गुप्ता जी
गुप्ता जी


समाज का उत्तरदायित्व अक्सर गाॅंव में वृद्धजनों पर निर्धारित रहता है जिसका अवलोकन एवं परिपालन आगामी युवा पीढ़ी एवं वर्तमान युवाओं के माध्यम से किया जाता है, यह एक प्रकार का सामुदायिक सभा एवं प्रत्यक्ष परिचर्चा का न्यायालय होता है। जहाॅं किसी को अर्थदंड जुर्माना या किसी वाद-विवाद को सुलझाया जाता है। इसी प्रकार यह छोटी सी कहानी सह आलेख मेरी जन्मभूमि से आदरणीय बंसीधर गुप्ता जी पर आधारित है ।
बचपन से ही मैंने समाज में किसी बुलंद आवाज से किसी को डांटते या चिल्लाते हुए देखा है तो वह यह महात्मा थे।उस दरमियान हमेशा न्याय सत्य की ओर ही झुके यह आवश्यक तो नहीं था, पलड़ा कभी-कभी कहीं और झुक जाता था जिस ओर का आलंब गुप्ता जी के हाथों होता था, राजनीतिक नागरिकों एवं मंत्रियों से पूछ परख होने पर इनकी छवि को जैसे एक परवाज सी लग गई। बच्चों में अक्सर एक खौफ नजर आता था, मेले में या किसी मुहल्ले में जब भी इनको आसपास गुजरते देखता वही डांट भरी आवाज कानों में गुंजायमान होती थी। किसी भी बात को सुलझाना हो तो बंसीधर गुप्ता जी का साथ परम आवश्यक था । धीरे-धीरे कालचक्र में परिवर्तन होता गया और उनके स्वरों में जैसे गुरुर एवं अहम भाव भी आने लगा था। तीन पुत्रों एवं दो पुत्रियों का साथ उन्हें संबल प्रदान करता था। गांव में भी "जितने हाथ उतने साथ" का प्रचलन था ।१९४७ में देश आजाद हुआ था, परंतु मेरा गॉंव अब भी रुढ़ियों की गुलामी में जकड़ा हुआ था।
वक्त ने करवट बदली धीरे धीरे यौवन जरावस्था के कटघरे में था जहाॅं बुजुर्गों को बच्चों का साथ नसीब नहीं हो पाता तो जीवन अधूरा सा लगता है। गुप्ता जी के परिवार में भी अपनों का वैसा साथ नहीं मिल पाया, उस बुलंद आवाज ने भी अपना साथ छोड़ दिया था । परिवार में कलह-क्लेश ने सुखों का दमन कर रखा था ।
असहाय जीवन हमेशा से अपनों का साथ ढूंढता है, कोई हमराही कोई हमदम को तरसता है । जिस आवाज की खौफ से लोग डरा करते थे, वृद्धाएं और स्त्रियॉं थोड़ी दूर-दूर सहमी-सहमी चला करती थीं, एक ही तालाब पर नहाते बच्चे जल्दी-जल्दी मौन हुआ करते थे,आज यही शरीर लकवा ग्रस्त अवस्था में पराया कर रहा था ।अपना दमखम दिखाते दोनों हाथ वैशाखियॉं थामे राह तलाश रही थीं, आंखों में सूनापन और चेहरे की झुर्रियाॅं अब जीवन की अद्वितीय सत्य बयॉं कर रहे थे ।
मेरी व्यक्तिगत छवि हमेशा से बच्चों और वृद्धों की संगत की रही है, इन्हीं से व्यावहारिक ज्ञान मुझे सीखने को मिलता था। इसी तारतम्य में जब भी गाॅंव जाता गुप्ता जी से जरूर मिलता। पाॅंव छुने के बाद दोनों हाथों से मुझे अपनी ओर खींच कर बगल में बिठा लिया करते थे, घंटो तक बातें करते, और करुण स्वर में क्रंदन भाव से रोया करते थे। आज भी वह पर्त दर पर्त सिकुड़ी हुई चमड़ियों का ढांचा मुझे अहसास दिलाता है । गुप्ता जी की आंखों में पश्चाताप पछतावा और आगामी युवा पीढ़ी को लेकर एक वेदना थी परंतु अब शरीर का वह साथ नहीं मिलता था। उनकी कई अनगिनत सीख में से यह था कि "जीवन का एकमात्र कटु सत्य मृत्यु है यह किसी के रोके नहीं रुकता। परीक्षाएं हमेशा कागज के पन्नों पर नहीं कभी-कभी हालातों पर वक्त के माध्यम से होता है। इंसान का हमेशा उसका चरित्र ही उसको पहचान दिलाता है । वृद्धावस्था के सभी वृद्धजन आज संघर्ष करने के पश्चात सारा सीख समेटे हुए बैठे हैं, आगामी द्रुतगामी युवा पीढ़ी को इनसे मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता है ।"