स्त्री धन
स्त्री धन
वृद्ध आश्रम की खिड़की में खड़ी गीता देवी की आंखें बाहर के घोर अंधेरे में अपने लिए रोशनी की किरण ढूंढ रही थी। जितना अंधेरा बाहर था उससे अधिक उसके मन में।
उसके बच्चे अपने अपने परिवार के साथ विदेश जाकर सेटल हो चुके थे। और पति अपनी नई पत्नी के साथ दूसरे शहर में। लंबे केस मुकदमे के बाद उसके आर्मी अफसर पति ने उस से तलाक ले लिया था। पीहर में माता पिता थे नहीं। भाई भाभी ने इसे अतिरिक्त भार और खर्चा समझ मुँह मोड़ लिया तो गीता देवी दुनिया की भीड़ में अकेली रह गई। आज वह खिड़की में खड़े इन्हीं सब को याद करते हुए खोई थी अपने अतीत की पगडंडियों में। जिसमें उसका भरपूर परिवार था, बच्चे थे। जिनकी जिंदगी संवारते संवारते वह अपनी ज़िंदगी भूल गई थी।
सोचते सोचते उसका हाथ अपने कान पर गया तो उसे अपने स्त्रीधन का ख्याल आया और उम्मीद की एक हल्की सी आभा उसके चेहरे पर आई। मन में आशा की किरण जगी। मस्तिष्क में सुगबुगाहट हुई। लेकिन फिर सोचा, इस सब से कितने दिन काम चलेगा जिंदगी की गाड़ी को लम्बा चलाने के लिए उसे खुद कुछ काम करना पड़ेगा। स्वावलंबी बनना पड़ेगा। बचपन से ही स्वाभिमानी थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह किसी पर बोझ नहीं बनेगी। उसे याद आया कि लोग कहते थे कि - पिता की लाडली बेटी कैसे फर्राटे मारते कार चलाती फिरती थी। कई बार लोग उसके पिता को शिकायत करने आ जाते थे कि समझाइए अपनी बेटी को गाड़ी धीरे चलाएं। इसी तरह उधेड़बुन में पड़े आशा निराशा की पहाड़ियां चढ़ते उतरते उसे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया उसे मालूम नहीं चला। अगले दिन उसने अपने सारे गहने बेचकर एक ऑटो खरीद लिया।
