पुरुष
पुरुष
कहती ही हूँ सुनो !
कभी सुनते ही नहीं हो, वो जो मैं कहती भी नहीं हूँ, वो जो तुम जानते ही नहीं हो, आदिम सोच कि देह की देहरी पर ही औरत शुरू और ख़त्म हैं ना ?....कभी-कभी लगता कि काश शब्दों के अर्थ भी जानते अगर देह देहरी हैं तो मन घर हुआ ना ?...कभी उस घर में बसने की रमने की कोशिश की होती तो देह तक न सोचते न डरते, कि ठोकर लगी तो !....आराम से घर मे रहते एक छत्र राज्य करते हुए, लेकिन तुम्हें तो हर बार बस देहरी से लौटने की आदत न, जानते भी हो देहरी के बाहर से याचक गुहार लगाते।
एक मन हैं इस देह के अंदर जिसके अंदर एक किवाड़ हैं और सांकल अंदर से बन्द हैं। मन दुःखे, रोये कलपे, सपने बिखरे तब उतने ताले अंदर से और लगते जाते उस किवाड़ पर। कोई जंग असर नहीं करता उस पर क्योंकि उसे तुमने देखा ही नहीं जो खोल पाओ और उस मन मन्दिर में विराजमान हो पाओ। शायद कोणार्क के सूर्य मंदिर के तरह अधिकतर औरतों के मन मन्दिर में देवता नहीं हैं और तभी वो मात्र पर्यटक स्थल की तरह....।।