रूपा
रूपा
चारों ओर घर के बीच आंगन, जहाॅं कभी विशाल अमरूद का पेड़ हुआ करता था मोहल्ले के सारे बुजुर्ग और महिलाएं व बच्चे इस रसीले अमरूद का स्वाद लिया करते थे। अब इस आंगन में उस पेड़ के कुछ अवशेष ही शेष रह गए हैं, पर कुछ याद है तो उस "रूपा" की कहानी...
रूपा किसी लड़की का नाम नहीं, किसी बेटी का नाम नहीं परंतु एक बेटी के समान पिंजरे में कैद तोते का नाम है जिसे कभी हमारे बचपन में खेलने के लिए पाला गया था। उसके रंग-बिरंगे पंखों और चोंच में गजब का आकर्षण था, परिवार के सदस्यों को उसके भोजन करने के बाद ही भोजन नसीब होता था।
रूपा की कहानी शुरू होती है जब रूपा का इस धरती पर अवतरण नहीं हुआ था, अभी वह बाहरी खोल तोड़कर बाहर आने में सक्षम नहीं थी। रूपा की मॉं ने बहुत सहेज-सहेज कर यह घोंसला बनाया था ताकि उसके परिवार की रक्षा विपरीत परिस्थितियों में हो सके। नए-नए तिनको से बनी घोंसले में दानों की कमी नहीं होती थी। कहीं न कहीं से माॅं दाना चुनकर ले आती थी। जब रूपा का अंडे की खोतली तोड़कर बाहर आना हुआ उसी रोज रूपा की माॅं किसी बहेलिए का शिकार हो गई। नन्हीं सी चिड़िया जिसने अभी-अभी कदम रखा था ममता का आंचल उससे विमुख हो गया।
मेरे पिताजी को आज शाम तोते और उसके परिवार की कलरव सुनाई नहीं दी, किसी आशंका का अंदेशा होने पर उन्होंने उस घोसले में झांका तो एक नन्ही सी चिड़िया मातृ विहीन क्रंदन कर रही थी। उसकी जान बचाने के लिए उन्होंने उसे नीचे उतारा और उसकी व्यवस्था की। अब रूपा का नामकरण संस्कार किया गया और एक मानवीकृत घोंसले का निर्माण किया गया। समय बीतता गया रूपा बड़ी होती गई पर अपना वजूद खोती गई, जिसे आज पेड़ों पर उड़ना था गगन-नभ का सैर करना था। रुपा पिंजरे में ही रहती थी, अब इस परिंदे ने इंसानों की भाषा रटना भी सीख लिया था। इसी बीच कई बच्चों का मनोरंजन भी हुआ करता था। यूॅं कहें रूपा पूरे परिवार में एक सदस्य की तरह अपनी पहचान बना चुकी थी। कभी किसी दूसरे गाॅंव या किसी समारोह शादी में जाना होता तो रूपा के लिए विशेष व्यवस्था किया जाता, उसके नहाने खाने के लिए समय निर्धारित था।
किसान परिवार में गायों की कमी नहीं थी उस रोज दूध दही भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुआ करता था, जिसके कारण घर में एक मोटी बिल्ली का अक्सर आना-जाना हुआ करता था। उसे रूपा आंखों में खटकती थी और अक्सर रूपा का गदराया शरीर बिल्ली के मुंह में लार टपकाया करती थी। इसी ताक में बिल्ली ने कई बार प्रयास भी किया लेकिन बीच में पिंजरा रूपा के लिए ढाल बनकर खड़ी हो जाती थी।
आज रूपा को नहाने के बाद माताजी ने थोड़ी देर धूप में सूखने के लिए रखा था लेकिन जल्दबाजी में पिंजरे का दरवाजा बंद करना भूल गई थी। रूपा भी अनहोनी से अज्ञात रूपा दरवाजा खोल कर आंगन में मटकने लगी थी। दूर से बिल्ली इसे भाॅंप रही थी उसके पास जाने पर रूपा दौड़ने लगी थी बड़े-बड़े पंख थे पर जैसे उड़ना भूल गई थी। थोड़ी देर के घमासान युद्ध के बाद रूपा बिल्ली के जबड़े में कैद जिंदगी के लिए तरस रही थी। काश आज रूपा को अपना वास्तविक वजूद पता होता थोड़ा उड़ना आता या इस घोसले का मतलब पता होता और दरवाजे से बाहर ना आ कर उस घोसले में ही रहती तो अपनी जान बचा सकती थी ।
हम सबके माता-पिता भी हमारे लिए ऐसे ही अदृश्य घोसले का निर्माण करते हैं जो परिस्थितियों से लड़ने के लिए सक्षम है, धीरे-धीरे वही माता-पिता हमें सारे मूलभूत ज्ञान हमें विविध रूप में परोसते हैं, एक हम ही हैं जो इसी घोसले से बाहर आना चाहते हैं और खुद के दम पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। उड़ना नहीं आता और आसमां छूने की आरजू रखते हैं। जिसका परिणाम अंततोगत्वा रूपा के समान मृत्यु ही होती है। इसलिए हमें सदा माता-पिता की परवरिश रूपी उस सुरक्षित घोसले का सदा सम्मान करना चाहिए ।