पुरखा
पुरखा
बैलों के गले की घंटी रह रह कर बज उठती. मोहन मुँह अंधेरे ही कंधे पर हल टांगे बैलों को हाँकता खेत की ओर निकल पड़ा था. पहटिया गाँव की गलियों में घूम-घूम कर हाँका लगा रहा था, ताकि लोग अपने गाय बैल ढील सकें. बस्ती में जाग होने लगी थी, अपने- अपने घरों के सामने महिलाएँ छरा - छिटका देने में लगी हुई थीं. मुर्गे की बांग, गाय के रंभाने की आवाज, गली में खरहरे की खर...खर सन्नाटे को भंग कर रही थी. गाँव के इकलौते तालाब से पंडित रामदीन महाराज भोर होने से पहले स्नान कर मंत्रोच्चार करते चले आ रहे थे. पूरब में लालिमा दिखने लगी थी. पंछियों का कलरव सोए हुए लोगों को बिस्तर छोड़ने का संदेश दे रहे थे. मोहन को खेत की राह पर और भी कई लोग मिले. सबसे राम राम करते मोहन खेत की ओर चला जा रहा था. महिलाएँ सिर पर झौंआ लिये बदरी के पीछे गोबर बीनते चली जा रही थीं. पूरब में अरुणाभ झलकने लगी थी. पंछी झुंड में आसमान में परवाज भरने लगे थे. मोहन का खेत गाँव के आखिरी सिरे पर था. दो साल ही तो हुए हैं जब उसे ये जमीन मिली है- मुआवजे के तौर पर. उसके पहले ये जमीन परिया भाठा थी. जमीन नपाई के दूसरे सप्ताह सरकारी ट्रेक्टर और बड़ी मशीन वाली जेबीसी गाड़ी आई थी गाँव में. जिन्हें भी सरकारी जमीन मिली थी, एक सप्ताह के भीतर बंजर भाठा को खेत का आकार दे दिया था इन मशीनों ने. मोहन और रघु ने खूब मेहनत की इन खेतों में, पत्थरों को बीन-तोड़ कर खेतों से बाहर किया. पिछले साल तो फसल कमजोर थी, बरसात भी नहीं हुई थी ठीक से. लेकिन इस साल पहले से ही हाड़तोड़ मेहनत की थी बाप-बेटे ने. बारिश आते ही खेत में बुआई कर दी, समय पर निराई गुड़ाई, बियासी करने और खाद डालने से फसल अच्छी हुई थी इस साल नहर भी आ गया था. किसानों को नहर से पानी मिलने लगा था. किसान दोफसली की तैयारी में लग गये. नहर मोहन के खेत के पास से ही निकली थी, वह जब चाहे तब अपनी खेतों में सिंचाई कर सकता था... अब अकाल पड़ने की आ शंका नहीं रह गई थी... रास्ते भर मोहन यही सब सोचता चला जा रहा था. कब खेत पहुंच गया पता ही न चला. मेड़ पर कंधे से हल उतार कर रखा, बैलों को हांक लगाई और जुड़े से फांद दिया. खेत में धान के पौधे एक-एक बीता से अधिक ऊँचे हो गये थे. दोफसली खेती थी. बुआई का समय हो चुका था. मोहन ने हल खेत में उतार दिया. अररर्... तततत्... की आवाज से बैल हल में जुते हुए घुमाने लगे. हल जोतते हुए चार घंटे से अधिक हो चुके थे. सूरज आसमान में चढ़ आया था. मोहन पसीना पसीना हो रहा था. बैलों की चाल में थकान दिखने लगी थी. मोहन ने हल बैल को किनारे लगाया. और बैलों को जुआरी से खोल दिया, और मैदान की ओर हांक दिया. बैल घास चरने लगे. हल को मेड़ पर रख मोहन नहर की ओर बढ़ गया.
नहर में साफ पानी बह रहा था. उसने गमछा किनारे रखा और अपना हाथ- पैर धोने लगा. पानी को हाथ लगाने से उसे बड़ा सुकून मिल रहा था, जैसे वह अपने पुरखों से आशीर्वाद ले रहा हो. और खो गया बीते दिनों की यादों में...
... मोहन... अपने माता-पिता का इकलौता बेटा.
कितनी मन्नतों के बाद तो उसका जनम हुआ था. उसकी माँ बताती थी. शादी के आठ बरस हो गये थे, लेकिन आंगन में बच्चे की किलकारी नहीं गूँजी तब सासू मां ने कहा था- ‘‘इस घर का वंश आगे नहीं बढ़ेगा, बाबू की दूसरी शादी कर देते हैं ताकि पुरखों को पानी देने वाला कोई तो हो. पर बाबू ने साफ मना कर दिया था. किस हकीम की दरबार में हाजिरी नहीं भरी, किस-किस देवालय में जाकर दूब-फूल-पान नहीं चढ़ाये, जितने लोग उतनी सलाह और बाबू सबकी बात मानते, जो जहां कहा, वहां गये, जिसने जैसा कहा, वैसा किया. जब सब लोग नाउम्मीद हो गये थे तब बहू की कोख हरी हुई और दसवें माह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बेटे का जन्म हुआ, इसीलिये नाम मोहन रखा गया. इकलौते दुलारा बेटा मोहन सबके आंखों का तारा था... समय के साथ वह बड़ा होने लगा. गांव में पाँचवीं तक स्कूल, बाबू ने मोहन के छः बरस होते-होते उसे स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. मोहन स्कूल में सबका दुलारा... और इसी दुलार ने उसे पढ़ाई से दूर रखा. जैसे- तैसे पाँचवीं तो उसने पास कर ली, पर आगे की पढ़ाई के लिये वह दूसरे गांव जाने को तैयार न हुआ. पढ़ाई तो छूट गई, अब वह बाबू के साथ गांव का चक्कर लगाता. उनके कामों में हाथ बटाता, कभी गांव के बाहर नदी के किनारे गाय - बैल चराता,, बांसुरी बजाता तो कभी अपनी मां के साथ लकड़ी बीनने, पत्ता तोड़ने जंगल की ओर निकल जाता. उसे अच्छा लगता था... बाबूजी के काम में हाथ बटाने में... मां के साथ जंगल पहाड़ियों में लकड़ी- पत्ता तोड़ने जाने में.
बाबू ने कहा है... इस साल गांव में मेला लगेगा... देवगुड़ी में आसपास के देवी-देवता आएंगे, जात्रा होगा, लोग अपनी मन्नत के अनुसार पुजा-पाठ, चढ़ावा आदि की व्यवस्था करेंगे. जात्रा तीन दिन तक चलेगा, आसपास के हजारों लोगों का जमावड़ा होगा. बाबू गांव का पुजारी है, क्षेत्र में सब उन्हें मानते हैं. किसी को कोई भी तकलीफ हो, सबकी हाजिरी बाबू के दरबार में होती. सब मानते कि बाबू पर देवी की कृपा है, साक्षात होकर बाबू से संवाद करती है. लोग आते, तो उनके हाथ में चावल का दोना होता, किसी के हाथ में काली मुर्गी का बच्चा या अंडा. बाबू आंगन में बने देवी चौरा के सामने उन्हें बिठाते और खुद सामने बैठ जाते.... सामने होता वो... जिसे कोई तकलीफ होता. बाबू अपने लंबे बालों को खोल लेता... दोने में रखे चावल को सूप में डाल लेता. कभी एक एक कर गिनने लगता तो कभी चावल के दानों को होंठों में कुछ बुदबुदाते हुए सामने वाले के सिर पर डालता. धीरे- धीरे बाबू का शरीर अकड़ने लगता... कांपने लगता... बुदबुदाने का स्वर तेज... और तेज होता चला जाता... फिर सामने वाले के दुख-तकलीफ के बारे में बताने लगता... कुछ पूछता भी जाता... फिर दुखों के निदान का उपाय बताता... ऐसा लगता मानों सामने वाले का दुख उसी क्षण से ही कम होने लग गया हो... धीरे- धीरे सब कुछ फिर सामान्य हो जाता... पहले की तरह...मोहन अकेले में पूछता भी... ‘‘बाबू... तुम्हें क्या हो जाता है...? ये क्या करते हो...? पूरा शरीर कैसा हो जाता है...?’’
बेटा... आधि- व्याधि तो संसार में सबकी लगी रहती है. जो इस दुनिया में आता है, उसे एक दिन जाना भी होता है. पर वह जितने दिन जीता है... सुखी रहना चाहता है... फिर सुख और दुख की परिभाषा भी तो सब अपने- अपने हिसाब से तय करते हैं. बाहरी सुख भले धन-दौलत में हो, पर भीतरी संतोष तो मन के भीतर है... मन चंगा तो कटौती में गंगा... कभी- कभी मन और तन दोनों दुख देते हैं... यहां जो आते हैं ऐसे ही लोग होते हैं... आते हैं तो मैं इनके लिये ऊपर वाले से दुआ कर देता हूं... वो ऊपर बैठा सबकी सुनता है...’’
‘‘बाबू... जो आते हैं क्या सब दुखी होते हैं...?’’
‘‘बेटा... सुख में तो इंसान भगवान को भी याद नहीं करता... जब उसे कोई तकलीफ होती है तो वह मंदिर मस्जिद की ओर भागता है... हम लोग गांव के देवगुड़ी के पुजारी हैं... हमारे पुरखा बरसों से यहां पूजा पाठ कर रहे हैं... माई जी का... आने वाले समय में तुमको ही सब संभालना है... देवगुड़ी तो पूरे गांव का है... पर कई पीढ़ी से पुजारी तो हमारे परिवार से हैं... इसीलिये तो अब तुम्हें सभी जगह साथ ले जाता हूं, ताकि तू सब जान ले... जब तक मैं जिंदा हूं मेरा हाथ बँटा... जान समझ ले...’’
और मोहन... जैसे सब समझ गया... पूजा करने से... मंत्र पढ़ने से सब दुख दूर होता है... और एक दिन बाबू को ऊपर वाले ने बुला ही लिया.
मोहन अब गांव का नया पुजारी बना. सब उसे बहुत मानते थे. मान- इज्जत उसे विरासत में मिली थी. ऊपर वाले की भी मेहरबानी थी उस पर. जिसके सिर पर हाथ रख देता, उसका जैसे सब दुख दूर हो जाता. अब तो मोहन की पूछ परख आसपास के गांवों तक बढ़ गई. न्याय पंचायत में भी बुलावा आने लगा. जात्रा के समय आसपास के अठारह गांव के पुजारी अपनी ग्रामदेवता को लेकर वहां आते, गुड़ी में सब देवी देवताओं के सेवा का जिम्मा मोहन पर होता. उस समय मोहन को दम मारने का भी फुरसत नहीं होती. नदी किनारे चारों ओर सबका डेरा लगता, पेड़ की शाखाओं से टिका कर देवी देवताओं के बड़े बड़े बने रखे जाते. ध्वज, फूलों से सजी मंडई रखे जाते. अलग अलग डेरे पर देव चढ़ने से पुजारी झूमते नजर आते. उनके चारों ओर दीन दुखियों की भीड़ लगी रहती. सब अपनी अपनी रीति अनुसार पूजा पाठ करते, सामने पूजा का सामान, दोनों में चावल और अंडा, साथ में टोकाने के लिये मुर्गी का काला चूजा.
तीन दिनों तक यही सब चलता रहता नदी के किनारे... दूर दूर से लोग इस जात्रा में आते. दूकानें सजती, झूले लगते, बड़ी चहल पहल होता... और तीन दिनों के बाद न टूटने वाली खामोशी... मरघट सा सन्नाटा...
एक दिन मोहन लाड़ी में चटाई डालकर मोहन बैठा हुआ था कि गांव का पटेल आ गया, उसे बुलाने के लिये... गांव में बैठका है, शहर से साहब लोग आ रहे हैं, पटवारी खबर देने खुद आया था. कोटवार गांव में हांका लगा रहा है.
‘‘पर बैठका किस बात का पटेल’’
‘‘क्या पता... तहसीलदार, एसडीओ सब आ रहे हैं... सबको बैठका में रहना है... हुकुम हुआ है...’’
‘‘चलो फिर...’’ - और दोनों चल पड़े गांव में बैठका पंचायत देवगुड़ी के सामने के बड़ के पेड़ के छांव तले होता है. पुजारी और पटेल जब वहां पहुंचे, तो गांव के बहुत लोग वहां जमा हो चुके थे. इन पर नजर पड़ते ही सबने राम राम की, बैठने को जगह दी. सबके मन में जिज्ञासा थी कि आखिर बैठका क्यों बुलाई गई है. सब अनजान... सबके अपने अपने कयास... ‘‘ पटवारी जनाब बुलाये हैं, उन्हें ही पता होगा.’’
थोड़ी ही देर बाद पटवारी जनाब पहुंचे. सबने राम राम की, बैठने के लिये कुर्सी दी.
‘‘जनाब... काहे का बैठका है...’’- कई लोगों ने एक साथ प्रश्न दागा.
‘‘भई, ठीक से तो मैं भी नहीं जानता... पर तहसीलदार साहब आ रहे हैं, वही बता पाएंगे’’
‘‘कुछ तो पता होगा...’’
‘‘हां इतना तो पता है कि सरकार इस क्षेत्र के विकास पर विशेष ध्यान दे रही है, बार बार अकाल पड़ता है, फसल वर्षा पर निर्भर है, सिंचाई की कोई सुविधा नहीं है।, सरकार इस क्षेत्र में नहर द्वारा सिंचाई सुविधा देगी, इसी के बारे में बैठका है.’’
‘‘ये तो अच्छी बात है, नहर आने से एक की जगह दो फसल ले पाएंगे हम लोग. मेहनत तो करते हें पर पानी बारिश तो अपने हाथों नहीं है न...’’
जितने लोग उतनी बातें... सब खुश श... गांव में नहर आएगा...पानी मिलेगा... अब दो फसल के साथ साग-सब्जी भी उगा सकेंगे...गांव के पास से ही नदी बहती है... तब भी गांव के अधिकांश श लोग गरीब. पानी पंप भला किसके पास है? कभी-कभी तो एक फसल लेना भी मुश्किल...
तभी दूर धूल उड़ती हुई दिखी... मोटर की आवाज भी आने लगी...जीप पास आकर रुकी... साहब लोग आ गये. तहसीलदार साहब और एसडीओ साहब...पटवारी, पटेल, कोटवार ने अगवानी की. सबने राम राम, जोहार किया. वहां रखी प्लास्टिक कुर्सी को पटका से झाड़-पोंछ दिया गया.
गांव में एक बार पहले भी आये थे एसडीओ साहब...लेकिन तब ज्यादा देर रुके नहीं थे. आज तो खास यहीं आए हैं.
साहब ने गांव के पुजारी, पटेल, कोटवार और मुखिया लोगों को अपने नजदीक बुलाया. सबको कुर्सी पर बिठाया. और बोला- ‘‘देखो सियान लोग... इस क्षेत्र में बार-बार अकाल पड़ रहा है, पास में नदी होकर भी सिंचाई सुविधा नहीं है. सरकार चाहती है कि यहां के लोग खुशहाल रहें, अच्छी खेती करें, मंत्री जी ने इस क्षेत्र के लिये विशेष प्रस्ताव भेजा है. आप लोग क्या सोचते हो?’’
‘‘हम लोग क्या सोचेंगे साहब... सरकार तो हमारे भले के लिये सोच रही है, गांव में नहर आए, सिंचाई सुविधा बढ़े, दो फसल लेंगे तो हमारा ही भला होगा... जो करना है सरकार करे...’’
‘‘इस क्षेत्र के चालीस-पचास गांवों के हजारों एकड़ खेत को नहर से पानी मिलेगा... सिंचाई होगी... सभी लोग समृद्ध होंगे...’’
‘‘ये तो अच्छी बात है साहब...’’ - पटेल, पुजारी के साथ सबने हां में हां मिलाई.
‘‘लेकिन... नहर के लिये बांध बनाना पड़ेगा, और बांध बनाने के लिये सर्वे होगा... बहुत बड़ा बांध बनेगा... पहाड़ी से लेकर इस बस्ती के आगे तक... जहां तक सर्वे होगा, वहां तक की जमीन डुबान में आ जाएगा... बस्ती खाली करनी पड़ेगी.’’
‘‘ऐसा नहीं होगा साहब...’’ पूरा गांव एक साथ चिल्ला पड़ा.
‘‘भले बांध न बने, पानी मत मिले, पर हम अपने पुरखों की जमीन नहीं छोड़ेंगे.’’
‘‘देखो भाई्र... मैं आप लोगों को जमीन छोड़ने के लिये नहीं कह रहा हूं...जहां सर्वे होगा, जमीन नापी जाएगी... वहां के लोगों को जमीन जरूर छोड़नी पड़ेगी... पर ऐसे ही नहीं... सरकार मुआवजा देगी... जमीन के बदले जमीन देगी... तब जमीन छोड़ने को कहेगी...’’
कुछ लोगों ने चीख कर कहा-‘‘हम लोग यह जगह नहीं छोड़ेंगे... चाहे जमीन मिले या मुआवजा... हमारे पुरखों की जमीन है यह... उनकी अस्थियां गड़ी है यहां के मरघट में... उनके राख बिखरे हैं नदी के किनारे... यहां के पेड़ों में उनके अस्थि कलश बंधे हैं... घाट घरौंदों में दिए जले हैं... पीतर तर्पण किया है हम लोगों ने उनका यहां पर...’’
‘‘जमीन तो जमीन है साहब... कोई सामान नहीं जिसके बदले में लेनदेन कर लो... इसमें तो हमारी आत्मा बसी है... हमारे गाय गोरू तक इन हवाओं और माटी की खुशबू को जानते पहचानते हैं...सिरिफ जमीन मुआवजा ही तो देगी सरकार... हमारे घरों में जो कुलदेवता हैं, गांव के सीमान में जो भीमा भीमीन देव हैं... देवगुड़ी है... जात्रा थान है... उनका क्या होगा? क्या देवी देवता के बदले में सरकार हमें देवी देवता भी दे देगी?’’
‘‘कितना जतन से हम लोगों ने गांव बाड़ी, तालाब, खेत खार में पेड़-पौधा लगाया है क्या बदलें में सरकार हमें ऐसा ही रुखराई लगाकर दे देगी...’’
‘‘साहब... पट्टा वाले को तो जमीन मिल जाएगी... लेकिन पुरखा समय से जिस जमीन पर हम कमा रहे हैं पट्टा नहीं है तो क्या हुआ... वो जमीन तो हमारी है, हमारी धनलक्ष्मी है, हमारी धरती मैया है, क्या होगा इन सबका...’’
‘‘नहीं साहब... हमको नहीं चाहिये नहर... बांध... हम जैसे हैं, सुखी हैं, जी रहे हैं, जो मिल रहा है, जितना मिल रहा है हमको उसी में संतोष है...’’
कुछ युवाओं ने आक्रोश से कहा- ‘‘हम जान भी दे देंगे, पर जमीन नहीं देंगे...’’
‘‘हां-हां नहीं देंगे...’’ - कुछ ओर लोगों ने स्वर में स्वर मिलाया.
‘‘ठीक है... ये तो प्रस्ताव है, सरकार की तरफ से... सोचना आप लोगों को है...पर फायदा इसी में है... जितनी जमीन है, उतनी जमीन तो मिलेगी ही, पक्का घर सबको अलग से..., बना-बनाया... सभी सुविधाओं के साथ... और साथ में नकद मुआवजा भी... बांध बनेगा तो उसमें काम भी मिलेगा...जमीन भी इसी गांव के आजू-बाजू के गांव में...सिंचाई का लाभ भी मिलेगा... सरकार किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करेगी...अपनी भलाई खुद को सोचना है, जोश से नहीं होश से काम लो...’’
तहसीलदार, एसडीओ, पटवारी जनाब वापस चले गये, पर जो शगूफा छोड़ गए थे, घंटों खलबली मची रही गांव में, गांव के लोगों में, लोगों के दिलों में... जितने लोग... उतनी ही बातें... कुछ तो ये भी कहने लगे थे, यदि जमीन के बदले जमीन, घर के बदले घर और मुआवजा भी मिले तो क्या हर्ज है, फिर जमीन भी तो बाजू वाले गांव में ही मिलेगी.
उस रात गांव में अंधेरा कुछ ज्यादा ही उतर आया था. सबके घर में जाग थी. पर सन्नाटा हर गली देहरी पर पसरा हुआ था. बिस्तरों पर सो तो सब रहे थे, पर नींद किसी के भी आंख में नहीं थी.
तीन दिन तक गांव में कोई नहीं आया, फिर भी एक ही चर्चा, सहमति-असहमति की बातें होती रहीं.
चौथे दिन आए मंत्रीजी. इसी क्षेत्र से चुनाव जीतकर मंत्री बने हैं वर्माजी. पटेल के घर के सामने उनकी गाड़ी रुकी. गांव के लोग उमड़ आए... इसी गली में... मंत्रीजी बिना किसी पूर्व सूचना के आए थे.... साथ में कोई लाव-लश्कर भी नहीं... सबसे जय जुहार की. सबको लगा... मंत्रीजी उनके सुख-दुख में शामिल हैं. बांध, जमीन, नहर, मुआवजा की भी बातें होने लगी... मंत्रीजी बोले- ‘‘किसी का अहित नहीं होने देंगे... जिसमें सबकी सहमति और भलाई हो, वही काम होगा. चिंता की कोई बात नहीं है...’’
लोग आश्वस्त हुए, कुछ लोग अपने काम में लग गए. वहां रह गए तो पटेल, कोटवार, पुजारी और गांव के कुछ मुखिया... सब शंकित थे... मंत्रीजी बिना तामझाम के जो आए थे.
मंत्रीजी पटेल से मुखातिब हुए- ‘‘पटेल तुम्हारा लड़का क्या कर रहा है?’’
‘‘इस साल दसवीं पास किया है, पास के गांव में ग्यारहवीं पढ़ रहा है’’
‘‘क्या बनेगा वो बड़ा होकर वो...’’
‘‘क्या बनेगा मंत्रीजी वो, मेरी जगह पटेली करेगा गांव में...’’
‘‘पटेल लोगों का अब पहले जैसा पूछ-परख कहां है? जो पुश्तैनी से चली आ रही है वही मान-मर्यादा ही तो रह गया है अब...’’
‘‘वो तो है...’’
‘‘फिर ऐसा कब तक चलेगा... पहले खेत-खार जमीन का पट्टा वसूली करते थे तो पटेल की पूछ परख होती थी... अब तो ये सब काम पटवारी करता है... खर्चा भी बढ़ रहा है रोज के रोज... आमदनी नहीं बढ़ेगा तो कैसे चलेगा.’’
‘‘वो तो है मंत्रीजी... पर क्या कर सकते हैं बारहवीं पास हो जाएगा तो कहीं मास्टर-वास्टर हो जाएगा तो अपने परिवार का पेट तो चला ही लेगा...’’
‘‘मास्टर कहां बनेगा... किस गांव के स्कूल में, यहां तो अभी तक स्कूल भी नहीं खुल पाया है...’’
‘‘आसपास के गांव में जहां जगह खाली होगा... जहां उसकी नौकरी लगेगी... पहले उसकी नौकरी तो लगे...’’
‘‘फिर तो बेटा तुमसे अलग रहने लगेगा...’’
‘‘हां वो तो है, नौकरी-चाकरी भला कब किसको अपने गांव में मिलती है?’’
‘‘अच्छी जिंदगी जीने के लिये गांव छोड़ना पड़े तो बेटे के लिये मंजूर है, और अपने लिये यही बात खुद पर लागू हो तो क्या खराबी है?’’
सब सोच में पड़ गये.
मंत्रीजी बोले-‘‘गांव में भी अपना घर बाड़ी के भीतर जगह बदल-बदल कर बनाते हो, जरूरत पड़ने पर जमीन बेच भी देते हो. तब तो जमीन पर न मालिकाना हक रहता है, न मोह. पास के गांव में घर और जमीन मिले तो क्या बुराई है? वह भी तुम्हीं सबके भले के लिये...घर जमीन सरकार छीन के तो ले जाएगी नहीं, उल्टा तुम्हें घर बना के देगी... जिनके घर पक्का के नहीं हैं उन्हें भी... बारहवीं पास करके बेटे को नौकरी भी वहीं मिल जाएगी... और घर जमीन भी...बाप-बेटा दोनों संग रहोगे... साथ में गांव की सरपंची भी... सोचना इस बारे में पटेल... और तुम लोग भी... ऐसी सुविधा तुम सबको मिले तो क्या बुराई है? जिसमें अपना और आने वाली पीढ़ी का भला हो वही करना चाहिये... जमीन जायदाद कौन सा खुद लेके इस दुनिया में आये थे... जाओगे तब भी कुछ लेके नहीं जाओगे... जहां तुम रहोगे तुम्हारी आने वाली पीढ़ी उसे ही अपनी पुरखौती जमीन कहेगी... बाल बच्चों की सुख के लिये ही... सोचना तुम लोग इस बारे में...अच्छा लगे तो गांव के और लोगों से भी बात करना... जिनके पास पट्टा नहीं है... जो सिर्फ जमीन पर काबिज हैं उन्हें भी जमीन और घर मिलेगा...पट्टा सहित...मुआवजा भी... चलता हूं... परसों घर आना पटेल, पुजारी तुम भी... और तुम सब लोग भी... सत्यनारायण की पूजा है... बाकी बात वहीं करेंगे...’’ और मंत्रीजी गाड़ी में बैठ गये. पीछे छोड़ गये सोचों की गुबार... जिससे अट गये बैठे हुए लोग... होने लगी चर्चाएं... देर तक...
‘‘मंत्रीजी ठीक ही कह गये हैं...आखिर हम लोग बाड़ी के भीतर ही सही, जगह बदल-बदल कर घर बनाते हैं... कभी एक पारा से दूसरे पारा में भी बस जाते हैं, यदि पास के गांव में चले गये तो क्या फर्क पड़ लाएगा... सरकार घर जमीन पट्टा के साथ मुआवजा भी तो दे रही है...’’
वहां बैठे सभी लोगों ने सहमति जताई... पर जेठू ने डरे हुए पूछा- ‘‘पटेल, हमारी जमीन तो है, पर पट्टा नहीं... आज सबके कहने पर गांव जमीन तो छोड़ देंगे...यदि हमें सिर छुपाने को जगह नहीं मिला तो हम क्या करेंगे... कहां जाएंगे... जमीन नहीं रही तो क्या खाएंगे... पहले भी ऐसा होता रहा है...नहीं... नहीं पटेल... जब तक हमको जमीन नाप कर नहीं दिखा देंगे हम अपनी जमीन यहां नहीं छोड़ेंगे...’’
‘‘इसकी चिंता मत करो जेठू... पूरा गांव एक साथ है... जब तक जमीन नहीं नापेंगे, गांव का कोई भी व्यक्ति गांव छोड़कर नहीं जाएगा...’’
सबने एक स्वर में हामी भरी... रात गहरा चुकी थी, ठीक उनके पेशानी पर की रेखाओं की तरह... सब थके बुझे-मन से अपनी घरों की ओर चले गये, पर सबके मन में विस्थापन का डर... जमीन छोड़ने की चिंता... और इन सबसे अधिक, अपनों से बिछड़ने की आ शंका... जरूरी नहीं कि सबको एक ही गांव में जमीन मिले... आसपास के गांवों में सब बिखर जाएंगे... बस जरूर जाएंगे,.. पर सबका नया पड़ोस होगा... नया परिवेश होगा...
मोहन सोच में डूबा हुआ ओसारे पर लेटा हुआ था. नींद आंखों से कोसों दूर थी... कितने मन्नतों के बाद तो उसका जनम हुआ था... घर के आंगन में पीपल के पेड़ के नीचे उसका नाल गड़ा था. आंगन से लगे कोठे पर कलोर गाय बंधी थी, कलोर गाय जब जनमी थी तो दोनों ने ही काली गाय के थन से दूध पिया था, इसी आंगन में... काली गाय इतनी सीधी कि कोई भी दुह ले... मोहन और काली बछिया साथ-साथ खेले और बड़े हुए, अब ये आंगन छूट जाएगा... दोस्तों के साथ कोठी के गोड़े में घुसकर छुपा-छुपी का खेल खेला करते थे... अपनी ही बाड़ी से खीरा-ककड़ी चुराकर दोस्तों के साथ खाया था उसने... दाई और बाबूजी की नजर बचाकर... रसोई से लेकर आंगन तक... गली, खेत, तालाब, नदी किनारे तक मोहन की धमाचौकड़ी मची रहती... गांव में स्कूल तो थी नहीं, पढ़ाई भी नहीं कर पाया मोहन... बाबूजी के साथ देवीगुड़ी जाने लगा... उनका हाथ बटाने लगा... नदी किनारे देवीगुड़ी का हर कोना-खुदरा उसका अपना था. देवी माई उसकी पुरखिन माई थी... अकेले में घंटों माईजी की मूर्ति के पास बैठकर पूजा करता... बातें करता... उनका खेत पास ही था, खेत आते जाते उसके कदम जरूर ठिठक जाते. उसके जनम के साथ रोपा गया पौधा अब विशालकाय पेड़ बन चुका है... इस पेड़ की शाखाओं में दोस्तों के साथ उसने डंडा-पचरंगा, छुआ-छुऔला खेला था, इकी शाखाओं से गिल्ली-डंडा बनाया था... गोबरखत्ता खेला... यह पेड़... उसका अपना... साथ-साथ बड़े हुए... अब यहां बांध बनेगा... सब डूब जाएगा... उसके बचपन के ये मूक पर सजीव साथी... नहरें निकलेंगी यहां से...आसपास के खेतों में सिंचाई होगी... किसान दो-तीन फसल लेंगे... लेकिन इन पेड़ों के बिना कैसे कटेगी ये जिंदगी... इन पेड़ों में पुरखों की अस्थि महीनों टंगी रही है... दीये जलाये हैं इसकी जड़ों में... पीतर -पानी दिया है घाट में... कुकुर-कौओं ने जब भी पीतर का रोटी-भात खाया, मन तृप्त हुआ... चलो पीतर भी तृप्त हो गये... अब उनकी आत्मा नहीं भटकेगी... यह जगह जब छूट जाएगा तो उनके पुरखों का पीतर-पानी...? क्या इन पेड़ों... यहां की हवाओं... इन यादों का कोई मुआवजा हो सकता है...? पर सोचना होगा आने वाले कल के लिये... मोहन की आंखों से आंसू बह निकले... आंखों में ही सारी रात कट गई.
दूसरे दिन गांव में बैठका हुआ... सब लोगों ने माना कि गांव छोड़ने में ही आने वाली पीढ़ी की भलाई है...
अगले छः महीने तक आसपास के खाली पड़े जमीनों की नपाई होती रही... मशीनों से पत्थर हटाए गए... ट्रेक्टर से जुताई होने लगी, मेड़ बनाए गए... किश्तों में मुआवजा मिला... और घर भी... एक दिन गांव के लोगों ने अपना सामान, ढोर-डंगर के साथ गांव छोड़ दिया...रह गई तो उनकी यादें... वो जमीन, मिट्टी की सोंधी खुशबू, पेड़-पौधे, पुरखों की अस्थियां, देवगुड़ी और यहां के फिज़ाओं में बसी बिताए हुए दिनों के यादों की महक...
सर्वे हुआ, नक्शा पास हुआ, बड़ी-बड़ी मशीनें आईं, लोगों को रोजगार मिला, कुछ महीनों में बांध बनकर तैयार हो गया... मंत्रीजी आए, बड़ा उत्सव हुआ... मंत्रीजी ने फीता काटकर बांध का उद्घाटन किया. बांध के फाटक बंद कर दिए गए, नदी का पानी बांध में भरने लगा...जमीन पानी में समाती चली गई... वो देखो... देवीगुड़ी की छत तक भर गया पानी... खाली पड़े मकान डूबने लगे... डूब रहे हैं बड़े-बड़े पेड़... उस पर बसे परिंदे उड़ गये... नई दिशा की ओर... नया नीड़ के लिये तिनकों की तलाश में... सब कुछ डूब गया बांध में... यादों को छोड़कर... आने वाली पीढ़ी तो सहेजकर नहीं रख पाएगी इन यादों को भी... नहरों में पानी बहने लगा... खेतों में समाने लगा...
नहर के पानी में तैरती हुई मछली ने मोहन के हाथ पर टोहका मारा... चौंक पड़ा मोहन... हटा लिया था अपना हाथ... नहर के पानी में खड़े-खड़े न जाने कितने बरसों को जी लिया था उसने... नहर के पानी में उसके पुरखों की छुअन थी, देवीगुड़ी की माईजी का आशीर्वाद था... मोहन ने अंजुरी भर जल लेकर अपने माथे पर लगाया, सिर पर लिया, गांव की ओर देखकर प्रणाम किया.
और कंधे पर हल टांगे चल पड़ा... बस्ती की ओर...
