पुरानी डायरी
पुरानी डायरी
वो गोधूलि बेला थी, हल्की हल्की धूल भरी हवाएं... गुलाबी ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। दिल मे ख़याल आया कि सुबह इनर पहन लेना चाहिए था, मगर सुबह की धूप की वजह से नहीं पहनी।
अब थोड़ी हवा तेज चलने लगी, मुझे अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था तभी एक लहराते हुए ज़ुल्फ़ों की तरह नज़र गयी जो हवाओं की वजह से पूरे चेहरे को ढक लिया था, उसने करीने से अपने हाथों से बालों को पीछे किया और कान के पीछे अपनी लटाओं को।
ये इश्क़-ए-मोहब्बत की रिवायत भी अजीब है,
पता भी नहीं है उसे और उसे खोना भी नहीं है...
ना चाहते हुए भी मैं उसकी तरफ बढ़ता चला गया, सावली सी सूरत पर तेज किसी सूरज की तरह। शायद वो कहीं जाना चाहती थी पर शायद झिझक रही थी किसी से पूछने के लिए।
मैं दबे पाव उसकी तरफ बढ़ रहा था एक संकोच लिए की कहीं मुझे झिड़क ना दे। चूंकि चौराहा या T-पॉइंट ना होने की वजह से ऑटो-रिक्शा नहीं मिल रही थी। बहुत ही आहिस्ते से मैंने कहा ,"हाय, मेरा नाम अनुभव है, अगर आपको परेशानी ना हो तो क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूँ। आप ये मत समझना की मैं फ्लर्ट कर रहा हूँ बस आपकी मदद करना चाहता हूं।”
उसने पूछा कि, “मैं ही क्यों,कोई और क्यों नहीं?”
शायद इसका जवाब नियति के पास था, पर मैं सिर्फ इतना ही कह पाया कि, “मुझे आप ज्यादा परेशान लग रही थीं, शायद इसलिए।”
एक पतली सी मुस्कुराहट लिए उसने कहा, "मेरा नाम संध्या है और आगरा पहली बार आयी है और जिससे मिलने को आई थी वो किसी वजह से लेट हो गई और रिक्शा वगैरा पकड़ के अपने घर आने को बोल दिया।”
मैंने कहा, "संध्या, आपके पास अड्रेस तो होगा।”
उसकी हल्की सी मुस्कुराहट देख के बस एक शेर दिल से निकल आया।
क़यामत टूट पड़ती है ज़रा से होंठ हिलने पर,
ना जाने हश्र क्या होगा अगर वो मुस्कुराये तो।
उसने कहा, “हाँ, वाट्सएप्प पर लोकेशन सेंड कर दिया है बस ऑटो या रिक्शे का इंतज़ार कर रही हूं।”
मैंने तुरंत कहा कि, "संध्या ना ये चौराहा है ना ही टी पॉइंट और तुम्हारे नाम की तरह संध्या भी हो चली है। अगर बुरा ना लगे तो क्या मैं आपको वहां ड्राप कर सकता हूँ जहां आपको जाना है।”
एक नज़र भर के उसने मुझे देखा और कहा कि, “वैसे तो अजनबियों पर मैं भरोसा नहीं करती पर आप कुछ अलग से हैं। चलिए, ये देखिए लोकेशन।”
उसने अपना वाट्सएप्प मुझे दिखाया। तकरीबन 15 मिनिट का रास्ता था। मैं अपनी बाइक रोड साइड से उसकी तरफ ले आया। बड़ी ही नज़ाकत से वो उसपर बैठी और एक हाथ मेरे कंधे पर। कसम से बशीर बद्र का वो कलाम -
तेरा हाथ मेरे काँधे पे दर्या बहता जाता है
कितनी खामोशी से दुख का मौसम गुजरा जाता है
याद आने लगा, खैर मैंने खामोशी तोड़ते हुए उससे पूछा कि, “आगरा में अचानक वो भी अकेले कैसे आना हुआ।”
उसने बताया कि, एक शादी है जिसके सिलसिले में वो आयी है। वैसे वो फिरोजाबाद की रहने वाली है। फिर घर की बातें कौन कौन हैं, क्या क्या करते हैं, वगैरा वगैरा और 15 मिनट में हम उस लोकेशन पर थे जहां संध्या को जाना था। चूंकि शादी का घर था तो लाइटिंग देख के अंदाज़ लग गया। उसने मुझसे मेरा नंबर मांगा और मैंने अपना विजिटिंग कार्ड उसे दे दिया।
वो बाराहवां दिन था जब एक अजनबी का वाट्सएप्प आया-
तोड़ कर हर कसम आपके शहर में...
आ गए आज हम आपके शहर में...
एक नया एक दिन मुलाक़ात हो जाएगी...
आते रहते हैं हम आपके शहर में...
जो मेरे आंसूओं का लिखा पढ़ सके...
लोग ऐसे हैं कम आपके शहर में...
शहर है आपका ये हमारा नहीं...
भूल जाते हैं हम आपके शहर में...
ऐसे वैसे कई देखते देखते...
हो गए मोहतरम आपके शहर में...
एक डर, एक खुशी और हज़ारों मौजों की रवानगी मेरे दिल मे उठने लगी जब मेसेज के अंत मे संध्या का नाम पढ़ा।
एक मिनट तक ये सोचता रहा कि क्या एक शायरी भेजूं जवाब में या सिर्फ एक हाय... फिर खयाल आया, etiquette नाम की भी कोई चीज़ होती है। मैने सिर्फ,"हाय कैसी हो संध्या” लिखा। और फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ।
हाँ उसकी भेजी हुई ग़ज़ल की तारीफ करना न भूला, क्योंकि वो पहला मेसेज था तो तूफान ले आया था। फिर बातों ही बातों में पता चला कि वो आगरा में है और मिलना चाहती है।
बिना देर किए मैं दिल्ली गेट पर 12 बजे मिलने का प्रोग्राम बनाया और अपनी सबसे बेहतरीन शर्ट जो मीटिंग के लिए रखता हूँ निकाली और deo की जब तक शामत नहीं आयी तब तक उसे दबाता रहा।
चूंकि फार्मा फील्ड से हूं तो समय से पहले पहुचने की आदत है तो पहुच गया। क्या कहूंगा, क्या पूछुंगा, कैसे शुरुवात करूँगा सब सोचने लगा। तभी स्कूटी से उसका आना हुआ। वही बिखरे बाल जिन्हें समेटने की नाकाम कोशिशें जारी थीं और साथ में स्कूटी पार्किंग की समस्या। जैसे वो मेरे करीब आयी, मैंने कहा एक गुस्ताखी की इजाज़त चाहूंगा, एक पतली मुस्कान से उसने कहा, मंज़ूर है।
मैंने बस उसकी लटों को उसके कान के पीछे कर दिया और फिर वो ज़ोर से हंसी जैसे मैने कोई जोक सुनाया हो... अभी भी उसके हाथों की मेहंदी का सुर्ख लाल रंग उतरा नहीं था।
धीरे धीरे हम एक रेस्टोरेंट की तरफ बढ़ने लगे, क्या यही प्यार की सीढ़ी है सोचता रहा और अंदर प्रवेश किया। औपचारिक बातचीत के बाद उसने बताया कि वो आगरा घूमने आयी है और मैं उसका टूरिस्ट गाइड बनूँ। कहीं मेरा दिल प्लेट में ना निकल आये, खुद को कैसे सम्भाला बता नहीं सकता बस इतना ही कह पाया कि, "संध्या, मेहनताना क्या मिलेगा?"
मेरे इस सवाल से थोड़ी सी चौंकी ज़रूर मगर सधे अंदाज़ में बोला, “जैसा घुमाया वैसा मेहनताना। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी।”
इस बार मैं अपनी कार लेके आया था और ले के गया कीठम झील... तन्हाइयों में, जहां चिड़ियों की चहचहाट हो, प्रकृति अपने चरम पर हो... ताकि कुछ बातें हम कर सके... आईने की तरह सब कुछ अपने बारे में बता दिया मैंने और फिर एक दूसरे के कंधे पर सर रख के बैठे रहे घंटों...
तभी देखा 6 बज गए, मैंने कहा, घर नहीं जाना और हम वापस दिल्ली गेट आ गए, और वो कल फिर मिलने का वादा कर के जाने लगी। मैंने याद दिलाया कि मेरा मेहनताना कहाँ है। कब मै उसके आगोश में था मुझे याद नहीं और एक प्रगाढ़ चुम्बन के बाद हम अलग हुए... बस एक शायरी याद आ गयी-
एक उम्र वो थी कि
जादू में भी यक़ीन था,
एक उम्र ये है कि
हकीकत पर भी शक है...
पता नहीं कब वो उतर के चली गयी, मुझे होश नहीं अलबत्ता पीछे वाले गाड़ी वाले ने हॉर्न ना बजायी होती...
कई रातें हमने वाट्सएप्प चैट पर गुज़ारे, फेसबुक पर लोगों को शक हो गया।
जब भी उसे देखता बस यही खयाल दिल में आता
उफ्फ ये नज़ाकत ये शोखियाँ ये तकल्लुफ़,
कहीं तू उर्दू का कोई हसीन लफ्ज़ तो नहीं।
मुझे याद है मेरे जन्मदिन के लिए उसने पूरे 1 महीने से पूरी तैयारी करने में जुटी हुई थी और वो दिन आ गया। मुझे तो रात 12 बजे ही उसके अंदाज़ से जन्मदिन की बधाइयाँ मिल गई, उसने मेसेज में लिखा कि -
ये तो अपनी अपनी जरूरतें सजदा करवाती हैं...
वर्ना 'इश्क़' और 'खुदा' में आज तक 'खुदा' को चुना किसने है...
फिर घर वालों और सभी रिश्तेदारों के बधाई संदेश। सुबह 7 बजे, वही गुलाबी ठंड लिए आसमान कुछ रूमानी हो रहा था, संध्या को चैन कहाँ, निकल पड़ी अपनी स्कूटी ले के जिसमे मेरा गिफ्ट भी था।
तकरीबन 8 बजे होंगे और मुझे फ़ोन आया की संध्या का एक्सीडेंट हो गया, चूंकि आखिरी dialing नंबर आपका है इसलिए फ़ोन किया।
मैंने तुरंत उस भले मानस को बगल के अस्पताल में भर्ती करवाने को बोला और जिस हालात में था तुरंत निकल लिया।
एक एक पल काटना मुश्किल था मेरे लिए। मैं जैसे अस्पताल मे दाखिल हुआ बस मेरी एक झलक देखने को उसकी आंखें खुली थीं... मैं धीरे धीरे करीब आता गया और उसकी आंखें बोझिल होती गई... मैं दौड़ के उसके पास पहुचा और ज़ोर से लिपट गया उससे वैसे ही जैसे उसने मुझे अपने आगोश में लिया था। आँसू नहीं थे मेरी आँखों मे, शायद सूख गए थे।
लिपटा है मेरे दिल से किसी राज़ की सूरत,
वो शख्स के जिसको मेरा होना भी नहीं है...
फिर खुद को सम्भालते हुए उसके पापा को क्या कहता, पर फ़ोन लगाया और सारी घटना बताई। वो वहां से आगरा को निकले और मैं उसकी स्कूटी साइड में लगाया, चूंकि एक्सीडेंट में उसका लॉक टूट गया था तो मेरा गिफ्ट भी बाहर निकल आया... बड़ी हिम्मत से उसे खोलने की जहमत की और उसमें से निकली वो #पुरानी_डायरी, जिसका जिक्र मैं अपनी सभी शायरियों में करता हूँ।
हम जब जब मिले हर पल का ज़िक्र और एक शायरी... शायद उसे नियति पता थी और मै अब उस नियति के बोझ से दबा जा रहा था... आज एक ज़िन्दगी रुक्सत तो कर गयी पर मेरे दिल पर पुरानी डायरी का असर छोड़ के।
वो कहते हैं ना-
उनसे मोहब्बत कमाल की होती है...
जिनसे मिलना मुकद्दर में नहीं होता...