chandraprabha kumar

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शिवजी का किरातेश्वरावतार

शिवजी का किरातेश्वरावतार

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    शंकर जी सभी प्रकार के दुःखों को विनष्ट करने वाले हैं,थोड़े समय में ही भक्ति से शिव प्रसन्न हो जाते हैं ; यह विचारकर महर्षि व्यास ने पांडुपुत्र अर्जुन को शिवजी की पूजा करने का उपदेश दिया। उन्होंने अर्जुन को शोभासम्पन्न इन्द्रनील पर्वत पर जाकर गंगातट पर स्थित होकर भलीभाँति तपस्या करने के लिये कहा। अर्जुन को पार्थिव पूजन के विधान का भी उपदेश दिया। 

   पाण्डव व द्रौपदी ने अर्जुन के विरह से व्याकुल होते हुए भी तपस्या के लिये उन्हें वहॉं भेज दिया। 

   कठिन पहाड़ी मार्गों से जाते हुए दृढ़ व्रत वाले अर्जुन मन में हर्षित हो उत्तम इन्द्रनील पर्वत पर चले गये। वहॉं अर्जुन गंगा के समीप अशोकवन से युक्त एक सुन्दर स्थान में एकाग्रचित्त हो तपस्या के लिये बैठ गये और पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके शिव जी का ध्यान करने लगे। 

   अर्जुन के घोर तप को देखकर स्वयं इन्द्र वहॉं आये और अर्जुन को शिवमंत्र का जाप करने के लिये कहा। और इन्द्र ने अपने अनुचरों को अर्जुन की रक्षा आदेश दिया। और अर्जुन को उपदेश दिया- "कभी भी प्रमाद मत करना। साधक को सदा धैर्य धारण करना चाहिये। रक्षक तो शिव जी हैं, वे तुम्हें फल प्रदान करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। "

   अर्जुन उत्तम भक्ति से शिव जी का ध्यान करने लगे। वे एक पैर के तलवे पर स्थित होकर विधिपूर्वक शिव के मंत्र का जप खड़े खड़े करने लगे। उनके तप का तेज बढ़ता गया। 

    दुरात्मा दुर्योधन द्वारा अर्जुन के प्रति भेजा गया मूक नामक दैत्य शूकर का रूप धारण कर वहां आया, जहां अर्जुन स्थित थे। वह पर्वत शिखरों को तोड़ते और वृक्षों को उखाड़ते हुए आया। अर्जुन ने उसको देखा तो सोचने लगे-"यह निश्चय ही मेरा अनिष्ट करने के लिये मेरी ओर आ रहा है। यह शत्रु ही है , इसमें सन्देह नहीं है। यह वैर साधने के लिये आ रहा है और दुर्योधन का कोई हितकारी मित्र है। जिसको देखने से मन में व्याकुलता उत्पन्न हो, वह निश्चय ही शत्रु होता है। जिसको देखने से मन प्रसन्न हो वह निश्चय ही हितैषी होता है। आकार , गति, चेष्टा, सम्भाषण, एवं नेत्र व मुख के विकार से मनुष्य के अन्तःकरण की बात ज्ञात हो जाती है। यह अवश्य ही मेरा शत्रु है, इसका वध कर देना चाहिये। "

   यह विचारकर अर्जुन धनुष पर बाण चढ़ाकर खड़े हो गये। इसी बीच अर्जुन की रक्षा के लिये एवं उनकी भक्ति की परीक्षा करने के लिये भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणों सहित एक भील का रूप धारण कर उस दैत्य का विनाश करने के लिये शीघ्र वहॉं आ पहुँचे। वे शिवजी कच्छ लगाये हुए, लताओं से अपने केशों को बॉंधे हुए, धनुष बाण धारण किये हुए भीलराज बने हुए थे। 

   उसी समय शूकर के गरजने की ध्वनि दसों दिशाओं में सुनाई पड़ी। और शूकर वहॉं आ पहुँचा। शिव जी भी शूकर का पीछा करते हुए आ पहुँचे। इसी समय उन दोनों ने बाण चलाया। शिवजी का बाण शूकर की पूँछ में और अर्जुन का बाण शूकर के मुख में लगा। शिवजी का बाण पूँछ में घुसकर मुख से निकलकर शीघ्र ही पृथ्वी में विलीन हो गया। अर्जुन का बाण मुख में प्रविष्ट होकर पूँछ से निकलकर पार्श्वभाग में गिर पड़ा। वह शूकररूप दैत्य उसी क्षण मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। 

   उसके बाद शिवजी ने अपना बाण लाने के लिये शीघ्र ही अपने सेवकों को वहॉं भेजा। उसी समय अर्जुन भी अपना बाण लेने के लिये वहॉं पहुँचे । तब अर्जुन ने सेवक को धमकाकर अपना बाण ले लिया। 

  तब शिवजी के गण ने कहा-" यह बाण मेरा है,आप इसे क्यों ले रहे हैं, इसे छोड़ दीजिये। "

   अर्जुन ने कहा -" यह बाण मेरा है, यह मैंने अभी चलाया है इस बाण में मेरा नाम अंकित है। "

   बाण को लेकर दोनों में वाद- विवाद हुआ, तो अर्जुन ने कहा -" तुम अपने स्वामी के पास जाओ। तुम्हारे साथ युद्ध करना मुझे शोभा नहीं देता,अतः तुम्हारे स्वामी के साथ युद्ध करूँगा, तुम्हारे स्वामी को ही मैं इसका फल दिखाऊँगा ।"

  भीलस्वरूपी शिवजी के पास जाकर गण ने सब निवेदन किया। भीलरूपधारी किरातेश्वर शिवजी अपनी सेना के साथ वहॉं आये। शिवजी ने बाण मॉंगने के लिये पुनः दूत भेजा,पर अर्जुन ने अपना बाण नहीं दिया। 

     युद्ध के लिये आये किरातरूप भीलराज शिवजी के साथ अर्जुन का भयंकर युद्ध हुआ। शिवजी ने अर्जुन के समस्त अस्त्र- शस्त्रों को काट डाला, और कवच को छिन्न- भिन्न कर दिया। तब धैर्यशाली अर्जुन ने शिवजी का स्मरण कर मल्लयुद्ध किया। तभी अर्जुन ने शिवजी का स्मरण करते हुए बल प्राप्तकर भील के दोनों चरण पकड़ आकाश में घुमाना चाहा, तभी भक्तवत्सल भगवान् शिव हँस पड़े। 

   शिवजी अपना सुन्दर अद्भुत रूप धारण कर अर्जुन के सामने प्रकट हुए। अर्जुन जिस रूप का ध्यान करते थे, वही अपने सामने प्रत्यक्ष प्रकट देखकर वे अत्यन्त लज्जित और विस्मित हो उठे। और मन में कहने लगे-"अहो! ये तो परम कल्याणकारी वे शिव जी ही हैं, जो साक्षात् ईश्वर हैं। इनके द्वारा मैं छला गया हूँ। "

  अर्जुन पश्चात्ताप करने लगे और शिवजी के चरणों में गिर पड़े। और कहा-" मुझे क्षमा कीजिये। "

  भक्तवत्सल शिव जी ने अर्जुन से कहा-" पार्थ ! तुम खेद मत करो। तुम मेरे प्रिय भक्त हो। तुम्हारी परीक्षा के लिये मैंने यह सारी लीला की थी। शोक का परित्याग कर दो।मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम वर मॉंगो।"

     शंकर जी के यह कहने पर अर्जुन ने शिव जी की वेदसम्मत सद्भक्तियुक्त स्त्तुति की-" अरुणाभ चरणों वाले आपको नमस्कार है। पिनाक नामक धनुष एवं श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करने वाले आपको नमस्कार है। व्याघ्र चर्म का उत्तरीय तथा गजचर्म का वस्त्र धारण करने वाले आपको नमस्कार है। वामभाग में गौरी को धारण करने वाले आपको नमस्कार है। शुद्ध स्फटिक और शुद्ध कर्पूर के समान उज्ज्वल गौरवर्ण वाले आपको नमस्कार है। हे महेश ! मैं आपका सेवक हूँ, मुझ पर कृपा कीजिये। "

  अर्जुन द्वारा की हुई स्तुति सुनकर शिवजी प्रसन्न हुए और वर मांगने के कहा। 

अर्जुन ने कहा-" आपके दर्शन से शत्रुओं से उत्पन्न जो मेरा संकट था, वह दूर हो गया। अब जिस प्रकार मैं लोक में सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करूँ, वह उपाय कीजिये। " ऐसा कहकर हाथ जोड़कर नमस्कार कर अर्जुन शिव जी के सन्निकट स्थित हो गये। 

    अर्जुन को अपना परम भक्त जानकर शिवजी सन्तुष्ट हुए। उन्होंने प्रसन्न होकर सर्वदा दुर्जेय अपना पाशुपत अस्त्र अर्जुन को प्रदान किया और कहा-" तुम इस अस्त्र की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे। और अपने भ्राता युधिष्ठिर के साथ धर्मांचरण करते रहो। "

  शिवजी ने अर्जुन के सिर पर अपना हाथ रखा और उससे पूजित होकर तत्काल अन्तर्धान हो गये। अर्जुन भी श्रेष्ठ पाशुपत अस्त्र प्राप्तकर शिव जी का स्मरण करते हुए इनने आश्रम को चले गये। उनको देखकर युधिष्ठिर आदि सभी भाई और द्रौपदी को प्रसन्नता प्राप्त हुई। अपने वनवास की अवधि समाप्त जानकर उन्होंने यह समझ लिया कि अब अवश्य ही हमलोगों की विजय होगी ।


      


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