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Dr. Pradeep Kumar Sharma

Drama

4  

Dr. Pradeep Kumar Sharma

Drama

पुनर्वास

पुनर्वास

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हार्ट अटैक का पहला झटका झेलने के दूसरे ही दिन रमाकांत जी की अपनी निजी पुस्तकालय की सभी पुस्तकें जिला ग्रंथालय को दान करने के फैसले से मालती चकित थी। 

लगभग पचपन साल पहले जब रमाकांत से उनकी शादी हुई थी, तब घर में यत्र-तत्र-सर्वत्र किताबें ही किताबें बिखरी पड़ी रहती थीं। शादी के बाद मालती ने दो अलमारियाँ खरीदीं और उन किताबों को व्यवस्थित किया। 

समय के साथ उनके दोनों बच्चे बड़े होते गये और रमाकांत जी की पढ़ने-लिखने की आदत से अलमारियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। 

बच्चे अब अपने पैरों पर खड़े होकर अलग-अलग शहरों में अपने-अपने बीबी-बच्चों के साथ बस गए। 

तीज-त्योहार पर सब इकट्ठे होते, तो बहू-बेटे उनसे कहा करते कि इतनी सारी किताबें रखने का क्या लाभ ? जो जरूरी हैं, उन्हें रखिए, बाकी सब को किन्हीं जरूरतमंद व्यक्ति या कबाड़ी को दे दीजिए। पर रमाकांत जी कहाँ मानते, वे उनसे अक्सर कहा करते थे, "इन किताबों के साथ हमारी कई खूबसूरत यादें जुड़ी हुई हैं। इन्हीं किताबों से दर्जनों लोगों को पीएच.डी. की डिग्री पाने में मदद मिली है। ये किताबें मेरे अकेलेपन के साथी हैं। इन्हीं किताबों के कारण आज भी लोग मेरे पास आते हैं। इन्हीं से मेरी पूछ-परख बनी हुई है। इन्हें कैसे किसी को भी दे दूँ।"

परंतु अब ये अचानक सभी किताबें दान करने का विचार मालती की समझ से परे था। अंततः उसने इसका कारण पूछ ही लिया। 

रमाकांत जी लंबी सांस ले छोड़ते हुए बोले, "मालती, इनका हमारा साथ अब ज्यादा लंबा नहीं है। पहला झटका तो किसी तरह मैंने झेल लिया, अब आगे क्या भरोसा। दोनों बच्चे अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। मुझे पूरा यकीन है कि मेरे बाद ये इन किताबों का भी अंतिम संस्कार कबाड़ी के हाथों कर ही देंगे, जो हम कभी नहीं चाहेंगे। तुम्हें याद है शादी के बाद कई बार हम मेरी बड़ी संख्या में इन किताबों और पत्रिकाओं को खरीदने की आदत को लेकर झगड़े हैं। यहाँ तक कि कई बार दो-दो दिन तक हमारी बातचीत भी बंद रहती थी। इन किताबों के कई प्रसंग मैंने तुम्हें जबरन भी सुनाए हैं। हमारे बच्चे भी इन पुस्तकों से ही बहुत कुछ सीख कर आज अपने पैरों पर खड़े हुए हैं। अब अपने जीते-जी कबाड़ी को देकर कैसे इनका अंतिम संस्कार कर दूँ ? इनका पुनर्वास जरूरी है मालती। ग्रंथालय में ये हमारे बाद भी अनगिनत लोगों के काम आएँगी।" कहते-कहते रमाकांत जी का गला भर आया था। पत्नी की ओर देखा, शून्य में ताकती दोनों आँखों से आँसू की धारा बह रही थी।


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