सदावर्त
सदावर्त


"तुम बाज़ार सब्जी लेने जाते हो या खुद को महान साबित करने, एक बार पूछते भी नहीं। लोगों ने पांडेय जी, पांडेय जी कहा तो लुटाया पांडेय जी ने अपना घर बार..., अपना ये सदावर्त घर के बाहर रखा करो।" घर में प्रवेश करते ही तमतमाई पत्नी ने पांडेय जी से कहा।
"साँस तो लेने दो भाई, वैसे मैंने क्या कर दिया जो यूँ नाराज़ हो रही हो?"
"अनजान तो ऐसे बन रहे हो जैसे कुछ जानते ही नहीं, गुप्ताइन ने बताया मुझे फोन पे सब। तुम्हें तो कुछ करना नहीं पड़ता इसलिए चला लेते हो अपनी बिना हड्डी की ज़ुबान यहाँ- वहाँ। चार पुलिस वालों का रोज पेट भर कर चैन नहीं पड़ा कि अब मोहल्ले भर के सफाई वालों को भी न्यौत आए। ये घर है, कोई लंगर नहीं चलता यहाँ। पता है न रामवती भी नहीं आ रही आजकल काम पे।"
"थोड़ा शांति रखो दिमाग में, एक आध नस फट- फूटा गयी तो लेने के देने पड़ेंगे। वैसे तुम चिंता न करो, मैं बना लूँगा चाय उन लोगों के लिए। सुबह से ही सफाई करते हैं वो लोग, थकान लगती होगी। आज कल चाय के खोमचे भी नहीं है ...।" "तो तुम दोगे चाय? वाह पांडेय जी, वाह । डिस्पोजल गिलास भी नहीं हैं, दोगे किसमें ? ये भी सोचना था महान बनने से पहले।"
"वो छोटे वाले स्टील के गिलास निकाल लो।'
"उनको चाय अपने बर्तनों में...।"
" चाय हम पिला रहे हैं तो तो बर्तन भी हमारे ही होंगे न, कोई चुल्लू में तो नहीं पी सकता चाय, इसलिए गिलास तो निकालने पड़ेंगे ।"
"कौन है वो, जानते हो न ?"
" हमारे जैसे इंसान हैं और कौन हैं? और इंसान अपने घर आए मेहमान का सम्मान करता है..। ये मेरे संस्कारों की रीत है और अपने संस्कारों से मुझे प्रीत है...। कहकर पांडेय जी " बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ, आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ.... गुनगुनाने लगे।