मुझ पर भरोसा है ना
मुझ पर भरोसा है ना


रात के 10 बजे चुके थे पंकज घर जाने के लिए बस स्टैंड पर बस का इंतजार कर रहा था, खाली पड़े बस स्टैंड पर बैठा पंकज कल दफ्तर में क्या क्या करना है बस यही सोच रहा था, अचानक उसकी नजर सड़क के उस पर के बस स्टैंड गयी, वहां दो लोग थे शायद वो भी घर जाने के लिए आखिरी बस का इंतजार कर रहे थे, दोनों एक साथ एक दूसरे का हाथ पकड़े देख पंकज किन्ही और ही ख्यालों में खो गया, जहाँ शायद कभी वो लौट कर नहीं जाना चाहता था, वो उस रात वही पहुँच गया, जहां वो चार साल पहले एक रोज़ वो भी इसी तरह दिव्या का हाथ पकड़े बैठा था, दिव्या के हाथ में गुलाब था,
दिव्या बार बार गुलाब पंकज के गालों से से लगा कर मुँह बनाने लगती, तभी पंकज उसका हाथ पकड़ कर उसे समझाता...
पंकज- मुझ पर भरोसा है ना...
दिव्या- बहुत सारा
पंकज- बस मैं अपने घर में बात कर लूँगा और तुम्हारे भी तुम चिंता मत करो।
(पंकज को नहीं पता था कि दिव्या के साथ ये उसकी आखिरी मुलाकात होगी)
दिव्या- मुझे पता है बेबी पर मैं कल घर जा रही हूँ,
पंकज- लौट के आओगी न
दिव्या- हाँ बेबी तुम्हारे बिना रह पाउंगी मैं।
(दिव्या की यही बात पंकज को उसकी ओर खींचती थी लेकिन वो कहाँ जान पा रहा था, कि आखिरी लम्हे ही है जो वो दिव्या के साथ बिता रहा है, पंकज दिव्या के कंधे पर सर रख कर...
पंकज- दिव्या बेबी I love U , i can't live without u.
दिव्या- love u 2 , i also bachha.
और कुछ देर में बस आ जाती दोनों बस में बैठ कर घर निकल जाते है, बस में बैठ कर पंकज दिव्या से पूछता है कि उसका रोज़ कहाँ है, जो शायद वो बस स्टैंड पर भूल गई थी या यूं कहो छोड़ गयी थी।
दिव्या ने उसे sorry कह कर बात को खत्म कर दिया था और पंकज ने भी उस पर ध्यान नहीं दिया।
और फिर एक रात वो हुआ जिसका अन्दाज़ा शायद पंकज को कभी नहीं था, ठीक 3 दिन बाद दिव्या पंकज को कॉल करती है।
दिव्या- कैसे हो
पंकज -कैसे हो सकता हूँ तुम्हारे बिना, कब आ रही हो
दिव्या चुप चुप रही पंकज ने फिर से पूछा...
पंकज- बेबी कब वापिस आओगी,
दिव्या- पंकज listen मेरी शादी पक्की हो गयी, और अब बहुत देर हो चुकी है, आज मेरी सगाई थी और 4 दिन के बाद शादी।
पंकज वहीं चुप हो गया, कहने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे, पहली बार दिव्या ने उसे उसके नाम से बुलाया तभी वो सहम गया था। बाद कि बात उससे कानों में जाने के बाद कहाँ कहाँ चोट की नहीं पता, लेकिन उस रात जो हुआ उसकी उम्मीद पंकज ने शायद नहीं कि थी, वो गुलाब का भूलना वो पंकज की सीरियस बातों को मज़ाक में लेना सब एक झटके में बिखरा नहीं चकनाचूर हो गया था। उस पूरी रात अकेले पंकज के आंसूओं की धार उस बंद कमरे में अपने रास्ते बनाते हुए बह रहे थे, और खुद पंकज उन आँसू के सहारे खुद के अंदर दबे दर्द को बाहर निकाल रहा था।
अक्सर जब हम अकेले पड़ते है तो ये आँसू ही हमारा सहारा बनते है, जो खुद बहने के साथ हमारे अंदर के दर्द को बाहर निकालते है और शायद तभी पंकज भी वही कर रहा था।
तभी बस के हॉर्न और कंडक्टर की आवाज़ ने पंकज का ध्यान तोड़ा, अपने आँसू पोंछते हुए पंकज खिड़की की सीट लेकर बैठ गया और और उस वक़्त दोबारा पंकज ने उस बस स्टैंड की तरफ दोबारा नहीं देखा और बस में बैठ कर घर चला गया।
जाने अनजाने में हमारी तक़दीर कुछ ऐसी तस्वीर दिखा देती,
जिसकी कल्पना हम आज में नहीं करते हैं।
बस इतनी सी थी कहानी.....