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हरीश कंडवाल "मनखी "

Tragedy

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हरीश कंडवाल "मनखी "

Tragedy

रोटी की जुगत

रोटी की जुगत

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सुमेश दिल्ली में एक प्रतिष्ठित कंपनी में काम करता था। लॉकडाउन के दौरान सब घर पर बैठ गये, कंपनी के मालिक ने मार्च की 21 दिन की सेलरी दी, उसके बाद लॉकडाउन के नियमों के तहत सब घर में ही कैद हो गये। उसके बाद लॉकडाउन खुलने का इंतजार करने लगे, लेकिन हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे थे, सोमेश ने आखिरकार अपने गॉव जाने का विचार पक्का कर लिया और परिवार सहित वह अपने गॉव गाड़ी बुक करवा कर दिल्ली से गॅाव के लिए निकल पड़ा।


  लॉकडाउन के नियमों के तहत वह 14 दिन स्कूल में क्वारंटीन रहा, उसके बाद घर आ गया। परिवार सहित घर में दो चार दिन तो ऐसे ही बीत गये, लेकिन अब समस्या रोटी की जुगत करने की थी। दिल्ली में जब प्राईवेट नौकरी करता तब सोमेश को लगता कि वह घर में अगर महीने के 10 हजार रूपये भी कमा लेगा तो उसके परिवार की रोजी रोटी और गुजर बसर हो जायेगा। उसके बाद वह दिल्ली कभी नहीं आयेगा। अब जब लॉकडाउन के दौरान अपनी पूर्व निर्धारित योजनाओं को धरातल पर उतारने का प्रयास किया तो अनेको व्यवहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।


  सोमेश अकेला ही घर नहीं आया था उसकी पत्नी दो बच्चो, साथ में भाई का परिवार भी आया था। घर मेंं कुल मिलाकर 12 सदस्य हो गये। घर में राज्य खाद्य सुरक्षा का राशन कार्ड होने के कारण राशन तो मिल गयी थी, लेकिन सबसे बड़ी समस्या इतने लोगे के लिए तीन समय की सब्जी की व्यवस्था करना, और परिवार में कोई तोरी नहीं खाता है, तो किसी को कद्दू पंसद नहीं है, कोई रोज दाल खाकर परेशान हो गया है। घर मे ज्यादा सदस्य होने के नाते वैचारिक मतभेद स्वाभाविक था, और फिर शादी के बाद सारा परिवार इतने दिनों में एक साथ रह रहा था, बहुओं का मिजाज सबका अलग अलग था, भाई भाई के विचारों में बदलाव आ चुके थे, क्योंकि अब उनके पास पारिवारिक जिम्मेदारी आ चुकी है, सबका रोजी रोटी का जुगत करने वाली सोच और उनके पारिवारिक खर्चों का हिसाब अलग अलग था। ऐसे में सोमेश और उसके परिवार में अर्न्तकलह होना स्वाभाविक था, हर घर में ऐसा होता ही है, क्योंकि जहॉ बरतन होगे वह खनकते हीं हैं।


  सोमेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब रोजगार की थी। शुरू में दो चार दिन ग्राम प्रधान ने मनरेगा में काम करवाया लेकिन 240 रूपये की प्रतिदिन की ध्याड़ी वह भी ना जाने कितने दिन बाद खाते मे आयेगी, वह भी मालूम नहीं वह कितने दिन रोजी रोटी की जुगत करती। 15-20 दिन तक तो मनरेगा में काम मिल गया, अब आगे क्या होगा इसकी िंचंता सोमेश और गॉव आये अन्य सभी युवको को होती। शाम का सारे युवक कुछ नया करने की योजना बनाते लेकिन वक्त और हालात साथ नहीं देते।


  अगले दिन सोमेश और गॉव के अन्य युवा साथी सभी ब्लॉक कार्यालय में स्वरोजगार योजना की जानकारी लेने गये, लेकिन कार्यालय के चक्कर काटते काटते माकूल जानकारी नहीं मिल पायी, अंत में निराशा लिये हाथों में घर वापिस आ गये। अब सोमेश ने दो चार बकरियां ले ली, लेकिन एक हप्ते के बाद चुगाते वक्त बाघ ने बकरी को मार दिया, सोमेश पढा लिखा था वन विभाग में शिकायत दर्ज की फोटो भेजी, ईधर उधर फोन किया, बडी मुश्किल से 3 हजार का मुआवजा मिलने की बात वन विभाग ने की। इसी तरह बरसात में सोमेश ने अदरक और अरबी लगायी कि चलो कुछ यही काम हो जाय, चार दिन बाद उसे भी जंगली जानवरों ने तहस नहस कर दिया।

  गॉव में स्वरोगजगार के लिए बहुत लोगों ने अनेकों सुझाव दिये, किसी ने मछली तालाब बनाने, किसी ने मुर्गी पालन, किसी ने बकरी पालन, किसी ने आर्गेनिक खेती, हर प्रकार के अनचाहे सुझाव दिये जाने लगे, लेकिन जब स्वरोजगार के लिए आर्थिक मदद मॉगी गयी तो सबने फोन उठाने बंद कर दिये। सोमेश समझने लगा था कि कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर होता है, प्राईवेट में चाहे जितना भी मिल रहा था उसे दो बगत की रोटी तो मिल रही थी, यहॉ तो कुऑ खोदने के बाद भी अंजुल भर पानी बमुश्किल से मिल रहा है।


  स्वरोजगार योजना के तहत सोमेश लोन की प्रक्रिया जानने के लिए पुनः बैंक गया तो पता लगा कि सरकार की योजनाये केवल अखबारों और सोशल मीडिया तक ही वाहवाही लूटते हैं, धरातल पर तो केवल धनवानों के लिए ही बैंक होते हैं, ऐसा अनुभव सोमेश कर रहा था,क्योंकि लोन स्वीकृति के लिए जो बैंक ने शर्ते रखी वह सोमेश पूरा कर पाना संभव नहीं था, क्योंकि इतना रूपया सोमेश के पास होता तो वह लोन लेने के लिए बैंक क्यों आतां। आखिर वहॉ से भी निराशा लगी। अब पत्नी भी रोज ताना देने लगी, बच्चों की मॉग भी बढने लगी, दिल्ली में रहने वाले बच्चे कब तक अपनी ख्वाईशों का गला घोटते, सोमेश कोई काम भी करना चाहते तो आस पडौस के लोग उसे होने वाले नुकसान इतना गिना देते कि उसके कदम पहले ही ठिठक जाते।.


 डेयरी खोलने की सोची लेकिन गॉव में सड़क नही, दूध की आपूर्ति बाजार में कैसे करेगा यह उसके सामने समस्या खड़ी हो जाती, सब्जी उगाता तो उसकी आपूर्ति के लिए भी सड़क होना जरूरी था। सोमेश बहुत मेहनती, लगनशील और कर्मठशील भी था लेकिन पत्नी गॉव के भौगोलिक परिस्थतियों के हिसाब से कार्य नहीं कर सकती थी, मॉ बाप बूढे हो चुके थे वह भी उतना साथ नहीं दे सकते थे, हाथ में इतना धन नहीं था कि किसी को साथ में रख ले।


  वहीं गॉव में अब पहले जैसे बात नहीं रही थी कि जैसे पहले खेती से अनाज हो जाता था तो अनाज की समस्या नहीं होती थी, पहले नमक तेल और साबुन ही खरीदना पड़ता था, लेकिन आज आवश्यकतायें बढ गयी हैं। नमक तेल साबुन के अलावा अन्य जरूरते ज्यादा हो गयी। मोबाईल फोन सबके हाथ में है, पत्नी के दो नम्बर अपने दो नम्बर दोनो में रिचार्ज करना जरूरी है, क्योंकि बच्चों की ऑनलाईन क्लास मोबाईल में चल रही हैं, लेकिन आमदनी तो अभी शून्य है, और खर्चों की कोई सीमा नहीं है। गॉव में एक अदद प्राईमरी स्कूल भी नही हैं, जहॉ बाद में बच्चों को पढाया जा सके। सोमेश को लगने लगा कि गॉव में दो चार दिन रहना ही उचित है, आज उसे पलायन होने के कारणों का स्पष्ट पता लग गया। सरकारी योजनाओं का धरातल पर क्या हाल है, सरकार के द्वारा लागू योजनाये धरातल पर क्यों नहीं उतर पाती है, इसका अनुभव भी सोमेश को हो चुका था।


  अंत में हर जगह हाथ पैर मारने के बाद भी जब सोमेश को कोइ भविष्य नजर नहीं आता दिखाई दिया तो भारी मन से फिर वापस दिल्ली जाने का मन बनाना शुरू कर दिया, कंपनी में साथ वाले स्टाफ को फोन किया तो जानकारी मिली कि काम शुरू हो गया है, लेकिन सेलरी आधी मिल रही हैं, कोरोना केसा तो बढ रहे हैं, लेकिन रोजी रोटी की जुगत में सब लोग डरते सहमे घर से बाहर निकलने को मजबूर हो गये है, यह सुनकर सोमेश की हिम्मत बढ गयी और अंततः दिल्ली वापिस लौटने का कठोर फैसला कर लिया।



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