रक्षाबंधन
रक्षाबंधन
रक्षाबंधन का त्योहार नज़दीक था। बहन अनुपमा को इस वर्ष अपने इकलौते भाई की याद बहुत खल रही थी। उसका भाई चार वर्ष पूर्व दुश्मनों से लड़ते - लड़ते शहीद हो गया था। हर वर्ष अनुपमा अपने छोटे भाई अभय को सप्रेम डाक द्वारा राखी भेजती थी। जब से बेटे के शहीद होने की खबर माँ को हुई माँ बस किसी तरह जी रही है।
माँ पुत्र वियोग सहन न कर सकी और उसने दिमागी संतुलन खो बैठी। पर अब भी माँ के होठों पर अभय का नाम रहता। माँ कहती "तुम सब देखना एक दिन मेरा लल्ला ज़रुर वापस आयेगा।" माँ को इस बात का आभास ही नहीं था कि एक बार ईश्वर के शरण में जाने के पश्चात कोई वापस नहीं लौटता है।
कोई भी ऐसा दिन और रात नहीं गुजरता जिस रोज़ माँ के नयन से नीर की नदिया नहीं बहती थी। पति को तो पहले ही वो बीमारी की वज़ह से खो चुकी थी, अब पुत्र के विरह का ग़म माँ को जीते जी मार रहा था। अभय मरते दम तक देश की हिफाज़त करना नहीं भूला था। देश के प्रति अपार स्नेह था, अभय के रग-रग में। अपनी जान की परवाह किये बिना अभय ने देश की रक्षा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
रक्षाबंधन के दिन सभी बहने अपने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधने के लिए तैयार थी। अनुपमा हर वर्ष भाई के नाम एक प्रेम भरा खत, मिठाई और राखी डाक से भेजती थी, पर इस बार वह किस पते पर राखी भेजे इसी उधेड़बुन में थी। घर के सामने एक बहन को अपने भाई के हाथों पर राखी बांधते देखते ही अनुपमा के आँखों से अनायास आँसू की धार बहने लगा।