शोले..... एक सोच
शोले..... एक सोच
विजय आओ.…..बैठो तुम्हारे जाने के बाद मैंने तुम्हारी बात पर बहुत सोचा।समाज की सोच को बदलने के लिए किसी एक को तो पहल करनी ही पड़ेगी।सरपंच भूरी सिंह ने विजय को बैठाते हुए....बोले।हमारे समाज में औरत को इतना सम्मान नहीं दिया जाता,उनकी जिंदगी का निर्णय कभी पिता,कभी पति,कभी बेटा तो कभी परिवार ही लेता है। वहीं औरतों को हर रिश्ते में जीना तो आता है लेकिन वह औरत है इस बात को वह भूल जाती है।तुमने जो बात रखी थी निहारिका की शादी की मुझे भी एक बार इन परंपराओं से लड़ने की हिम्मत नहीं हुई थी। लेकिन तुम्हारी बातों ने मेरी हिम्मत को फिर से लौटा दिया मुझे कोई हक नहीं बनता कि उसे बहू के तौर पर उसकी सारी खुशियों को छीन लू क्योंकि वह हमारी बहू है। उसे रीति-रिवाजों और अपने मरे हुए पति की यादों के साथ ही जीने का अधिकार है।
उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं और जीवन भर विधवा के रूप में जो एक औरत पर बार-बार कठोर वार करता है यह शब्द कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।वह एक औरत है उसे भी जीने का अधिकार है औरत के जीवन का फैसला करते हुए कोई उससे नहीं पूछता।बस पिता भी इज्जत की दुहाई देते हुए उसका कन्यादान करके पुण्य का काम कर के सोचते है कि बेटी का बहुत ही अच्छे घर में विवाह करके उस पर बहुत एहसान कर दिया है।समाज के ताने -बाने में इस तरह उलझा दिया जाता है कि वह अपना अस्तित्व को ही भूल जाती है।और उन तानों में उलझ कर चाहे वह चल नहीं पा रही हो। जीवन भर रेंगती रहती है लेकिन वह उन तानो से बाहर निकलने की ना तो कभी कोशिश करती है और ना ही कोई उसे हिम्मत देता है।बस सभी उसकी जीवन शैली का निर्धारण कर अपने तरीके से उसे चलाते रहते हैं।
लेकिन वह क्या चाहती है कोई उससे पूछता नहीं है और सोचता भी नहीं है कि उसे भी अधिकार है कि वह कैसे जीना चाहती है और इसी कशमकश में औरतें भूल ही जाती हैं वह खुद को एक बेटी,एक पत्नी,एक बहन, एक मां, एक बहू तो मानती हैं लेकिन इन सब रिश्तो से ऊपर वह एक औरत है उसे जीने की कोशिश ही नहीं। हर रिश्ते के खत्म होने के साथ वह जीने की कभी कोशिश नहीं करती तुम्हारे जाने के बाद मेरी भी सोच बदली है मैं भी यही सोचता था कि यही नियति है हमारे कर्मों का फल है।यही सोचकर कि उसे रोटी, कपड़ा तो मिल रहा है लेकिन जब तूने उसकी बात शुरू कि तो हमें लगा हम जिंदगी देना भूल गए मुझे तुम पर गर्व है समाज की सोच से लड़ने के लिए अब मैं भी तुम्हारे साथ हूं।
और निहारिका का हाथ तुम्हारे हाथ में देकर मैं उसे फिर से जीने की एक उम्मीद देने जा रहा हूं। जो शायद हमने परंपराओं -रिवाजों और समाज क्या कहेगा कि इस धार से उसके हाथों को काट दिया था फिर जीवन से जीवन का जुड़ाव हो रहा है।विजय सम्मानित नजरों से ठाकुर भूरी सिंह को देखता रहा और बोला आपने परंपराओं की जंजीरो को तोड़कर कुछ सोचने और करने की हिम्मत जुटाई है वरना बहुत -सी बहने और बेटिया की जिंदगी इस से आगे बढ़ ही नहीं पाती है लेकिन फिर भी अगर आप ने यह पहल की है तो हमें चाहिए कि हम निहारिका की भी राय ले। क्योंकि उसे भी अपने जीवन और अपने बारे में सोचने का पूरा अधिकार है। उसके बाद ही कोई फैसला हम ले सकेंगे। सही। कह रही हो बेटा ठाकुर गुरी सिंह ने लंबी सांस भरी जैसे उसके मन और आत्मा दोनों से एक बहुत भारी बोझ उतर गया हो और उन्होंने अपनी गलती सुधार ली हो जो कमी रह गई थी उसे पूरा कर लिया हो।
