संन्यासी का चित्त
संन्यासी का चित्त
जापान में एक राजा हुआ। उस राजा के गांव के बाहर ही एक संन्यासी बहुत दिन तक रहता था। वह एक झाड़ के नीचे पड़ा रहता। अदभुत संन्यासी था। बड़ी उसकी गौरव-गरिमा थी। बड़ी उसकी ज्योति थी। बड़ा उसका प्रकाश था। बड़ी उसके जीवन में सुगंध थी। वह राजा भी उस आकर्षण से खिंचा हुआ धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा। उसने उसे अनेक दिन वहां पड़े देखा। अनेक बार उसके चरणों में जाकर बैठा। उसका प्रभाव उस पर घना होता गया। और एक दिन उसने उससे कहा, 'क्या अच्छा न हो कि इस झाड़ को छोड़ दें और मेरे साथ महल में चलें!' उस संन्यासी ने कहा, 'जैसा मन, चाहें वहीं चल सकते हैं।'
राजा थोड़ा हैरान हुआ। इतने दिन के आदर को थोड़ा धक्का लगा। उसने सोचा था, संन्यासी कहेगा, 'महल! हम संन्यासी, हम महल में क्या करेंगे!' संन्यासी की बंधी भाषा यही है। अगर संन्यास सीखा हुआ हो, तो यही उत्तर आएगा कि हम संन्यासी, हमको महल से क्या मतलब! हम लात मार चुके। लेकिन उस संन्यासी ने कहा, 'जैसा मन, वहीं चल सकते हैं।'
राजा को धक्का लगा। सोचा, संन्यासी कैसे हैं! लेकिन खुद आमंत्रण दिया था, इसलिए वापस भी न ले सके। संन्यासी को ले जाना पड़ा। संन्यासी गया। राजा ने उसके लिए सारी व्यवस्था की, अपने ही जैसी। संन्यासी मौज से उसमें रहने भी लगा। उसके लिए बड़े तख्त बिछाए गए, उन पर वह सोया। बड़े कालीन बिछाए गए, उन पर वह चला। बड़े सुस्वादु भोजन दिए गए, उनको उसने किया। राजा का तो संदेह न रहा, निश्चित हो गया। राजा को लगा, यह कैसा संन्यासी है! एक बार भी इसने न कहा कि इन गद्दों पर हम न सो सकेंगे; हम तो फट्टों पर ही सोते हैं। एक बार भी इसने न कहा कि इतनी ऊंची चीजें हम न खा सकेंगे; हम तो रूखा-सूखा खाते हैं। राजा को बड़ा मुश्किल पड़ने लगा उसका रहना।
दो-चार-दस दिन ही बीते कि उसने उससे कहा कि 'क्षमा करें, मन में मेरे एक संदेह होता है।' उस संन्यासी ने कहा, 'अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था।' उस संन्यासी ने कहा, 'अब क्या होता है, वह उसी दिन हो गया था। फिर भी कहें, क्या संदेह है?' राजा ने कहा, 'संदेह यह होता है कि आप कैसे संन्यासी हैं? और मुझ संसारी में और आप संन्यासी में फर्क क्या है?'
उस संन्यासी ने कहा, 'अगर फर्क देखना है, तो मेरे साथ गांव के बाहर चलें।'
राजा ने कहा, 'मैं तो जानना ही चाहता हूं। संदेह से मन बड़ा व्यथित है, मेरी नींद तक खराब हो गई है। आप झाड़ के नीचे थे, तो अच्छा था, मेरे मन में आदर था। और आप यहां महल में हैं, तो मेरा तो आदर चला गया।'
वह संन्यासी राजा को लेकर गांव के बाहर गया। जब नदी पार हुई, जो कि सीमा थी गांव की, वे उस तरफ हुए, तो उस राजा ने कहा, 'अब बोलें।' उस संन्यासी ने कहा, 'और थोड़ा आगे चलें।' धूप बढ़ने लगी। दोपहर हो गई। सूरज ऊपर आ गया। उस राजा ने कहा, 'अब तो बता दें! अब तो बहुत आगे निकल आए।' संन्यासी ने कहा, 'यही बताना है कि अब हम पीछे लौटने को नहीं, आगे ही जाते हैं। तुम साथ चलते हो?' उस राजा ने कहा, 'मैं कैसे जा सकता हूं! पीछे मेरा परिवार है, मेरी पत्नी है, मेरा राज्य है!' संन्यासी ने कहा, 'अगर फर्क दिखे, तो देख लेना। हम आगे जाते हैं और पीछे हमारा कुछ भी नहीं है। और जब हम उस तुम्हारे महल में थे, तब भी हम तुम्हारे महल में थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। हम तुम्हारे महल के भीतर थे, लेकिन तुम्हारा महल हमारे भीतर नहीं था। इसलिए हम अब जाते हैं।'
उस राजा ने पैर पकड़ लिए। उसका भ्रम टूटा। उसका संदेह मिटा। उसने कहा, 'क्षमा करें, मुझे बहुत पश्चात्ताप होगा जीवनभर, लौट चलें।' संन्यासी ने कहा, 'अब भी लौट चलूं, लेकिन संदेह फिर आ जाएगा।' उस संन्यासी ने कहा, 'हमको क्या है, इधर न गए, इधर लौट चले। फिर लौट चलूं, लेकिन तुम्हारा संदेह फिर लौट आएगा। तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं।' उसने जो वचन कहा, स्मरणीय है। उसने कहा, 'तुम पर कृपा करके अब मैं सीधा ही जाता हूं। मेरी करुणा कहती है कि अब मुझे सीधा जाने दें।'
और मैं आपको स्मरण दिलाता हूं कि महावीर के नग्न होने में उनके नग्न होने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और संन्यासी का जंगल में पड़े रहने में, जो सच में संन्यासी है, उसका जंगल से मोह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। और नग्न द्वार-द्वार भिक्षा मांगने में भिक्षा मांगने का आग्रह कम है, आप पर करुणा ज्यादा है। अन्यथा वह बिना भिक्षा मांगे आपके घर भी ले सकता है। और बाहर सड़क पर पड़े रहने की बजाय महल में भी सो सकता है। संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। हां, झूठे संन्यासी को पड़ता होगा।
संन्यासी को कोई भेद नहीं पड़ता है। भेद इसलिए नहीं पड़ता है कि उसके चित्त में कुछ प्रविष्ट नहीं होता है। चीजें अपनी जगह हैं, महल की दीवारें अपनी जगह हैं, गद्दियां जिन पर हम बैठे हैं, वे अपनी जगह हैं। वे अगर मेरे चित्त में प्रवेश न करें, तो मैं उनसे अछूता हूं और दूर हूं।