समानुभूति
समानुभूति




कल सब्जी में मिर्च बहुत तेज कर दी थी, बहुत काम ले लिए हैं इस विमला ने, जल्दी-जल्दी में इतना ध्यान नहीं रहता क्या ? आने दो आज तो हिसाब कर ही ही दूंगी। यह सब सोचते हुए मै सोफे पर बैठ गई ,जैसे ही बेल बजी मैंने दनदनाते हुए दरवाजा खोला, सामने विमला खड़ी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ देख मैंने चुप्पी साध ली। क्या बनाना है भाभी जी उसने धीमे स्वर में पूछा। सात रोटी बना दो सब्जी में बना लूंगी।
अपना काम निपटा कर विमला बोली भाभी मैं सुबह 5:00 बजे आती हूं रात के 9:00 बज जाते हैं, 15 घरों में खाना बनाती हूं कभी कभी किसी के घर काम नहीं रहता तो अगले घर जल्दी चली जाती हूं। पर देखो ना भाभी जी कोई अपने समय से पहले काम नहीं करवाता कभी-कभी तो दो-दो घंटे सोसायटी के ग्राउंड में बैठना पड़ता है वह अनवरत बोले जा रही थी। मैं बाई हूं तो क्या इंसान नहीं हूं मेरा मन होता है किसी दिन घर जल्दी पहुंचकर अपने 5 वर्ष के बच्चे और बीमार मां को समय दे पाऊं क्या मैं बाई हूं तो मेरा कुछ भी नहीं.।
मैं सबको समय पर काम करके देती हूं लेकिन कभी मेरी भी समस्या होती है उसे कोई तो समझे। उसके शब्दों ने मुझे झकझोर कर रख दिया मेरी अंतरात्मा मुझे अंदर ही अंदर कचोटने लगी। क्या हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि अपने मतलब के आगे संवेदना, भावना, मनुष्यता इन सबको ताक पर रख दिया है। क्या हुआ अगर किसी दिन झाड़ू पोछा 9:00 बजे से पहले हो गया। क्या हुआ अगर किसी दिन खाना 1 घंटे पहले बन गया। शायद भागदौड़ के युग में हम सहयोग भूल रहे हैं सिर्फ स्वार्थ याद रहता है।