सोचता हूँ कह दूँ

सोचता हूँ कह दूँ

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रात को तुम्हें गुड़ निनी

बोल के सुलाना 

बिना किसी इन्तजार के सुबह

तुम्हारा गुड मॉर्निंग आना 


घर पहुंचने से पहले मोबाइल

घर पहुंच गए लिखा होना

और फिर तुम्हारा गाड़ी

धीमी चलाना कहना,


सोचता हूँ कह दूँ, 

क्या ? नहीं पता ?

अच्छा तुम नहीं दिखते

तो थोड़ी बेचैनी रहती है,


लेकिन दिल मैं भरोसा

रहता है कि तुम हो,

तुम जरा सा ओझल क्या होती हो

मेरी आँखों से लगता है

रौशनी सी चली गयी है,


जब तुम मेरे मैसेज का

रिप्लाई नहीं करती हो

तो इन्तजार रहता है कि कब यह

नीला होगा की कब तुम टाइप करोगी। 

 

और ये तुम हर वक़्त चुप चुपके जो

मुझे देखती हो,

मैं यह सब जानता हूँ 

लेकिन क्या करूँ


तुम्हारे इन इशारों को

समझता हूँ मगर,

खुद भी कहने से डरता हूँ।


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