जिंदा लाश
जिंदा लाश
बद्रीलाल बहुत परेशान और गमगीन था । जन्म - जन्मांतर का साथ देने का वादा करके जिंदगी में आने वाली पत्नी साथ छोड़ कर इह लोक से परलोक जा चुकी थी । बद्री लाल तन्हा रह गया था , पीछे दुनिया के भंवर मैं पीसने और खटने । पत्नी की जुदाई के गम के साथ वह दुखी और हताश था सरकारी व्यवस्थाओं से, और बेबस था अपनी मजबूरियों से । समझ नहीं पा रहा था की पत्नी की मौत का मातम मनाया जाए या प्रशासन की संवेदनाओं पर आंसू बहाए जाए । उसे पत्नी को गांव ले जाना था लेकिन अस्पताल में ना एंबुलेंस थी ना ही कोई और व्यवस्था करने के लिए उसके पास पैसा था । सुबह से शाम और शाम से सुबह हो गई । पत्नी का शव गंदे मटमैले कफन से ढका मुर्दाघर की जमीन पर पड़ा अपनी दुर्गति पर आंसू बहा रहा था । आसपास घूमते चूहे जैसे उसे अपना भोजन बनाने के लिए मौके का इंतजार कर रहे थे। मानवीय शरीर की ऐसी बेकद्री देख ऊंची - ऊंची बिल्डिंगों के सर शर्म से झुक गए । सायं - सायं चलती हवाएं भी जैसे शोक गीत गा रही थी । बद्री लाल बेचैनी से इधर-उधर चहल कदमी रहा था। अपनी मजबूरी पर उसका मन रो रहा था । अपने ही पैरों पर अपनी मजबूरी की लाश ढोते ढोते वह मानो पत्थर बन चुका था । अचानक उसका चेहरा कठोर और मुठियाँ भिंच गई । उसने मन ही मन कुछ निश्चय किया। अगले ही पल एक लाश दूसरी लाश के कंधे पर थी और दोनों गाँव की औऱ चल पड़े।