Hritik Raushan

Abstract

4.9  

Hritik Raushan

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परछाई

परछाई

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मुझे शिकायत है मेरी परछाई से,वो मेरी ठीक -ठीक आकृति नहीं बनाती। कभी मेरे कद से छोटी , कभी मेरे कद से बड़ी तो कभी दोनों पैरों के इर्द गिर्द एक गोल घेरा बना लिया करती है। मैं उससे छुपने को कभी पेड़ों की ओट का तो कभी दीवारों का सहारा लिया करता हूं, नजर घुमा कर देखता हूं तो वो मेरे सहारे को मुझ से जोड़ एक नई आकृति गढ़ रही होती है। मैं उससे भागता हूं,बेतहाशा,उससे कोसो दूर निकल जाना चाहता हूं पर हमेशा उसकी जिद्द मेरे पैरों में लिपटी हुई मिलती है। 

    मैंने उससे कई बार कहा कि ठीक -ठीक हिसाब क्यूं नहीं लगा लेती?, मैं जैसा हूं मुझे ठीक वैसा ही पेश क्यूं नहीं करती? उसने कुछ नहीं कहा,कभी नहीं कहा,चुपचाप मेरी आकृति बनाती रही ।

एक दिन मैं घर से नहीं निकला,आज मैं खुश था कि उससे मुलाकात नहीं होगी तभी खिड़की से झांकती रोशनी का एक टुकड़ा मेरे शरीर से आ लगा, पलट कर देखा तो दीवार पर मेरी आकृति थी। मैं उसके करीब गया,और करीब,और करीब,जितना करीब गया वो मुझसे दूर होते गई। मेरे अंदर एक अजीब सी टिस उठी उसके खो जाने की,मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जिससे इतने दिनों तक भागता रहा उसके खो जाने पर इतना दुखी क्यों हूं? मैं भावों का गुणा -भाग नहीं करना चाहता था,मुझे समझ आ गया था कि उसका ज़िद्दीपन मुझे अच्छा लगने लगा है और उससे भागना मेरा खुद से भागना है। मैं फूट फूटकर रोने लगा एक बच्चे की तरह.. मैं बिल्कुल खाली हो जाना चाहता था उस रोज....


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