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Khushboo Bansal

Tragedy

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Khushboo Bansal

Tragedy

प्यास

प्यास

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मई - जून की दुपहरी जला देने वाली होती है। ऐसा लग रहा था जैसे सूरज एकदम सिर के ऊपर है और आग बरसा रहा है।

बस स्टैंड तक पहुंचते - पहुंचते मेरा हल्के हरे रंग का कुर्ता पसीने से तरबतर हो चुका था। बस में चढ़ते ही मैंने पंक्ति में लगी सीटों में से बीच वाली सीट पकड़ ली और खिड़की से चिपक कर बैठ गई। तेज़ - तेज़ चलने और गर्मी के प्रकोप के कारण मेरी सांसे फूल रही थी। मैंने रुमाल से अपने चेहरे पर पड़ी पसीने की बूंदों को पोछा और टटोल कर अपने बैग से एक हेयर क्लिप निकाला और अपने कंधे से थोड़ा नीचे तक पड़े बालों को हाथों से घुमाते हुए जूड़े की तरह ऊपर उठाकर उसे हेयर क्लिप की सहायता से व्यवस्थित किया। फिर खुद को थोड़ा व्यवस्थित करते हुए अपनी खिड़की से बस के बाहर का नज़ारा देखने लगी। बालों के नीचे छिपी मेरी गर्दन भी पसीने से तर हो चुकी थी। सांसे अब भी तेज़ थीं। दमे की शिकायत और बस पकड़ने की जल्दी में तेज़ तेज़ चलने के कारण सांसों का फूलना स्वाभाविक था।

प्यास से गला सूख रहा था। बैग में से बोतल निकाली पर वह भी ख़ाली थी। मैंने खिड़की से देखा तो बस स्टैंड के पास ही एक पान की दुकान थी जहां से पानी की बोतल आसानी से मिल सकती थी।


"बस से नीचे उतरकर पानी की बोतल ले लेती हूं। पांच मिनट ही तो लगेंगे। इतने में कहां बस चल पड़ेगी!....नहीं...नहीं, अगर इतने में ही बस छूट गई तो दौड़ - दौड़कर बस पकड़ना और इतना पसीना बहाना....सब बेकार हो जाएगा। और अगली बस तो बीस मिनट बाद ही आएगी।"


मैं अभी इसी उधेड़ - बुन में लगी थी कि लगभग अधेड़ उम्र का सामान्य से कुछ अधिक कद का, सांवला सा एक आदमी नंगे पाँव लडख़ड़ाते क़दमों से हांफता हुआ सा आया और स्टैंड पर यात्रियों के प्रतीक्षा करने के लिए बने चबूतरे पर जा बैठा। उसका चेहरा बिल्कुल निस्तेज सा पड़ा था। गर्मी और थकान के कारण आँखें लाल हो चुकी थी। गुप्त अंग को ढकने के लिए एक फटे चीथड़े के अलावा उसके शरीर पर कोई और वस्त्र ना था। उसके दुबले - पतले से शरीर पर हड्डियों की गणना करना बहुत आसान जान पड़ रहा था। उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि उसने हफ्तों से कुछ खाया - पिया नहीं है। पूरे शरीर और चेहरे पर किलो भर मिट्टी की मोटी परत चढ़ी थी। होठों पर सूखी पपड़ी सी जमी थी। उसके मिट्टी से सने, बढ़े हुए बाल इस बेतरतीबी से बिखरे थे कि साफ पता चल रहा था कि वर्षों से उसको सुव्यवस्थित नहीं किया गया है। दाढ़ी भी लंबी हो चुकी थी और उस पर भी धूल जमी थी। हाथों और पैरों पर लंबे और टेढ़े - मेढ़े से नाखून उसकी बेबसी बयान कर रहे थे। वह जिस तरह थूक को सटक रहा था, यह ज़ाहिर था कि उसे बहुत जोरों की प्यास लगी है।


मैंने कंडक्टर से पूछ्ना चाहा कि बस को चलने में अभी कितना समय लगेगा। तभी एक अधेड़ उम्र की महिला एक छोटे बच्चे के साथ बस स्टैंड के पास वाली पान की दुकान पर आई। उसने एक लीटर वाली एक पानी की बोतल ली और फ्रूटी का एक टेट्रापैक और चिप्स की पैकेट ख़रीद कर उस बच्चे को पकड़ा दी। वह स्वयं भी बोतल खोलकर पानी पीने लगी। एक ही सांस में उस महिला ने पूरी बोतल खाली कर दी और उसे वहीं सड़क पर फेंक दिया। बच्चे ने भी अब तक फ्रूटी पी ली थी और उसने भी उस महिला का अनुसरण करते हुए वह टेट्रापैक वहीं फेंक दिया और चिप्स का पैकेट हाथ में पकड़े महिला के साथ बस में चढ़ गया। संयोग से वह महिला मेरे पास वाली सीट पर ही आ बैठी थी। मेरा ध्यान एक पल के लिए उस आदमी से हटकर उस महिला और बच्चे पर जा टिका। मन में एक आक्रोश लिए मैं अपलक उसे देख रही थी।


"कैसे लोग हैं? इस तरह खुद ही सड़क पर खाली बोतलें और रैपर फेंक कर कचरा फैलाते हैं और फिर खुद ही शिकायत करते हैं कि सड़कें साफ नहीं रहती। कभी अगर विदेश हो आएं तो वहां की सड़कों की तारीफ करते नहीं थकते और सारा दोष सरकार पर लाद कर खुद दायित्वों से मुक्ति पा लेते हैं।

अरे अगर हम चाहते हैं कि एक स्वच्छ भारत का निर्माण हो तो हमें खुद भी तो जागरूक बनना होगा। खुद तो जागरूक बनना दूर, आने वाली जनरेशन को भी यही लापरवाही की आदत सीखा रहें हैं। फिर वे भी बड़े होकर सारा दोष किसी एक पर डालकर खुद जिम्मेदारी से मुक्त हो लेंगे।"


मैंने अपने मन में चल रहे विचारों के इन बवंडर को झटकने की कोशिश की और कुछ सोचकर खिड़की के बाहर देखने लगी। वह आदमी उन खाली बोतलों और फ्रूटी के टेट्रापैक को चुन रहा था। वह कभी बोतल और कभी फ्रूटी के पैकेट को मुंह से लगा उसमें बची एक एक बूंद को अपने गले में उतारने की पुरज़ोर कोशिश करने लगा और फिर अपनी कोशिश में नाकाम हो झल्लाते हुए उसने वह बोतल और फ्रूटी का पैकेट पुनः सड़क पर फेंक दिया। उसकी इस बेबसी को देख मेरा हृदय अब तक द्रवित हो चुका था। और वह भावुकता बेसाख्ता ही अश्रु बनकर मेरे गालों पर लुढ़क पड़े। बिना देर किए ही मैं अपनी सीट से उठकर खड़ी हो गई और पलक झपकते ही मैं बस के नीचे थी। मैंने पान की दुकान से वही एक लीटर वाली पानी की बोतल खरीदी और उसे देने के लिए मुड़ी। पर...यह...यह क्या!! वह आदमी तो वहां था ही नहीं।


उसे ढूंढने के प्रयास में मैंने यहां- वहां नजर दौड़ाई। और फिर निराश होकर बस में चढ़ने ही वाली थी कि अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी। वह सड़क के दूसरे किनारे पर लगे नाले के पास बैठा था। मेरी आँखें एक बार फिर खुशी से चमक उठी। पानी की बोतल उसे देने के लिए मैं बेतहाशा दौड़ते हुए उसके पास पहुंची। पर जब तक मैं वहां पहुंची, वह लावारिस कुत्तों से लड़ते हुए नाले का गंदा पानी पीकर अपनी प्यास बुझा चुका था।


मैं हाथ में पानी की बोतल लिए किंकर्तव्यविमूढ़ सी उसे देखती रह गई और वह प्यास बुझा, अपनी आँखों में जीत की चमक लिए, तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गया।



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