प्रथम प्रेमानुभूति
प्रथम प्रेमानुभूति
बात उन दिनों की है जब मैं अपनी बुआ के घर हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहा था। पूर्णिमा भी अपनी बुआ के घर पर रहकर हाईस्कूल कर रही थी। हम दोनों में काफी अच्छी मित्रता थी। उस वक्त मुझे प्रेम का लेशमात्र ज्ञान नही था और ना ही कभी इस विषय में सोंचता था।
समय बीतता गया, हम दोंनों में नजदीकियाँ बढ़ने लगीं। भोजनावकाश में हम दोनों साथ बैठकर खाते, वो रोज मेरे लिए कुछ ना कुछ बनाकर लाती थी। हम दोनों ढ़ेर सारी बातें करते।
समय आ गया था दसवीं की बोर्ड परीक्षा का, उसका केन्द्र स्थायी रहा, पर मेरा केन्द्र पास के गाँव में था। अन्तिम दिन परीक्षा देकर वापस लौटते वक्त रास्ते में पूर्णिमा भी मिल गई। घर थोड़ा दूरी पर था हम दोनों आपस में बातें करते चले आ रहे थे।
सहसा मेरी नजर उसकी गीलीं आँखों पर पड़ी। मैनें पूछा क्या हुआ ? कहने लगी अब तो शायद हम कभी नही मिल पायेंगें। इतना कहकर वो फूट फूट कर रोने लगी, अचानक मेरे हृदय में भी हलचल सी मच गई, फिर स्वयं को संभालते हुए कहा कि इस जीवन में हम कई लोगों से मिलते हैं कितनों को हम शायद हम कुछ समय बाद भूल जाते हैं पर कितनों की यादें जिन्दगी भर साथ रह जाती हैं। अचानक ही उसने प्रेम का इजहार कर दिया, मैं तो स्तब्ध सा रह गया। रेल की पटरियों पर गुजरती तीव्र ट्रेन की तरह मेरे दिल की धड़कनें तीव्र हो गयीं।
उस गुजरती मालगाड़ी की तीव्रता में उसके अधरों का हल्का स्पर्श अपने कपोल पर अनुभव किया। मैं तो संज्ञाहीन चुपचाप चलता चला जा रहा था। बस मन में व्याकुलता हावी थी और कहीं उससे बिछड़ने की पीर थी । शायद यही प्रेम का प्रथम आभास था। अब उसका घर आ गया था, उसने अलविदा कहा और आँसू पोंछते घर चली गई और मैं भी अपने घर की ओर...।

