baljeet kaur "sabre"

Romance

4.5  

baljeet kaur "sabre"

Romance

शुभकामनाएं

शुभकामनाएं

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समय गुजरता जाता है..बरस पर बरस बीत जाते हैं.. जो रिश्ते जीवन में अचानक बंधे होते हैं उन रिश्तों से दूर हो जाने के बाद भी उनकी यादें मन के किसी कोने में सदा बसी होती हैं ! ऐसी ही अपनी रौ में मचलती-भागती विभाष की जिंदगी में आज कुछ लम्हे ठहर से गए जब उसका सामना सौम्या से हुआ..!अपने दोस्त के गृहप्रवेश की पूजा में शामिल होने आए विभाष को प्रसाद ग्रहण करते ही लगा जैसे वह इस स्वाद से परिचित है.. मन में व्याकुलता सी लगी... तभी कानों को भी मधुर आत्मिक से स्वर ने झंझोर दिया ..ओह..यह तो सौम्या है अंतर्मन ने गवाही दी.. हां यहां सौम्या है उसकी मासूम, भोली सौम्या..! कार्यक्रम की समाप्ति पश्चात जब सारे मेहमान जाने लगे..विभाष की बेचैन नजरों ने सौम्या को ढूंढ ही लिया..!

"रुको सौम्या मैं विभाष.."

"विभाष तुम यहां..?"विभाष को देखते ही सौम्या ने चहककर पूछा..!

हां सौम्या ..और आप कैसी हैं ..?

" मैं अच्छी हूं विभाष "

"कैसे हो विभाष ..?और परिवार..!

सब बेहतर है सौम्या .. अपनी सुनाओ..

 आपको देखकर लगता ही नहीं कि आप में कुछ बदलाव आया है इतने बरसों बाद भी वही चंचलता आंखों में.. वही मधुरता आवाज़ में..!

"सच.."  सौम्या विभाष की बात सुनते ही खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर कहा

"अच्छा विभाष मुझे देर हो रही है घर पहुंचना है तुम यहीं ठहरे हो ना..? फिर मुलाकात होगी.."

 विभाष बहुत कुछ कहना चाहता था सुनना चाहता था उसने तुरंत अपना मोबाइल नंबर सौम्या को देकर कहा"सौम्या ये मेरा मोबाइल नंबर है आप इस नंबर पर मुझसे बात कर सकती हो!"

"हां क्यों नहीं..! "और विभाष से मोबाइल नंबर लेकर सौम्या चली गई..! 

विभाष की बेचैनी बढ़ती जा रही थीसौम्या को लेकर वह बहुत कुछ जानना चाहता था. शाम के गहराते अंधकार के साथ जब रात आई .. सौम्या के फोन के इंतजार में गुजर गई! अगले दिन सुबह भी विभाष इंतजार करता रहा कि सौम्या से बात हो जाए.. लेकिन सौम्या का कोई मैसेज नहीं आया..

मन की प्रार्थना किसी ना किसी रूप में स्वीकृत हो ही जाती हैं..कल की पूजा की चर्चा करते हुए विभाष के दोस्त ने ही सौम्या का जिक्र छेड़ दिया..

" तुम सौम्या को जानते हो विभाष ..?

" हां यूं ही थोड़ी पुरानी पहचान है" विभाष ने कहा ।

 "सौम्या एक बहुत ही सुलझी हुई समझदार महिला है उसके सहयोग से आस - पड़ोस में पूजा और बहुत से पारिवारिक कार्यक्रमअच्छी तरह संपन्न हो जाते हैं..! उसके मृदु व्यवहार ने हमारे आस -पड़ोस में मधुरता बना रखी है! विभाष को सौम्या के विषय में सुनना अच्छा लग रहा था वह और भी बहुत कुछ जानना चाहता था।

बातों ही बातों में विभाष के दोस्त ने सौम्या के विषय में बहुत कुछ बताया बड़े ही शांत मन से विभाष सबकुछ सुनता रहा सुकून मिला दिल को और खुशी भी..!अपने दोस्त से विदा लेकर विभाष वापस लौट रहा था..!

लौटते वक्त ट्रेन का ये सफ़र विभाष के मन को अतीत को ओर खिंचता ले गया..

विभाष छोटे से गांव का एक होनहार छात्र जो आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला आया था..! उसके किराए के छोटे से कमरे के सामने एक बड़ा सा घर था.. सौम्या उसी बड़े घर में रहने वाली वहां की चंचल और शरारती बिटिया थी उन्नीस बरस की सौम्या जैसे अपनी बढ़ती उम्र से अंजान थी अपने चाचा जी की दुलारी सौम्या पूरे आस-पड़ोस की रौनक थी उसकी सुंदरता उसके घने बालों से झलकती थी जो कभी बंधे हुए नहीं दिखते थे अपनी मां की नाराज़गी की उसे परवाह नहीं थी पिता उसे कुछ कहते नहीं थे..! चाचा के लाड़ प्यार ने उसे ज़िद्दी बना रखा था। पढ़ाई से कोसों दूर भागने वाली सौम्या को रसोईघर बड़ा भाता था नये-नये पकवान बनाना अपने चाचा जी को चखाकर उनसे अपनी तारिफों के पुल बंधवाना और मोहल्ले भर में चहकते रहना उसके लिए ये जरूरी कारज थे। ... और एक चीज स्थिरता नहीं भाती थी उसे आए दिन घर के फर्नीचरों की जगह बदलना .. कोई तस्वीर बहुत दिनों तक एक ही दीवार पर टिकी रहे सौम्या के रहते संभव नहीं था।

उसके चंचल मन की डोर कहीं खिंचकर सूकून में रहती तो सिर्फ नितिन के ख्वाबों में.. नितिन सौम्या के चाचा के दोस्त का छोटा भाई.. जिससे रिश्ते की बात सौम्या के चाचा ने बहुत पहले तय कर दी थी।


इधर सौम्या की मां की मधुरता ने पड़ोस में आए विभाष को अपना सा बना लिया था..आते- जाते विभाष और सौम्या की टकराहट हो जाया करती.. उसके चेहरे की गंभीरता ,आंखों की गहराई पर सौम्या जब -जब नजर डालती उस का बेफिक्र सा रहने वाला मन सहम सा जाता.. यूं सौम्या की विभाष से होने वाली साधारण सी मुलाकातें सौम्या को उलझाने लगीं थी।स्वयं अपने बदलते मन से अंजान थी सौम्या तभी...

"मेरी छुट्टियां लग रहीं हैं मां जी गांव जा रहा हूं"

"अच्छा कब लौटोगे विभाष बेटा"..?

पूरे दस दिनों के बाद आऊंगा मां जी" 

और यही वो दिन थे जिसने सौम्या को विभाष की अनुपस्थिति ने उसके मन में उपस्थिति का अहसास दिलाया.सुबह-शाम खालीपन .. उदासियों का घेराव..नितिन के ख्वाब नितिन का इंतजार जाने कहां दूर जा छिटके थे सौम्या की आंखों से..! शरारतें थम गईं थीं घर के फर्नीचर मुंह ताकते नजर आते, दीवारों पर टिकी तस्वीरें हैरान सी लगतीं.. रसोईघर सौम्या की आहट को तरसता..!माथा छूकर फिक्रमंद चाचा मुआयना करते फिरते...

होंठों पर चहकती मुस्कान की जगह आंखों में नमी कैसी..? मां घबराकर पूछती..!

दस दिन बीते विभाष आया.. बेचैनी से उभरकर सौम्या बाहर निकली .. ऐसी मुस्कुराहट उसके लबों पर पहले तो ना थी.. अनकहे अंजाने से रिश्ते की डोर में विभाष संग बंधने लगी सौम्या..

पकवानों में पकी मिठास और महकती स्नेहिल खूशबू विभाष का दिल भी धड़काने लगी। प्यार की दस्तक दिल से दिल तक पहुंच रही थी रेशम से महीन ताने बाने में विभाष उलझ ही रहा था कि..

एक दिन- मां ने कहा--" विभाष बेटा हमारी सौम्या भी तुमसे अच्छी तरह घुल -मिल गई है अब हमारी बातें तो ठीक तरह सुनतीं नहीं तुम ही समझाया करो... अगले कुछ दिनों में सगाई हो जाएगी उसकी अब बचपना छूटे उससे तो मुझे भी राहत मिले ."

"सगाई"इतनी जल्दी किससे कहां..?विभाष ने चौंककर पूछा..!

नितिन से अरे उसके चाचा जी ने बहुत पहले से ही ये रिश्ता तय कर दिया है उनके परम मित्र के भाई हैं नितिन बहुत अच्छे परिवार से है और बढ़िया नौकरी में है।सौम्या भी यह बात जानती है उसने खुद हां की है इस रिश्ते के लिए..!"

पल भर में विभाष का मन मस्तिष्क शून्य में घिर गया..

वो सबकुछ जागती आंखों से सपने बुनने की कोशिश.. मुस्कुराहटें अरमानों,अहसासों की उठती लहर थम सी गई.. जैसे सागर में उठती हुई तेज़ लहरों का शोर हो रहा हो और अंतर्मन में रूदन की खामोश दस्तक...! मां तो कहकर चली गईसच.. कड़वा सच. जो सौम्या के हाथों से बने मीठे पकवान में घुल गया..!

"क्या सौम्या मेरे जज़्बातों से खेल रही है..नहीं पर सौम्या ने कभी कुछ कहा तो नहींहां जुबां से तो नहीं कहा लेकिन उसकी आंखों की मौन भाषा तो मुझे सदा जताती है..!"

गहराती चली आ रही है शाम..और सौम्या गुलाबी सूट पर आसमानी रंग का दुपट्टा ओढ़े चहकती चली आ रही है विभाष से मिलने...

"विभाष..विभाष कहां हो तुम..?

अनमना सा उदास विभाष कश्मकश में था।"क्या हुआ है सौम्या.? तुम जाओ यहां से क्यों परेशान करने चली आती हो..? मुझे इस वक्त पढ़ना है..विभाष ने झिड़कते हुए सौम्या को कहा.."

सौम्या-"विभाष तुम इस तरह क्यों बात कर रहे हो मुझसे..?

विभाष."कुछ नहीं सौम्या बस तुम जाओ यहां से और मुझे पढ़ने दो.."

तुनक कर सौम्या वापस लौट गई।बदलने लगा सबकुछ..विभाष के व्यवहार में सौम्या के प्रति रुखापन बढ़ने लगा.. ।लाड़ प्यार से पली बढ़ी सौम्या ने कभी ऐसा उपेक्षित व्यवहार नहीं देखा था।सौम्या का चिड़चिड़ापन उभरने लगा.. रोज-रोज की फर्नीचरों उठा-पटक ..से घरवाले परेशान होने लगे दीवारों में लगी तस्वीरों की जगह परिवर्तन से उनके कांच चटकने लगे.. व्यंजनों में कभी नमक कम और कभी मिर्च तेज़ होने लगी..!सुबहों में उदासी के रंग घुलने लगे.. सुनहरी शामों की तन्हाइयां सिसकने लगीं।क्या हुआ है सौम्या को यह किस तरह का बदलाव है..? चाचा जी भी चिंतित थे..!मां .. बेटियों की मांओं को बेटी का मन पढ़ने की कला विरासत में मिली होती है शाय़द..! ममता भरे हृदय से जब मां ने सौम्या के सर पर हाथ फेरा टूट गई सौम्या

नदी के उफान को बांध रोके रखता है बांध टूटने पर पूरे आवेग से बहने लगती है नदिया.. सौम्या की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली...

"मां मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.. क्या करूं..एक पल को भी अब नितिन के ख्याल मेरे ख्यालों से नहीं टकराते..बस हर वक्त विभाष का चेहरा मेरी आंखों को सूकून देता है... मैं क्या करूं... मां.. मैं क्या करूं..?"

"बिटिया उलझन में ना पड़ो..सच को जानो..!महज आकर्षण के मोहपाश में पड़कर सच्चाई से मुंह ना मोड़ों..!"

"मां क्या कह रही हो तुम मां..?"

"ठीक ही कह रही हूं बिटिया..उम्र के ऐसे मोड़ पर इस तरह के खिंचाव महसूस होते हैं..."

"नहीं मां ये महज़ खिंचाव नहीं है मुझे विभाष के सिवाय कुछ अच्छा नहीं लगता.."

"जो भी हो सौम्या ..!सच तो तुम्हें स्वीकारना ही होगा अपने मन को तुम्हें ही समझाना होगा..!

और एक बात कहूं सौम्या अगर तुम्हें लगता है कि विभाष के प्रति तुम्हें लगाव है भी तो तुम इस लगाव को अपनी कमज़ोरी मत बनने दो.. तुम्हारे जीवन में पीड़ा का यह पदार्पण भी जरूरी था.. जीवन धरा पर हर समय फ़ूल नहीं शूल भी उगते हैंआगे चलकर यही पीड़ा तुम्हें संबल देगी।जिसके पास सखि-स्वरूपा मां हो उस व्यथित हृदय को संभलने में समय नहीं लगता..! धीरे -धीरे मन स्थिर होने लगा सौम्या का..!विभाष ने भी सच को जल्दी ही स्वीकार लिया..

"सौम्या मुझे माफ़ कर दो.. मैंने तुम्हें ग़लत समझा था.."

"नहीं विभाष माफी तो मुझे मांगनी चाहिए"

"जाने कैसी राह चल पड़ी थी मैं.."

"खैर.. छोड़ो इन सब बातों को.."

"हम दोस्त..?"

"हां दोस्त..अब तुम भी मन लगाकर पढाई करो और अपने मां -बापू जी के सपनों को पूरा करो..!"

 ज़िद्दी सौम्या अब नम्र हो चली थी खुले केश बंधने लगे थे सलीकेदार कपड़ों में सौम्या और भी निखरने लगी थीकभी मंदिर-पूजा से कोई नाता ना रखने वाली सौम्या जाने कौन-कौन से व्रत रखने लगी थी..!

" सच में सौम्या सबकी जिंदगी में एक मोड़ ऐसा आता है जहां हम खुद को दोराहे पर खड़ा पाते हैं.. हम कौन सी राह चुनते हैं इस पर ही हमारा भविष्य टिका होता है मैं खुशनसीब हूं मेरे जीवन में तुम जैसी दोस्त आई जो प्रेम की प्रतिमूर्ति है और मेरी प्रेरणा भी..!"

" सच कहूं विभाष तो तुमसे ज्यादा खुशनसीब मैं हूं तुमसे मिलने से पहले मैंने जीवन को जाना ही नहीं था .. दर्द की टीस से सदा अनभिज्ञ थी मैं..! तुम जैसा होना भी हर पुरुष के बात नहीं.. मां से जाना है मैंने... तुम्हारे संयम और समझदारी से बहुत कुछ सीखा है मैंने अब जीवन में जैसे भी मोड़ आएं आसानी से राह निकाल लूंगी मैं.."

"अच्छा."

"हां विभाष"

शाम की बहती हवाओं में दो उन्मुक्त मुस्कुराहटें तैर रहीं थीं।विभाष अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था और सौम्या भी हर तरह से निपुण होती चली गई और फिर वो दिन भी आया...सजे द्वार पर नितिन बारात लेकर पहुंचा.. खुशियों की शहनाई गूंज रही थी..।सौम्या ने महसूस किया प्रेम का सिर्फ एक ही रूप नहीं होता..! कितना निश्छल स्नेहझलकता रहा उन आंखों में और सौम्या विभाष की शुभकामनाओं के साथ विदा हुई सौम्या..!सौम्या के नवजीवन की शुरुआत कितना कोमल अहसास था उन सारे सपनों के सच हो जाने का जो सौम्या ने नितिन को लेकर अल्हड़ पन से सजा रक्खे थे नितिन की पूरी दुनिया थी सौम्या .. प्यार की सरगम ऐसी गूंजी सौम्या के जीवन में कि रम गई सौम्या नितिन के रंग में! पर बरस भर और एक ऐसा कहर बरपा जिसने सबकुछ बिखेर दिया उस वक्त सौम्या अपनी जेठानी के बेटे राहुल के साथ बाजार गई थी नितिन और बड़े भैया आफिस में थे जब रसोईघर में गैस सिलेंडर फट पड़ा और इस क्रूर हादसे में सौम्या के सास-स्वसुर और जेठानी चल बसे..! इस दुखद हादसे से नितिन और भैय्या पूरी तरह टूट गए थे। राहुल सौम्या की गोद में था.. खुशियां सारी खो गईं थीं.. सौम्या का विचलित मन मां का आंचल ढूंढने लगा.. चाचा का लाड़ प्यार उसे याद आने लगा लेकिन वो दुनिया तो अब पीछे छूट चुकी थी यहां जिम्मेदारीयां थी। सौम्या ने पलकें मूदीं दिल में कोई आहट सी हुई और वो बात याद आई जो कभी उसने विभाष से कही थी "जीवन में कैसे भी मोड़ आएं मैं आसानी से राह निकाल लूंगी..."!

ना सिर्फ उसने राहुल को अपने आंचल में संवारा बल्कि नितिन और अपने जेठ जी को भी संभाला.. और फिर जब उसकी बेटी वेदिका का जन्म हुआ तो घर पर रौनक ने फिर रूख किया।समय बीतता गया विभाष के आने से सौम्या के जीवन में जो बदलाव आया था वो हर मोड़ पर सहायक हुआ ना सिर्फ परिवार बल्कि सौम्या ने समाज में भी अपनी एक पहचान बनाई...

विभाष सौम्या के विचारों में ही डूबा हुआ था कि मोबाइल की रिंग की आवाज से उसका ध्यान टूटा..

"हैलो विभाष.... मैं सौम्या कहां हो तुम... हां तुम... तुमने कल भले ही मुझे आप कहकर सम्बोधित किया जो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा किन्तु मैं तो तुम्हें तुम ही कहूंगी क्योंकि हम एक- दूसरे की 'शुभकामनाओं" से बंधे इक प्यारे से रिश्ते की डोर में बंधे हुए हैं।"


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