संत एकनाथ
संत एकनाथ
मैंने सुना है, एक व्यक्ति नास्तिक था। उससे गांव परेशान था। सब समझा-समझा कर हार गए। पंडितों ने बड़े तर्क दिए, लेकिन तर्कों के वह खंडन कर देता था। सभी तर्क खंडित हो सकते हैं। ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो खंडित न हो सके। अगर तुमसे न होता हो तो उसका इतना ही मतलब है कि तुम्हें थोड़े और तर्कवान होने की जरूरत है; और कुछ मामला नहीं है। आज तक पृथ्वी पर ऐसा कोई भी तर्क नहीं है जो खंडित न किया जा सके। तो पंडितों ने तर्क दिए, समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नास्तिक युवक सब तर्क खंडित कर देता। कोई उपाय न रहा, तो उन्होंने कहा, तू एक काम कर। अब एक ही आदमी बचा है। शायद वह तुझे कुछ सहारा दे सके। तू संत एकनाथ के पास चला जा।
वह युवक गया। सोचा उसने कि शायद वहां मेरे तर्कों को शांति मिल जाए। जाकर देखा तो एक शिव के मंदिर में एकनाथ सो रहे हैं। पैर उन्होंने शिव की पिंडी पर टिका रखे हैं। यह नास्तिक भी थोड़ा घबड़ाया। इसने कहा, नास्तिक मैं कितना ही होऊं, लेकिन पैर तो मैं भी शिव की प्रतिमा पर टिकाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। यह तो आदमी महानास्तिक है। मैं तो अभी टटोल ही रहा हूं, यह तो सिद्ध नास्तिक है। और इसके पास भेज दिया! वह भी घबड़ाया। पर बैठा; कि अब आ गए हैं इतनी यात्रा करके तो इससे कुछ ज्ञान लेकर जाएं; लेकिन इससे कुछ आशा नहीं है अब। कोई नौ बजे एकनाथ ने आंख खोली, तो उस युवक ने उठाया संदेह पहला कि आप साधु पुरुष हैं; शास्त्रों में कहा है, साधु पुरुष ब्रह्म मुहूर्त में उठता है; और आप नौ बजे तक सो रहे हैं! और यह तो कभी किसी जगह सुना भी नहीं गया कि साधु पुरुष, परमात्मा की प्रतिमा पर और पैर टेक कर सोता है।
एकनाथ ने कहा, सब जगह पैर टेक कर देखे, सब जगह परमात्मा पाया। तो यह तो फिर बात ही न रही कि कहां पैर टेको; क्योंकि परमात्मा सभी जगह पाया। फिर तो सवाल यह रहा कि जहां पैर को सुविधा मिले वहीं टेको; क्योंकि परमात्मा तो सभी जगह है। इस पिंडी पर बड़ी सुविधा है; ठंडी भी है, शीतल भी है और सहारा भी है। कभी-कभी सिर भी टेकते हैं; ऐसा नहीं कि पैर ही टेकते हैं। जैसी सुविधा होती है।
उस युवक ने कहा, और ब्रह्म मुहूर्त?
तो एकनाथ ने कहा कि जब भीतर का ब्रह्म आंख खोलता है वही ब्रह्म मुहूर्त। हम किसी और नियम को नहीं मानते। हम तो ब्रह्म को ही मानते हैं; वही भीतर है, वही बाहर है। जब आंख बंद हो गईं तब सो गए; जब आंख खुल गईं तब जग गए।
झेन फकीर एकनाथ से राजी हो जाते। झेन फकीर कहते थे, जब नींद खुल गई तब जग गए; जब नींद लग गई तब सो गए। और कोई नियम नहीं है। क्योंकि जिसने भी नियम थोपा ऊपर से, वह तो परमात्मा पर मनुष्य के नियम थोप रहा है।
परम संन्यासी तो अनुशासन-मुक्त होता है। प्रारंभ में नियम बनाने पड़ते हैं, क्योंकि तुम अभी परम संन्यासी होने के योग्य नहीं। जिस दिन योग्यता परम हो जाती है, उस दिन कोई नियम नहीं रह जाता। परम संन्यासी तो अमर्याद होता है; उसकी कोई मर्यादा नहीं होती। क्योंकि परम संन्यासी का मतलब यह कि अब परमात्मा पर ही सब छोड़ दिया। तो अब वही जाने अनुशासन भी। अब हम कौन रहे बीच में अनुशासन देने को? वही उठना नहीं चाहता हो तो सोए।
युवक को बड़ी हैरानी हुई। इस आदमी से तो विवाद करना मुश्किल है। यह तो हाथ के बाहर है। पर यह आदमी बड़ा प्यारा लगा। इस आदमी में बड़ी मिठास लगी। इसके चारों तरफ की हवा में कुछ धुन मालूम पड़ी। कुछ बजता है, कुछ किसी और लोक की घंटियां गूंजती हैं। यह आदमी देखने जैसा है। इसका सौंदर्य अप्रतिम है, अलौकिक है। यह इस पृथ्वी पर चलता है, लेकिन कहीं और से है; कहीं और का है; किसी और लोक का है। संदेह अभी भी मिटा नहीं कि परमात्मा के ऊपर पैर रख कर सोया है और कहता है कि जब परमात्मा की नींद खुली तब उठे; वही ब्रह्ममुहूर्त है।
एकनाथ गए, भीख मांग कर लाए, उन्होंने बाटियां बनाईं। वे जब बाटियां बना कर तैयार ही थे और घी में डुबाने ही वाले थे, तभी एक कुत्ता आया और एक बाटी ले भागा। तो एकनाथ उसके पीछे भागे। वह युवक भी पीछे-पीछे भागा कि हद हो गई! इतना बड़ा साधुपुरुष! अब कुत्ता एक बाटी ले गया तो उसके पीछे इतनी भागदौड़ मचाने की क्या जरूरत? दो मील तक एकनाथ भागे। तो वह युवक भी भागा। थक गया, लेकिन उसने कहा, देखना जरूरी है कि यह आदमी अब करता क्या है! कुत्ते को मार डालेगा, या क्या करेगा? शक तो पहले ही हुआ था, उसने सोचा, कि परमात्मा की प्रतिमा पर पैर रख कर सोया है। यह आदमी खतरनाक मालूम होता है। या पागल भी हो सकता है।
लेकिन जब एकनाथ ने कुत्ते को पकड़ ही लिया तो कुत्ते से कहा, देख, हजार दफे तुझसे कह दिया राम कि जब तक हम घी में न डुबा लें बाटी, तब तक मत उठाया कर! जब हम नहीं खाते बिना घी में डूबी, तुझे कैसे खाने देंगे? वही राम भीतर, वही राम तुझमें।
कुत्ते को पकड़ कर कान से बाटी समेत वे वापस ले आए। उसकी बाटी डुबाई घी में, उसके मुंह में दी और कहा, कल से याद रख! भाग लेकर जब भागना हो, बाकी जब हम घी में डुबा लें तब; पहले नहीं।
अब यह एक व्यक्ति है, जिसके लिए परमात्मा सिद्धांत नहीं हो सकता। यह कोई परमात्मा एक प्रत्यय नहीं है, कोई दर्शनशास्त्र की निष्पत्ति नहीं है। यह इसके चारों तरफ जीवन का जो फैलाव है, उसी का नाम है। उसमें कुत्ता भी सम्मिलित है। उसमें वृक्ष, चट्टानें भी सम्मिलित हैं। उसमें समस्त समा गया है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, समष्टि है।
और वह सब है इसीलिए समर्थ है। अगर वह कुछ होता तो समर्थ नहीं हो सकता था। कुछ की तो सीमा हो जाती है। कुछ की तो सीमा हुई, सीमा में असामर्थ्य आया। तुम परमात्मा की स्मृति और स्मृतियों के साथ जोड़ नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि हमारे मन में एक फेहरिस्त है। मकान बनाएंगे, दुकान में कमाएंगे, धन जमा करेंगे, यश पाएंगे, परमात्मा भी पाएंगे। ऐसी और भी बहुत सी चीजें हैं, उनमें एक परमात्मा भी है।
अगर तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी और बहुत सी आकांक्षाओं में एक आकांक्षा है, तो परमात्मा से तुम्हारा अभी कोई भी संबंध और रस नहीं जुड़ा। जब तुम्हारी सारी आकांक्षाएं ही परमात्मा में गिर जाती हैं, जैसे सभी नदियां सागर में गिर जाती हैं; जब एक आकांक्षा ही बचती है, तभी-तभी उसकी धुन बजती है, उसके पहले नहीं। तुमने अगर परमात्मा को बहुत आकांक्षाओं में एक आकांक्षा की तरह माना है, तो बेहतर है कि तुम उसे मानो ही मत। कम से कम ईमानदार तो रहो। क्योंकि वह मान्यता झूठ होगी। जब तुम्हारी सभी आकांक्षाएं संयुक्त हो जाएं उसी में, जब वही एकमात्र आकांक्षा हो, तभी वह सत्य हो सकता है।