STORYMIRROR

Prabodh Govil

Drama

3  

Prabodh Govil

Drama

साहब का अफ़सोस

साहब का अफ़सोस

3 mins
471

बात उन दिनों की है जब हमारे देश में अंग्रेज़ों का आगमन हो चुका था। शहरों पर तो उनका आधिपत्य हो ही चुका था, गांव भी उनकी चकाचौंध से अछूते नहीं रहे थे। वे लोग साम, दाम, दण्ड, भेद अपना वर्चस्व विभिन्न समुदायों पर कायम कर ही लेते थे।

कहीं कहीं लोग उनसे घृणा भी करते थे, अतः उनके बहकावे में न आने के लिए एक दूसरे को सतर्क करते थे पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपने देश की गरीबी और हताशा से ऊब चुके थे, और अंग्रेज़ों के क्रिया कलाप को ललचाई नज़रों से देखते थे। उनकी नक़ल भी करते थे।

ऐसे क्रिया कलापों में सबसे लोकप्रिय थी कुत्ते पालने की प्रथा।

प्रायः हर अंग्रेज़ अपने घर में कोई न कोई बढ़िया नस्ल का कुत्ता रखता था। इन कुत्तों को इंसानों की तरह सभी सुविधाएं सुलभ करवाई जाती थी।


हर सुबह वे बड़ी शान से इन कुत्तों को टहलाने के लिए सड़क पर निकलते। इस सैर में अंग्रेज़ों और कुत्तों के बराबर के ठाठ होते।

एक सुंदर पट्टा जंजीर सहित कुत्ते के गले में पड़ा होता और एक भव्य हैट अंग्रेज़ मालिक के सिर पर होता।

कोई कोई उम्रदराज व्यक्ति हाथ में छड़ी रखना भी पसंद करता।

हर ग्रामीण उस रौबदार अंग्रेज़ बहादुर को शान से कुत्ते के साथ गुजरते हुए कौतूहल से देखता।


एक दिन गांव से कुछ दूर सड़क पर घूमते हुए अंग्रेज़ अफ़सर ने देखा कि सड़क के किनारे एक मुर्गा घूम रहा है। अंग्रेज़ के हाथ में अपनी बढ़िया विलायती कुतिया की ज़ंजीर थी।

उसने ये सोचकर ज़ंजीर को कस कर पकड़ लिया कि शायद कुतिया मुर्गे पर झपटेगी।

कुतिया ने उस तरफ़ देख कर भौंकना शुरू कर दिया था।

पर आशा के विपरीत मुर्गा कुतिया के पास तक चला आया।

अंग्रेज़ के साथ साथ कुतिया को भी हैरत तो हुई पर मुर्गे को न डरते देख कर कुतिया थोड़ा सहम गई।


अंग्रेज़ मालिक को मुर्गे और कुतिया की इस मुलाक़ात में रस आने लगा। वह चुपचाप रुक कर आमने सामने खड़े दोनों प्राणियों को देखता रहा। उसने देखा कि कुतिया ने अब भौंकना भी बंद कर दिया है।

मुर्गे ने भी गर्दन उठा कर ज़ोर से बांग दी - "कुकडू कूं" और अकड़ कर वापस जाने लगा।

अब ये रोज़ का सिलसिला बन गया।

अंग्रेज़ महाशय घूमने आते तो ठीक उसी वक़्त पर मुर्गा भी टहलता हुआ वहां चला आता। उनकी कुतिया की मानो उस मुर्गे के साथ दोस्ती हो गई। दोनों एक दूसरे को पहचानी नज़रों से देखते और ऐसे खड़े हो जाते मानो आपस में बातें कर रहे हों।

कुछ दिन बाद कुतिया ने सुन्दर से तीन पिल्लों को जन्म दिया। अब उसका घूमना बंद हो गया था, वो घर में ही रहती।

सर्दी में कुतिया के प्यारे बच्चे गद्दी में लिपट कर कूं कूं करते रहते।


एक दिन अचानक न जाने क्या हुआ कि अंग्रेज़ महाशय ने अपनी छड़ी उठाई और अपनी प्यारी कुतिया को तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया।

कुतिया के चिल्लाने की आवाज़ से घर के नौकर-चाकर दौड़े पर किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि साहब अपनी पसंदीदा पालतू उस कुतिया को क्यों पीट रहे हैं।

साहब मारते मारते बुदबुदाते जाते थे - “हम इधर लोगों को अपनी लैंग्वेज सिखाने की कोशिश करता, ये साला उस देसी मुर्गे का लैंग्वेज सीख कर आ गया...”

साहब का बुदबुदाना न तो देहाती नौकर-चाकर समझे और न ही वे छोटे छोटे पिल्ले, जो सर्दी और भय से अब भी कूं कूं किए जा रहे थे।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama