साँझी खुशियाँ
साँझी खुशियाँ
आज शाम को जब रोज की तरह सायंकालीन सैर के बाद मैं और मेरे पति पार्क पहुंचे तो वह अपनी पुरुष मंडली की ओर चले गए और मैं अपने महिला मित्रों के पास। ऐसा लग रहा था कि सभी महिलाएं किसी अत्यावश्यक चर्चा में व्यस्त हैं। मेरे होठों पर हंसी आ गई यह सोच कर कि चलो जरूर कुछ चटपट्टी मसालेदार खबर होगी। इस उम्र में आ कर जब कोई काम धाम या शौक नहीं रह जाते हैं तो यह मसालेदार खबरें ही जीवन की ऊर्जा का काम करते हैं। मैं भी उत्सुकता पूर्वक वहां पहुंचकर सबको हाय हेलो का अभिवादन करके खड़ी हो गई। तो लगा वहां का माहौल ही एकदम बदल गया। बहुत ही हल्का मसालेदार चर्चा का माहौल अचानक से बोझिल सा हो गया। मेरे पहुंचते ही . . ? ऐसा क्यों . . . . .? मैंने मुस्कुराते हुए पूछा अरे भाई सब शांत क्यों हो गए ? मुझे भी बताओ आज की चटकारेदार खबर क्या है ? सब सकपकाते हुए बोली, "अरे नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। आपके बारे में बात नहीं कर रहे थे"। इतना कहकर उन लोगों ने दूसरी बातों की पोटली खोलकर मुझे उसमें शामिल कर लिया। मैं शामिल तो थी उन लोगों की बातों में पर दिमाग में यही कौंध रहा था कि "आपके बारे में बातें नहीं कर रहे थे"। मतलब. . .? क्या बातें मेरे बारे में हो रही थी ? मतलब मेरे जीवन में ऐसा क्या हुआ कि मैं मसालेदार खबरों की चर्चा का विषय बन गई ?
मैं रिटायर्ड प्रिंसिपल की पत्नी मेरे दो बेटे व एक बेटी है। सब सुशिक्षित और सुस्थापित हैं। तीनों की शादी भी हो गई है। बेटी अपनी ससुराल में खुश है और मेरी बहुएँ अपनी ससुराल में। जी हां मैं दावे से कह सकती हूं कि मेरी दोनों बहुएं खुश हैं। फिर मेरे बारे में मसालेदार खबर क्या हो सकती है? हे भगवान ! कहीं इनका (मेरे पति का) कहीं कोई प्यार व्यार का चक्कर तो नहीं चल रहा ? जिसके बारे में मुझे खबर ना हो। फिर खुद ही अपनी सोच पर शर्म आ गई। मेरे पति इतने प्यारे ! मैंने अपने दोनों गालों पर एक एक चपत लगाई कि मैंने अपने पति के बारे में इतना गलत सोचा। फिर क्या. . . . . ? फिर क्या हो सकता है ? हे भगवान! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे पड़ोसी शर्मा जी की पत्नी अपने मायके गई हैं। तो पिछले 15 दिनों से मैं ही उनको चाय, नाश्ता, खाने के लिए सुबह शाम पूछ लेती हूँ। वह हमेशा ना ही बोलते हैं l पर पूछना तो पड़ोसी धर्म है ना । तो कहीं चर्चा का विषय मैं तो नहीं हूं ? इन लोगों को लग रहा होगा कि मेरा और शर्मा जी का चक्कर चल रहा है। चलो बात बढ़ने से पहले ही आज ही खत्म कर देती हूँ ।
.मैंने सब से वापस पूछा कि आखिर हुआ क्या ? ऐसी कौन सी खबर है जो आप मुझे बताना नहीं चाहते ? वापस सबका मुंह उतर गया। मानो किसी शोक सभा में बैठे हो। आखिरकार श्रीमती चावला आगे आई और मेरे कंधों पर हाथ रखकर बहुत सहानुभूति स्वर में बोली कि नहीं कुछ चटकारेदार मसालेदार खबर नहीं है। आपका बड़ा बेटा घर छोड़कर ससुराल में रहने चला गया है तो वही हमें बुरा लगा। आप तो हमेशा अपनी बहू की कितनी तारीफे करती थी ? आपने तो कभी उनकी बुराई भी नहीं की। फिर भी आजकल की बहुओं को ससुराल रास नहीं आती। ओह तो यह बात थी मैं भी ना जाने क्या-क्या सोच कर परेशान हो रही थी I जग की रीत निराली बिना पूरी बात जाने समझे सबने मेरी बहू को दोषी करार दे दिया।
वास्तव में हुआ यूं था कि मेरी बड़ी बहू का इकलौता अनब्याहा छोटा भाई पाँच वर्ष के लिए पढ़ने के लिए विदेश गया हुआ है। बहू के माता-पिता अकेले रहते हैं। बहू की मां दिल की मरीज भी थी इसीलिए बहू अक्सर चिंता करती रहती थी। उसने कई बार अपनी माता-पिता से कहा भी कि आप दोनों हमारे पास आकर रहो। पर उसके पापा की नौकरी के चलते और फिर उनका कहना था कि साल छँह महीने की बात तो है नहीं। पॉच साल के लिए दूसरे के घर में आकर रहना या फिर इतना बड़ा घर होते हुए भी दूसरे शहर में किराए का घर लेकर रहना। सच बात है घर का मोह छूटता नहीं है। तो मेरे बेटे ने अपने पापा और हम सब से सलाह करके अपना ट्रांसफर बहू के मायके वाले शहर में करवा लिया था। बेटे बहू के बच्चे अभी छोटे थे। तो इस तरह स्कूल एडमिशन की कोई परेशानी नहीं थी। इस तरह से बेटा अपने ससुराल में अपने सास ससुर के साथ रह रहा था। बहू खुश भी थी और निश्चिंत भी। मुझे पहले थोड़ा बुरा लग रहा था पर मेरे पति ने समझाया कि अगर यही बेटा बड़े शहर में परिवार सहित किराए का घर लेकर नौकरी कर रहा होता तो तुम्हें कोई परेशानी नहीं होती। सिर्फ तुम्हें यह बुरा लग रहा है ना कि वह अपनी ससुराल में रह रहा है । तो लोग क्या कहेंगे यह मत सोचो । हमारी बहू खुश है । उसके माता-पिता अकेले रहने की त्रासदी से बचे हैं । क्या यह अच्छी बात नहीं है ? और फिर हमारे साथ हमारा छोटा बेटा और बहू है ना । यह् तो बस खुशियां बांटने जैसा है। तुमने अपने हिस्से की खुशियां उन्हें दी है।
मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। पर मैंने अपनी मुस्कान को दबाते हुए उन सबके चेहरे की ओर देखा। वे शायद मुझसे कुछ गरमा-गरम शब्दों की आशा रखे हुए थी। मैंने धीरे से सिर झुका कर कहां और कर भी क्या सकते हैं? बच्चों की मर्जी। मुझे मालुम हैं उस जगह उस समय मैं कितनी भी सफाई देती। उन सबकी नजरों में बिचारी ही रहती। ऐसी बिचारी जिसके बेटा और बहू उसका घर छोड़ कर चले गए हैं। पर मुझे मालूम था कि कुछ प्रश्नों का जवाब समय अच्छे से देता है। पार्क से घर लौट कर आ कर देखा तो मेरा बेटा बहू मेरे पोते पोती के साथ घर पर हमारा इंतजार कर रहे थे। वो सप्ताहांत की छुट्टियाँ हमारे साथ बिताने वाले थे। मैं अपनी साँझी खुशियों को देखकर मुस्कुरा दी। दोनों घरों को महकाती मेरी साँझी खुशियाँ कभी उनकी झोली में कभी मेरी झोली में।
