बैठना पड़ा था ?’’

‘‘हाँ...हाँ, ये देखिये मेरा दिमाग ! मैं पहचान नहीं पाई, आईये ! आईये ! बैठिये।’’ उसने आँगन में खाट बिछा दी।

‘‘क्या समाचार है बेटी परलोनिक, दामाद और बाल बच्चे ठीक तो हैं न ? कोई दिखाई नहीं दे रहा है ?’’

‘‘सब ठीक हंै कका, आपके दामाद तो इस समय राउत नाच रहे हैं, बच्चे इधर-उधर खेलते होंगे, बुला लूँगी उन्हें।’’ वह मुँह से बातें कर रही थी किन्तु उसका दिल बैठा जा रहा था।

‘‘क्या दूँगी खाने के लिए ? इन्होंने तो बिना जान-पहचान के इतनी व्यवस्था की, भूख प्यास से व्याकुल बच्चों को साग-भात खिलाकर भेजा। हे, ठकुराईन दाई आज मेरी पत रख लेना।’’ वह प्रार्थना कर रही थी।

उसने चाँदी जैसे चमकते लोटे में पानी लाकर रख दिया।

‘‘कका पानी पी लीजिए। फिर बताइये घर परिवार सहित मेरी काकी अच्छी है न ?’’ वह जमीन पर बैठ गई थी खाट के पास ही।

‘‘और तो सब ठीक है बेटी, तुम्हारी काकी की तबियत ठीक नहीं रहती, उन्हें तुम्हारे गाँव के अस्पताल में लेकर आये हैं, इलाज के लिए। उन्हें वहाँ बैठा कर तुम्हें खबर देने आये हैं अपने आने की।’’

कका की बात सुनकर तो उसका सिर घूमने लगा।

‘‘बैठिये, मैं जरा चाय चढ़ा दूँ, आप लोगों के लिए।’’ उसने आदतन कह दिया।

‘‘सुनो न बेटी ! अभी मत बैठाओ, न चाय चढ़ाओ, तुम्हारी काकी वहाँ अकेली हंै। हम उनका इलाज करा कर आ रहे हैं। तब भो न करके निकल जायेंगे रातों रात, गाड़ी लेकर आये हैं, इसीलिए।’’ कका ने एक दो घूंट पानी पिया। अपने बेटे को भी दिया। वे उठकर जाने लगे।

‘‘ठीक है मैं इंतजार कर रही हूँ अपनी काकी का, परन्तु आज जाने नहीं दूँगी इतना जान लिए रहना।’’

‘‘बाप रे ! यह कौन बोल गया उसे तो पता भी न चला।’’

‘‘तुम्हारी भाभी के कुछ होने वाला है, दिन पूरे हो गये हैं बेटी, इसलिए हमारा रुकना संभव नहीं है। हम फिर आयेंगे न ऽ...ऽ तुम्हें बुलाने छट्टी के समय। और हाँ, जल्दी जल्दी में हम बच्चों के लिए कुछ ला नहीं पाये, ये लो, कुछ मंगाकर खिला देना। कका ने सौ रूपये का एक नोट परलोकिन के हाथ में रख दिया।

‘‘नहीं लगेगा कका’’ कहते हुए उसने नोट अपनी मुट्ठी में भींच लिया। ‘‘हाय ठकुराइन दाई, तुमने मेरी इज्जत रख ली, तुम्हारी जय-जयकार हो।’’ उसके हाथ जुड़ गये।

उनके आँखों से ओझल होते ही उसने बड़ी नोनी कचरा को पुकार लिया - ‘‘बेटी ! एक किलो पतला दो साल पुराना चांवल ले लेना, बीस की राहरदार, दस-दस का आलू, भाटा, पताल, धनिया, मिरचा !’’

इतने में कैसे होगा, कचरा ने प्रश्न पूछती आँखों से देखा था उसे।

‘‘जा न, बेटी चावल दाल के बाद जो कुछ बचे उसमें सारी चीजें माँग लेना, दुकानदार दे देगा हिसाब करके।’’ उसने झोला देकर दौड़ा दिया बच्ची को, है तो दस साल की लेकिन चतुराई के कारण कई लोग उसे बूढ़ी दाई भी कहते हैं मोहल्ले में।

‘‘और सुन, जरा सम्हल के सामान लाना, पहुना आये हैं हमारे घर।’’ उसकी आवाज सुनकर कचरा ने पीछे पलट कर देखा, चेहरे तक झूलते उलझे बालों को पीछे किया और दौड़ गई दुकान की ओर।

‘‘अरे ! तेल भी तो नहीं है, चलो अथान से थोड़ा निथार लेती हूँ। ‘‘हाय दई ! एक भी लकड़ी नहीं है, पकेगा कैसे जेवन ? छोटी-छोटी लकड़ियाँ बीनने का समय भी कहाँ है ? वे लोग आ ही रहे होंगे अस्पताल से। उन्हें वापस भी जाना है, इसी में तो परलोकिन की भी इज्जत है, अभी का तो ठिकाना नहीं, कल क्या खिला-पिलाकर विदा करेगी ? उसने घर के हर कोने में खोजी नजरें दौड़ाईं। अब पहले जैसा थोड़ी ही है एक खोली तो लकड़ी छेना से भरी ही रहती थी, जंगल तो देखने को भी नहीं रह गया है। पाँच रूपये किलो लकड़ी है, वह भी अक्सर एकदम गीली मिल जाती है, भात पकते तक गुंगुआती रहती है। उसकी दृष्टि आँगन में रखे पीढ़े पर ठहर गई।

‘‘इसे ही फाड़ डालूं क्या ?’’ उसने स्वयं से प्रश्न किया।

‘‘नहीं दाई, मेरी शादी का पीढ़ा है, आम की लकड़ी का बना, इतने दिन से वह उसे जतनती आ रही है, उसे कैसे फाड़ सकती, जब सास से अलग हुई थी तब मुँह खोल कर इसे माँगा था। पहली बार लग्न मंडप में वह गोपी के साथ इसी पर बैठी थी, पाणिग्रहण के समय। दोनों के लिए तो लगता है आम की लकड़ी का पीढ़ा, दुलहिन के गाँव का बढ़ई लेकर आता है, महावर से भाँति-भाँति की आकृतियाँ उकेर कर उसे मांगलिक स्वरूप प्रदान करके।

इसके बदले धोती-साड़ी रूपये का नेग पाता है। एक तो न जाने समय प्रवाह में कहाँ टूट--फूट कर विलीन हो गया। और इसे तो रोज ही इस्तेमाल करती है परलोकिन। तीनों बच्चों की छट्ठी इसी पर बैठकर नहायी । उसी पर बैठा कर बच्चों को तैयार कराती है, मेहमानों को भोजन कराती ह,ै इसी पर बैठकर गोपी भोजन करता है, इसके बिना न तो बरतन माँज सकती है न ही रोटी बेल सकती है। उसकी आँखों में ऐसे परोपकारी पीढ़े के लिए प्यार उमड़ आया।

‘‘तब किससे पकाया जाय भात साग ?’’ दरवाजा तोड़ती है तो कुत्ते-बिल्ली रहने नहीं देंगे। और क्या है ऐसा ? वह सोच में पड़ गई।

‘‘इज्जत बची रहेगी तो सब कुछ हो जायेगा। एक टूट गया तो आखिर काम नहीं चल रहा है क्या ? आज इसे ही फाड़ना पड़ेगा’,’ उसके हाथ यंत्र चालित से टंगिया की ओर बढ़ गये। दिल पर पत्थर रख कर उसने पीढ़े पर कुल्हाड़ी चलायी, ‘‘पहुँना जेवंाने के लिए किसी राजा ने अपने पुत्र को चीर दिया था, इतनी ही पीड़ा हुई होगी न उन्हें भी ?’’ आँखों की नमी को उसने अन्दर ही सूखने दिया। झट-पट पीढ़ा फाड़ कर लकड़ी चूल्हे के पास ले गई। आग जला कर अदहन चढ़ा दिया। 12 वर्ष का सूखा पीढ़ा धूं-धूंकर जल उठा।

‘‘बेटी ! थोड़ी देर अपने भाइयों को बाहर में ही खेलाती रहना। पहुना लोगों को खिला कर मैं तुम लोगों को भी दूँगी खाना।’’ उसने प्यार दिखा कर बेटी को बहला दिया।

‘‘दाई ! बहुत भूख लगी है, पसिया दे देना हम लोगों को, बस खेलते रहेंगे।’’ परलोकिन ने कचरा की आँखों में फैली भूख का अनुभव किया। उसके मन में पीड़ा का समुद्र ठाठें मारने लगा। सुबह से क्या दिया हैं बच्चों को ? अपनी बात क्या सोचे वह ?’’

‘‘गोपी यादव, गोपी यादव पुकारते दूसरे गाँव के पहुना आ गये हैं, गोपी का नाम है इलाके में। कुछ लगता है इस नाम को लेने से पहले।

‘‘ठीक है बेटी मैं बुला लूँगी तुम लोगों को।’’ उसने बेटी को बाहर भेज दिया।

कका, काकी, भइया, तीनों को छक कर खिला दिया परलोकिन ने। सारी व्यवस्था हो गई। गरम-गरम दार-भात, साग, अथान पताल की चटनी, परम तृप्ति से खाया उन्होंने। जाते-जाते कहते गये वे - ‘‘गोपी यादव सारी व्यवस्था करके रखते हैं। नोनी तो साक्षात् अन्नपूर्णा है। ऐसा भोजन हमने आज तक नहीं किया था। इतना प्यार, इतनी सघढ़ता। ठकुराइन दाई की भरपूर देनी है इस परिवार पर।’’

‘‘भरपूर बढ़े बेटी, तेरा यश ! तेरी चूरी अमर रहे!’’ परलोकिन को गले लगाकर काकी ने आशीर्वाद दिया।

पहुना चले गये।

चूल्हे में राख हुआ उसके सुहाग का पीढ़ा चमक रहा था उजला-उजला।


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