पिंजड़े में क़ैद पंछी !
पिंजड़े में क़ैद पंछी !
शाम के पांच बजे होंगे। चालीस वर्षीय स्नेहा किचन में ब्रेड पकोड़े बना रही थी। उसकी प्यारी गुड़िया ने आज ब्रेड पकोड़े खाने की फरमाइश जो की थी।
आज भी उतनी ही खूबसूरत लगती थी वह। वही घने लंबे बाल, छरहरा बदन, बड़ी - बड़ी तीखे कटाक्ष वाली आंखें, और गुलाबी अधरों पर सजी वही जीवंत मुस्कान। उम्र के इस पड़ाव पर भी उसका सौंदर्य किसी कमसिन के सौन्दर्य से कम ना था।
शिवांगी के स्कूल से आने का समय हो चला था और स्नेहा उसके लिए नाश्ता बना रही थी। शिवांगी स्नेहा की सोलह वर्षीय बेटी थी। पढ़ाई में अव्वल और नैन - नक्श में बिल्कुल अपनी मां की छवि थी वह।
डोर बेल की आवाज़ सुनकर स्नेहा ने बेसन से सने अपने हाथों को सिंक में साफ किया और किचन टॉवेल से हाथ पोछती हुई दरवाज़े की तरफ बढ़ी। दरवाज़ा खोलते ही शिवांगी का उदास चेहरा देखकर परेशान हो गई स्नेहा।
"फिर वही उदास चेहरा। क्या हो गया है मेरी गुड़िया को ? क्यों इतनी परेशान रहती है आजकल ? कैसे जानूं इसके मन का हाल ?" वह मन ही मन बुदबुदाई।
अचानक आए एक खयाल के कारण स्नेहा का चेहरा खुशी से चमक उठा। "हां यह ठीक रहेगा। ब्रेड पकोड़े देखकर खुश हो जाएगी मेरी गुड़िया। फिर पूछ लूंगी की क्या बात है।" अभी वह अपने ख़यालो में विचरण कर ही रही थी कि शिवांगी उसके गले से लिपट कर रोने लगी।
स्नेहा को समझ ही नहीं आ रहा था कि उसकी बहादुर और हमेशा हंसते रहने वाली गुड़िया को आज हुआ क्या है। उसने प्यार से शिवांगी के सर पर हाथ फेरा और उसके कंधे से बैग लेते हुए कहा, "अरे - अरे क्या हो गया मेरी लाडो को ? ना..ना...रोना नहीं। मेरी गुड़िया तो बहुत बहादुर है। ऐसे रोते थोड़ी हैं। चुप हो जा।"
उसने प्यार से शिवांगी के सर को चूमा और उसे अपने साथ सोफ़ा पर बैठाया। शिवांगी भी अब तक कुछ संभल चुकी थी। उसने सामने मेज़ पर रखा पानी का ग्लास शिवांगी की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, "अब बता क्या बात है ? क्यों इतनी परेशान है ? स्कूल में कुछ हुआ है क्या ? टीचर से डांट पड़ी है या फिर किसी से झगड़ा हुआ है ? अपनी ममा को बताएगी ना मेरी गुड़िया ?"
शिवांगी ने हां में सर हिलाया और थोड़ा रुक - रुककर सुबकते हुए कहना शुरू किया, "ममा...आई...आई एम् सॉरी, मुझे.... आपको सब कुछ....पहले ही....बता देना चाहिए था। मेरे स्कूल जाने के रास्ते में जो बस्ती पड़ती है, वहां एक लड़का रोज़ मुझे आते - जाते हुए घूरता है और गंदे - गंदे इशारे करता है। मैं... मैं आपको बताना चाहती थी पर मुझे बहुत डर लग रहा था। पर ममा, बिलीव मी, इस सब में मेरी कोई गलती नहीं है।"
शिवांगी स्नेहा की आंखों में झांक रही थी। मानो पूछ रही हो, "आपको मुझ पर विश्वास तो है ना ममा ?"
"आज तो हद ही हो गई। मैं जब स्कूल से घर लौट रही थी तो आज भी वह उसी जगह पर खड़ा था और जैसे ही में उसके पास से गुजरी, उसने जबरन मेरे हाथों में यह पेपर थमा दिया।" शिवांगी ने एक मूसा हुआ सा काग़ज का टुकड़ा स्नेहा की और बढ़ाते हुए कहा।
स्नेहा, जो अब तक मूक बनी उसकी सारी बातें सुन रही थी, ने वह कागज़ का टुकड़ा शिवांगी के हाथों से ले लिया और उसे सीधा करते हुए पढ़ने लगी। लिखावट बहुत साफ - सुथरी नहीं थी और बहुत से शब्द तो पढ़ना संभव ही नहीं था। फिर भी जितना उसने पढ़ा, वह कुछ इस प्रकार था -
डियर,
मैं तुम्हे रोज़ स्कूल से आते - जाते हुए देखता हूं। तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। मैं तुमसे मिलकर तुम्हे बहुत कुछ बताना चाहता हूं। तुम मुझे कल शाम पहाड़ी वाले मंदिर के पास मिलना। तुम्हारा आशिक सुनील
पत्र में और भी बहुत कुछ लिखा था जिसे पढ़ पाना मुश्किल था। पत्र पढ़कर स्नेहा का दिल एक बार के लिए तो किसी अप्रिय घटना के घटित होने की कल्पना से दहल गया। पर फिर वह कुछ संभली और मुस्कुराते हुए शिवांगी का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, "बस इतनी सी बात!!....इतनी सी बात से डर गई मेरी लाडो। यह सब तो जीवन में लगा ही रहता है। ये घटनाएं तो पानी के उन छोटे - छोटे बुलबुलों की तरह है जो अकस्मात ही हमारे जीवन में आ जाते हैं। पर इनकी अवधि बहुत छोटी होती है और महत्व नगण्य। ये जिस तरह आते हैं, उसी तरह अवधि समाप्त होते ही स्वतः ख़तम भी हो जाते हैं। हमें इन सब बातों से डरना नहीं चाहिए और ना ही इन बातों को ज़ादा महत्व देना चाहिए। तुम्हारा उसकी बातों को नज़रंदाज़ करना और प्रत्युत्तर में कुछ ना कहना ही उसे समझाने के लिए काफी है। फिर भी यदि वह फिर कोई ऐसी - वैसी हरकत करे तो.... मैंने तुझे वह नंबर दिया था ना ? याद है तुझे ?"
"हां ममा, १०९१। याद है मुझे।" शिवांगी की आंखों में अब उम्मीद की चमक थी।
"हां बस उसी नंबर पर कॉल करना और कंप्लेंट करना। डरना बिल्कुल नहीं। तुझे मज़बूत बनना है, मजबूर नहीं।"
स्नेहा की बातों से शिवांगी को हिम्मत मिली थी। बेसाख्ता ही एक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर खिल उठी। मानो उसके दिल पर से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो।
"अच्छा, मैंने तेरी पसंद के ब्रेड पकोड़े बनाए हैं। चल जा अब फटाफट हाथ - मुंह धो ले और नाश्ता कर ले। आज तेरी इकोनॉमिक्स की ट्यूशन भी तो है।" स्नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा।
शिवांगी ने जाते - जाते पीछे से स्नेहा के कंधो पर अपनी बाहें डालते हुए कहा, "आई लव यू ममा!" और फिर हाथ - मुंह धोने चली गई।
शिवांगी के जाने के बाद स्नेहा का मन अनायास ही अपने अतीत में विचरण करने लगा। वह भी तो बस पंद्रह साल की ही रही होगी जब उसके साथ भी कुछ ऐसा ही घटा था। पंद्रह साल की स्नेहा चंचल हवा के झोंकों से हंसती - खिलखिलाती और बक - बक किया करती थी। पर आज भी जब लड़की बड़ी होने लगती है तो अनायास ही सबकी नज़रों में आने लगती है, फिर स्नेहा के ज़माने की तो बात ही अलग थी। तब तो लोग आज की तरह आजाद खयालातों वाले बिल्कुल ना थे। इन्हीं में से कुछ ऐसी नज़रें भी होती हैं, जो उसके जीवन, अल्हड़ अठखेलियों से भरे लड़कपन को ही कुचलने का प्रयास करने लगती हैं। कभी दादी नानी की नज़रें बनकर चेतावनी मिलती है कि, "लड़की बड़ी हो गई है। उसे इतनी ज़ोर से हंसना नहीं चाहिए। धीमे - धीमे बोलना चाहिए", तो कभी पड़ोसियों की नज़र, "बेटी बड़ी हो गई है। इसका विवाह कब कर रहे हैं ?", और कभी गली - मोहल्ले के जवान लड़कों की नज़र, "क्या दिखती है यार! एकदम छम्मकछल्लो, पटाखा,.....और पता नहीं क्या क्या।
यही वज़ह थी कि लड़की के मां - बाप बहुत चिंतित रहते थे। कहीं कोई दा़ग ना लग जाए उनके घर की इज्ज़त पर। यही डर उन्हें खुद ही अपनी बेटियों का बचपन उनसे छीन लेने पर मजबूर करता था। अठारह की हुई नहीं कि समाज के तानों और लोगों की बुरी नज़रों से डरे हुए मां - बाप अपनी बेटी का विवाह तय कर देते थे। और इन सब के बीच घुट - घुटकर दम तोड़ देते थे लड़कियों के अरमान। शादी से पहले पिता की कैद और शादी के बाद पति की कैद, बस यही तो बसेरा था इन सोन चिड़ियां का। ससुराल का वह पिंजरा, जहां हर बात पर घर वालों का दिल जीतने के लिए अपने अरमानों की बलि चढाना होता था, उन्हें पूरी तरह तटस्थ बना देता था। वे पिंजरे में कैद ऐसा पंछी बनकर रह जाती थी, जिनके पर उड़ान भरने से पहले ही काट दिए जाते थे।
स्नेहा भी उन्हीं लड़कियों में से एक थी। पर स्वभाव से बिल्कुल अलग। दुनियादारी से बेपरवाह, बेखबर, अपनी ही धुन में मस्त। पर उस एक शाम ने उसकी पूरी ज़िन्दगी ही बदल दी।
उसे कुछ दिनों से लग रहा था कि जैसे कोई उसे घूर रहा है, उसका पीछा कर रहा है। पर वह कहां ध्यान देने वाली थी इन सब पर। उसने तो कभी किसी घटना को इतनी गंभीरता से लेना सीखा ही नहीं था। बिल्कुल मस्तमौला थी वह स्वभाव से। एक शाम जब वह अपने बगीचे में अपनी दोनों बहनों के साथ टहल रही थी तो कोई चीज़ उसकी पीठ से टकरा कर नीचे गिरी। उसने पलट कर देखा तो कागज़ का एक पुलिंदा सा पड़ा था और करीब बीस कदम की दूरी पर खड़ा एक लड़का उसे इशारे कर रहा था। उसे कुछ समझ नहीं आया। उसने डरते - डरते वह कागज़ उठाया और घर आ गई। चुपके से रसोई में जाकर उसने बिना खोले ही वह कागज़ अपनी मां को थमा दिया और पलकें झुकाए अपनी कमर तक लंबी चोटी से खेलने लगी। मां ने जब खोलकर उसे पढ़ा तो एक पल के लिए हतप्रभ रह गईं। उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि वह क्या कहें और उन्हें कुछ कहने का हक था भी कहां। आखिर वह भी तो औरत ही थीं। फैसला तो पिता को ही सुनाना था सो सुना दिया।
बिना किसी अपराध के छः महीने की कैद की सजा मिल गई थी उसे। घर की उस चार - दिवारी में कैद कर दिया गया था उसे। घर से बाहर निकलना बिल्कुल बंद हो गया। इन छः महीनों में सूरज की एक किरण से भी उसका वास्ता ना था। उसकी छोटी बहनें बाहर जाती, खेलती पर वह घर की दहलीज के बाहर एक कदम भी नहीं रख सकती थी। इन छह महीनों ने उसके मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा था और अब वह पहले जैसी बिल्कुल ना रही थी। अपने में ही सिमट कर रह गई थी वह। बिल्कुल शांत और गंभीर।
और फिर जैसे ही उसने अठारहवें साल में कदम रखा, उसका विवाह तय कर दिया गया। और यहां से शुरू हुई एक नयी कैद और एक नया पिंजरा। पहले माएके की और अब ससुराल की इज्ज़त रखने का भारी बोझ बिना उसकी मर्ज़ी जाने ही लाद दिया गया था उसके कंधों पर।
"ममा, नाश्ता लगा दिया है क्या ?" शिवांगी की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। उसकी पलकें गीली हो चुकीं थी।
"हां बेटा, बस अभी लाती हूं।" कहकर वह अपने आंसुओं को छिपाते हुए नाश्ता लगाने लगी।
आज उसे बहुत गर्व महसूस हो रहा था खुद पर। आज वह अपने और अपनी बेटी के जीवन के फैसले लेने के लिए स्वच्छंद दी। अब कोई पिंजरा ना था और ना ही वह कुल की मर्यादाओं और मान को बनाए रखने के नाम पर कैद करने वाली मोटी - मोटी सलांखें।
"नहीं बनेगी मेरी लाडो पिंजरे में कैद पंछी। नहीं चढ़ाएगी वह अपने अरमानों, अपने सपनों की बलि। नहीं काटने दूंगी मैं किसी को उसके पर। वह अपने सपनों की उड़ान ज़रूर भरेगी। निरपराध होते हुए भी कोई सजा वह नहीं काटेगी। वह अपने साथ - साथ मेरे सपनों को भी जिएगी।" मन ही मन सोचते - सोचते स्नेहा बेसाख्ता ही मुस्कुरा उठी। मां के मन में चल रहे विचारों के इस तूफान से बेखबर शिवांगी निष्फिक्र होकर ब्रेड पकोड़े का लुत्फ़ उठा रही थी।